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Wednesday, 17 October 2012
Liver Cirrhosis

Details are available on following webpage:

 

http://puranastudy.atwebpages.com/ayurveda/liver_cirrhosis.htm


Posted by puraana at 12:19 AM EDT
Tuesday, 18 September 2012
Natural cure for headache

सिर दर्द का उपचार

Natural treatment for headache

मेरी बहिन को लगभग 40 वर्ष से सिर का दर्द था। पहले वह बहुत तेज हुआ करता था। काम्बीफ्लेम तथा पैण्टोसिड का मिश्रण लेने से कुछ समय के लिए आराम मिल जाता था। सवेरे खाली पेट लौकी, खीरे आदि का रस लेने से दर्द की तीव्रता तो कम हो गई, लेकिन सिर दर्द पूरी तरह ठीक नहीं हुआ। उसने नेट्रम म्यूर 200 एक्स ली, लेकिन आराम नहीं हुआ। नेट्रम म्यूर 1 एम जो महीने में केवल एक बार लेनी होती है, उसने ली लेकिन आराम नहीं हुआ। अब सूखी रोटी पर गेहूं का मोटा चूर्ण(आटे से मोटा व दलिये से पतला ) खाने से उसका सिर दर्द पूरी तरह ठीक हो गया है।


Posted by puraana at 4:48 AM EDT
Thursday, 12 July 2012
Panchabhadra for Fever

पंचभद्र

आयुर्वेद में पंचभद्र योग का प्रयोग वात-पित्त से उत्पन्न ज्वर की शान्ति के लिए दिया गया है। दुर्भाग्य से यह योग अभी तक बाजार में उपलब्ध नहीं है। पंचभद्र योग के पांच घटक हैं नागरमोथा, गिलोय, पित्तपापडा, सोंठ व चिरायता। पंचभद्र के सम्यक् प्रयोग के लिए यह आवश्यक है कि इसके घटकों के गुणों का सम्यक् ज्ञान हो। ऐसा अनुमान है कि नागरमोथा पंचभद्र योग के घटकों में शीतलता लाता है। गिलोय व चिरायते की प्रकृति उष्ण है। पित्तपापडा शीतल है। चिरायता बहुत कडवा होता है और कडवी वस्तु लगातार सेवन किए जाने पर हानि भी करती है। ऐसा पाया गया है कि यदि पंचभद्र में चिरायते के स्थान पर वासा रख दिया जाए तो उससे रक्त में प्लेटलैट तथा हीमोग्लोबीन में तो वृद्धि होती है, लेकिन दोष निवारण की क्षमता समाप्त हो जाती है। दोष से तात्पर्य है कैंसर आदि से जो श्वेत रक्त कणों की मात्रा में वृद्धि का कारण बनते हैं। अथवा अन्य किसी भी दोष से जो रोग को उत्पन्न कर रहे हों। पंचभद्र को बाजार में बिकने योग्य बनाने के लिए नागरमोथा, पित्तपापडा, सोंठ व चिरायता को पीस कर चूर्ण बनाया जा सकता है। ताजी गिलोय को काटकर एक सेंटीमीटर लम्बे टुकडे कर लेने चाहिएं और फिर उनको कूट लेना चाहिए। फिर मिक्सी में डालकर पानी के साथ मिश्रण बना लेना चाहिए। फिर उस मिश्रण को स्टेनलैस स्टील की छलनी में डालकर छान लेना चाहिए और द्रव को अन्य चार घटकों के चूर्ण में मिलाकर सुखा लेना चाहिए। यदि चाहें तो गिलोय के बचे ठोस भाग में पुनः पानी मिलाकर मिश्रण बनाया जा सकता है। पानी के स्थान पर गोमूत्र का प्रयोग भी किया जा सकता है। गिलोय की एक से अधिक भावनाएं भी दी जा सकती हैं। इससे पंचभद्र योग में गिलोय की सम्यक् मात्रा का समावेश किया जा सकता है।

पंचभद्र के घटकों का अनुपात कितना हो, इसका कोई उल्लेख नहीं है। चार घटकों का अनुपात बराबर लिया जा सकता है, लेकिन चिरायते का अनुपात कम-अधिक किया जा सकता है।

प्रयोग सं. १ ज्वर में पंचभद्र के स्थान पर केवल गिलोय का प्रयोग किया गया। इससे ज्वर तो उतर गया लेकिन दूसरे दिन वह ज्वर फिर उभर आया। ज्वर पूर्णरूपेण तभी शान्त हुआ जब पंचभद्र का सेवन किया गया।

प्रयोग सं. २ – A.M.L. रक्त कैंसर से पीडित रोगी के ज्वर को समाप्त करने के लिए जो इंजेक्शन दिए गए, उससे रोगी में प्लेटलैट बनने बंद हो गए और डाक्टरों ने जवाब दे दिया। चिरायता युक्त पंचभद्र के सेवन से प्लेटलैट पुनः बनने लगे।

प्रयोग सं. ३ – चिरायता – रहित पंचभद्र के लगातार सेवन से एक व्यक्ति ने जोडों में दर्द की शिकायत की। अतः पंचभद्र का सेवन बंद करना पडा।

प्रयोग सं कैंसर की अन्तिम अवस्था में कैंसर फैलने पर रक्त में द्रव बनने लगता है जो अन्ततः फेफडों की झिल्लियों में एकत्र हो जाता है और जिसको इंजेक्शन की सुई द्वारा निकलवाना पडता है। इस द्रव को सुखाने के लिए आरग्वध गण व दीपनीय गण ओषधियों के मिश्रण से योग बनाया गया। लेकिन यह योग बहुत तीक्ष्ण है और इससे गुदा में फफोले बनने का खतरा है। इसको मृदु करने के लिए इसके साथ कभी बिना चिरायते का और कभी चिरायते वाले पंचभद्र का मिश्रण किया गया। पंचभद्र की मात्रा अधिक ली गई, आरग्वध-दीपनीय योग की कम। यदि बिना चिरायते वाले पंचभद्र का उपयोग किया जाए तो केवल द्रव ही सूखेगा। यदि चिरायते वाले पंचभद्र का उपयोग किया जाए तो (अनुमान है कि) कैंसर पर भी प्रभाव पडेगा।


Posted by puraana at 12:16 AM EDT
Thursday, 19 April 2012
Baba Kamalnath and cancer treatment

बाबा कमलनाथ और कैंसर चिकित्सा

लिम्फ नोड कैसर

मेरी बहिन को लगभग ५० वर्ष की आयु में लिम्फ नोड कैंसर हुआ। कैंसर होने से पूर्व उसकी नाडी लगातार धीमी तथा त्रुटित होती जा रही थी। अनुमान था कि इसकी परिणति हृदय रोग में होगी, लेकिन हुआ कैंसर। कैंसर का पता संभवतः कण्ठ में छोटी सी गुठली बनने से लगा। डाक्टरों ने दांयी बगल से लगभग ८ लिम्फ नोड निकाल दिए तथा कैमोथीरेपी हुई। इससे कैंसर शान्त हो गया। लेकिन एक-दो साल बाद फिर उभर आया। इस बार कैंसर का फैलाव फेफडों में हुआ और फेफडों में पानी भर गया जिससे खांसी उठने लगी। सीढियों पर चढते समय सांस भी फूलने लगा। कैंसर का पता चलने पर फिर कैमोथीरेपी हुई। फिर कैंसर दब गया। लगभग छह महीने शान्त रहने के बाद कैंसर फिर उभर आया। इस बार वह यकृत में पहुंच गया। फिर कैमोथीरेपी हुई। इससे खांसी तो ठीक नहीं हो पाई जो संकेत है कि फेफडों में कैंसर यथावत् है। अस्थियों में भी कैंसर फैल गया है जिससे शरीर में पीडा आरम्भ होने की आशंका है। रोगी ने दिल्ली के होम्योपैथ डा. पंकज भटनागर से परामर्श किया और उसने कहा कि वह तो ओषधि कैमोथीरेपी समाप्त होने के तीन महीने बाद ही दे सकता है। एक अन्य होम्योपैथ डाक्टर से ओषधि ली गई है जिससे कि जितने दिन जीना है, उतने दिन अधिकतम स्वस्थ रहकर जीवन यापन किया जा सके। कोई अन्य उपाय न देखकर बाबा कमलनाथ(गहनकर, भिण्डूसी निवासी) से ओषधियां प्राप्त की हैं जो निम्नलिखित हैं  --

1.     वंग भस्म १ ग्राम गाय के दुग्ध की मलाई के साथ । खाली पेट प्रातःकाल। निर्देश दिया गया है कि वंग भस्म प्रत्येक कंपनी की नहीं ले सकते। वर्तमान भस्म चिरायु कंपनी की बनी है।

2.     आधा घण्टे पश्चात् विजयसार की लकडी का चूर्ण। मात्रा लगभग २ ग्राम।

3.     आधा घण्टे पश्चात् एक सफेद चूर्ण जो टाइटेनियम आक्साईड लगता है। इसकी लगभग २ ग्राम मात्रा श्यामा तुलसी के पिसे हुए १५० पत्ते तथा दही के मिश्रण के साथ लेनी है। बताया गया है कि बाबा जी की वास्तविक कैमोथीरेपी यही ओषधि है। सामान्य स्थिति में यदि तुलसी के १० पत्तों का भी प्रतिदिन सेवन किया जाए तो उससे मूत्र में खून आने की आशंका रहती है। लेकिन इस ओषधि में १४०-१५० पत्तों का सेवन किया जा रहा है और फिर भी कुछ नहीं होता।  

4.     एक घण्टे पश्चात् एक चूर्ण जिसमें त्रिफला आदि हो सकते हैं। मात्रा लगभग २ ग्राम। इसे गौदुग्ध को उबाल कर उसमें डाल देना है। दूध ठंडा हो जाने पर उस दूध को ओषधि समेत पी लेना है।

5.     एक घण्टे पश्चात् एक अन्य चूर्ण को शहद के साथ लेना है।

इस चक्र की आवृत्ति सायंकाल भी करनी है। लेकिन सायंकाल वंग भस्म नहीं लेनी है। अन्य ४ ओषधियां ही लेनी हैं।

इन ओषधियों के सेवन काल में पथ्य अपथ्य का बहुत ध्यान रखना होता है और वह सबसे कठिन कार्य है। अपथ्य वस्तुओं में लहसुन-प्याज, मांस-मदिरा-अण्डा-चाय, खटाई, तेल-घी(देसी घी समेत), गुड, मिर्च, चावल, उडद की दाल, आलू, अरबी, फूल गोभी आदि हैं। पथ्य वस्तुओं में मूंग की हरी दाल, पत्ता गोभी, लौकी , टिंडे, परवल, हरी सब्जियां आदि हैं। फलों में सन्तरा, अंगूर आदि साईट्रस फल वर्जित हैं। चीकू, अनार, पपीता आदि ले सकते हैं। लेकिन श्री अग्रवाल का कहना है कि केला और आम को छोडकर सभी मीठे फल लिए जा सकते हैं।

  लौकी का रस लेने का भी निर्देश दिया गया है। बताया गया है कि लौकी का रस केवल इसलिए बताया गया है कि लौकी सबको हजम हो जाती है। अन्यथा ज्वारा, एलोवीरा आदि भी लिए जा सकते हैं।

जो कुछ निर्देश दिए गए हैं, उनके पालन में रोगी द्वारा इतना अन्तर कर दिया गया है कि दूध की मात्रा जहां २०० ग्राम नियत है, वहां केवल ५०-१०० ग्राम दूध ही लिया जा रहा है जिससे भूख समाप्त न होने पाए। लेकिन रोगी ने बताया है कि चूर्ण की जितनी मात्रा है, उसे लेने के लिए, चूर्ण को दूध में घोलने के लिए लगभग २०० ग्राम दूध की आवश्यकता पडती है।

तीन दिन ओषधि लेने पर रोगी की नाडी में सुधार लग रहा है। लेकिन कमजोरी बहुत बढती जा रही है। नाडी में सुधार इस प्रकार है कि रोगी की पित्त नाडी अत्यधिक तीव्र गति से चल रही थी, जैसे तेज ज्वर हो। अब तीव्रता में कुछ कमी आई है तथा अब वात प्रबल है, पित्त नहीं। आठ दिन के पश्चात्(३१ मार्च २०१२) परीक्षा करने पर रोगी की वात नाडी भी उग्रता से शान्ति की ओर जाती प्रतीत होती है।

  लगभग १७ दिन पश्चात् (९-४-२०१२)नाडी परीक्षा करने पर पाया गया कि  रोगी की नाडी अपनी उस स्थिति को ग्रहण करने का प्रयत्न कर रही है जैसी वह कैमोथीरेपी से पहले कभी थी। ५-७ बार वात नाडी का कम्पन होता है और फिर वह बहुत धीमी पड जाती है अथवा रुक सी जाती है। ५-७ बार कम्पन बहुत तेजी से होता है जिससे कम्पन की आवृत्ति सामान्य ६०-७० की अपेक्षा ९० के लगभग हो रही है। आशा है कि ओषधि के सेवन से इस तीव्रता में भी कमी आती जाएगी। शरीर में, पैरों में दर्द असहनीय हो गया है जिसको दबाने के लिए अल्ट्रासैट अंग्रेजी ओषधि(पैरासिटामोल + ट्रेमोडोल का मिश्रण) दिन में तीन बार ली जा रही है। रोगी को यह निर्देश दिया गया था कि किसी भी स्थिति में पेट की अग्नि बुझनी नहीं चाहिए। लेकिन अब रोगी ने बताया है कि जो ओषधि तुलसी के पत्तों व दही के साथ ली जाती है(सेलखडी जैसी), उसके लेने के पश्चात् कुछ भी लेने को जी नहीं करता। सारी भूख समाप्त सी हो जाती है।

दि. 13-4-2012—यकृत में सूजन आ गई है और वह फोडा जैसे हो गया है। बहुत दर्द है। डाक्टरों के बताने पर D-Trans Fentanyl 25microgram/hour  का पैच लगाया है जिसके लगाने के पश्चात् अल्ट्रासैट पेनकिलर लेने की भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन पैच लगाने के बाद भी दर्द में कमी नहीं है। नाडी अपनी स्वाभाविक स्थिति में और अधिक आ गई है।

  दि. 14.4.2012रोगी के दायें फेफडे से 4 बोतल(3.3 लिटर)  पानी निकाला गया है। इससे उसको सांस लेने व बोलने में आराम मिला है। सांस भी घुटने लगी थी। अब यकृत का दर्द भी ठीक हो गया है। यह उल्लेखनीय है कि बाबा कमलनाथ के आश्रम में यह निर्देश दिया गया था कि यदि फेफडों में पानी भर जाए तो उसे निकलवाना नहीं है। डाक्टर ने पानी निकालने का निर्णय तब लिया जब श्वास की आवृत्ति प्रति मिनट 36 से 38 तक पहुंच गई थी। सामान्य आवृत्ति 20 होती है। 40 ऊपरी सीमा है।

दि. 17-4-2012रोगी के यकृत कार्य क्षमता परीक्षण में यकृत द्वारा प्रोटीन बनाने के कार्य की क्षमता शून्य पाई गई(प्रोटीन निर्माण का कार्य यकृत ही करता है)। एल्ब्यूमिन निर्माण सामान्य किन्तु ग्लोब्युलिन(जो शत्रुओं से रक्षा करता है) निर्माण क्षमता शून्य। प्रत्यक्ष बिलिरुबिन निर्माण क्षमता सामान्य से कम(2.2) और अप्रत्यक्ष बिलिरुबिन निर्माण क्षमता(5.5) सामान्य से अधिक। अप्रत्यक्ष बिलिरुबिन रक्त में होता है जिससे यकृत प्रत्यक्ष बिलिरुबिन का निर्माण करता है।

बाबा कमलनाथ जी के आश्रम में मुख्य कार्यकर्ताओं में से एक श्री महेन्द्र अग्रवाल से पूछा गया कि ऐसा तो नहीं है कि इन ओषधियों के कारण इतना दर्द बढ गया हो। लेकिन उनका कहना था कि ऐसा कुछ भी नहीं है। लेकिन वहां उपस्थित एक रोगी का कहना था कि तीन-चार महीने ओषधि सेवन के बाद शरीर की सभी संधियों में दर्द होता है जिसके लिए यहां से तैल दिया जाता है।

  मुख्य प्रश्न यह था कि यदि रोगी पथ्य-अपथ्य से तंग आकर ओषधि सेवन त्यागना चाहे तो क्या कुछ समय के लिए त्याग सकता है? श्री अग्रवाल का उत्तर था कि हमने रोगियों को विज्ञापन द्वारा बुलाया तो नहीं है। वह अपने आप ही आए हैं। लेकिन उनका यह भी कहना था कि ओषधि सेवन त्यागने से अच्छा यह है कि पथ्य-अपथ्य का ध्यान न रखते हुए ही ओषधि सेवन कर लिया जाए। उन्होंने तो इतना तक बताया कि यदि रोगी को भोजन ट्यूब के माध्यम से दिया जा रहा हो तो ओषधियों को जल, दुग्ध, दधि आदि में मिलाकर पतला बना लिया जाए और ट्यूब में डाल दिया जाए। मृत्युकालीन समय के विषय में श्री अग्रवाल ने बताया कि मृत्यु समय में क्या करते हैं? तुलसी और गंगाजल मुख में डालते हैं। ऐसे ही बाबा की ओषधियां पवित्र हैं। उन्हें दिया जाए। एक रोगी ने बताया कि आश्रम में ओषधियों का भरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जो यह ओषधियां नेपाल से लाते हैं। एक बार इन लोगों को पकडकर जेल में बंद कर दिया गया तो आश्रम में एक-डेढ महीने ओषधियों का वितरण बंद रहा। त्राहि-त्राहि मच गई। वसुंधरा जी को कहा गया। उन्होंने अपने प्रयास से पुनः कार्य को चलवाया।

  ऐसा भी पता चला कि एक क्लीनिक वाले ने पांच रोगी भर्ती कर लिए और वह उनकी ओषधि आश्रम से लेने लगा। आश्रम के व्यक्तियों के पता चलने पर उसको ओषधि वितरण रोक दिया गया।

बाबा के यहां जिन चार-पांच रोगों की चिकित्सा की जाती है, उनमें से कुछ हैं – हृदय रोग, कैंसर, मिर्गी, रक्तचाप, मधुमेह आदि।

बाबा कमलनाथ के आश्रम में तो सभी रोगी उनकी ओषधि के चमत्कारिक प्रभाव का वर्णन करते हैं। लेकिन ऐसे भी तो बहुत से रोगी होंगे जिनको लाभ नहीं हो पाया है और अन्ततः उनको मृत्यु का मुख देखना पडा है।

डा. पंकज भटनागर कैंसर के लाइलाज रोगियों को बाबा कमलनाथ जी के पास भेजते रहते हैं। जब उनसे कहा गया कि वह अपने द्वारा भेजे गए रोगियों को अपनी देखभाल में रखें तो उनका उत्तर था कि डाक्टर को रोगी की चिकित्सा देश, काल, धर्म आदि सब देख कर करनी पडती है। होम्योपैथी के डाक्टर के पास कैंसर का रोगी तभी आता है जब वह ऐलोपैथी चिकित्सा से हार चुका होता है। डाक्टर को पता होता है कि रोगी दो-तीन महीने में मर जाएगा। मरने के बाद उसके सम्बन्धी मोटी फाईल उठा कर लाते हैं कि डाक्टर साहब इस L.I.C.  के कागज पर साईन कर दो, उस पर साईन कर दो। इससे तो अच्छा यह है कि रोगी पर हाथ ही न रखा जाए।  न तो मेरा कोई स्वार्थ है, न बाबा कमलनाथ का। फिर, यदि रोगी मुसलमान है तो उसे तुरन्त ओषधि दी जा सकती है। यदि वह मर गया तो उसके सम्बन्धी कहेंगे कि अल्लाह की ऐसी ही मर्जी थी। हिन्दू के सम्बन्धी कहेंगे कि डाक्टर ने मारा है।

 

बाबा कमलनाथ जी का परिचय

कैंसर में अग्निमांद्य

कैंसर की बढी हुई अवस्था में क्षुधा का लोप हो जाता है। इसके विभिन्न कारण हो सकते हैं। एक कारण यह हो सकता है कि चेतन शक्ति कैंसर सैलों के चारों ओर जलीय आवरण उत्पन्न करती है। जल की अधिकता से अग्निमांद्य हो जाता है। इंटरनेट पर loss of appetite cancer कीवर्ड से खोज करने पर अग्निमांद्य की चिकित्सा दालचीनी तथा गांजा/भांग आदि के सेवन द्वारा कही गई है। लेकिन यह कोई सम्यक् चिकित्सा नहीं है। सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान अध्याय ३८.२२ में पिप्पल्यादिगण को अग्निदीपक कहा गया है। इस गण में निम्नलिखित ओषधियां हैं पिप्पली, पिप्पलीमूल/पिपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, कालीमरिच, गजपीपल, हरेणुका, छोटी इलायची, अजमोद, इन्द्रयव, पाठा, जीरा, सरसों, महानिम्बफल/बकायन का फल, हींग, भारंगी, मूर्वा, अतीस वचा, वायविडङ्ग व कुटकी। इन सबको आरग्वधादिगण की ओषधियों के साथ मिलाकर सेवन करना है। आरग्वध गण की ओषधियों में  आरग्वध/अमलतास, मदन/मैनफल, गोपघण्टा, कण्टकी, कुटज/कुडा, पाठा, पाटला, मूर्वा, इन्द्रयव, सप्तपर्ण/सतवन, निम्ब, कुरुण्टक, गुडूची/गिलोय, चित्रक, शार्ङ्ष्टा/काकजङ्घा, करञ्जद्वय(नाटा व पूतीकरञ्ज), पटोल, किराततिक्त/चिरायता व सुषवी/करेला हैं। इस वर्ग की ओषधियों में से जो भी सुलभ हों, उनको लिया जा सकता है। वास्तव में यह योग किसी स्थान पर फुन्सियों के निवारण के लिए दिया गया है। कहां दिया गया है, यह पता नहीं लग सका है। इससे अगले चरण में आरग्वध गण के बदले ८ क्षार(पलाश, शिरीष आदि) लिए जाते हैं। इससे अगले चरण में ८ मूत्र(गौ, महिषी, अजा, उष्ट्र आदि) लिए जाते हैं। जो योग फुन्सियों के लिए कहा गया है, उसी योग को कैंसर सैलों के लिए भी माना जाना चाहिए।

20-4-2012 दीपनीयगण-आरग्वधगण की ओषधि लेने के पश्चात् रोगी को असह्य खुजली हुई है(यह अच्छा लक्षण हो सकता है)। इसके पश्चात् रोगी को बाबा कमलनाथ जी की ओषधि सेवन के पश्चात्, विशेषकर सेलखडी जैसी ओषधि के सेवन से उल्टी जैसी होने की स्थिति हो रही है जो बहुत कष्टदायक है। यह यकृत द्वारा अपना कार्य बन्द करने का लक्षण बताते हैं। रोगी की श्वास दर इस समय 32 है जो संकेत करता है कि रोगी के फेफडों में पानी भरा है।

दि. 24-4-2012दीपनीय-आरग्वध गण की ओषधि प्रतिदिन लेने के कारण अब रोगी को खांसी नहीं उठती है क्योंकि यह ओषधि विसर्प चिकित्सा के लिए है और खांसी का कारण फेफडों में पानी का होना है। पानी का बनना और फुन्सी दोनों एक ही बात हैं। रोगी की श्वास दर अब 25 -26 है। लेकिन वात नाडी की दर सामान्य से कहीं अधिक है। दायें पैर में तीव्र दर्द होता है जिसको रोकने के लिए रोगी ने लगातार पैच लगा रखे हैं क्योंकि एक बार दर्द आरम्भ होने पर पैच लगाने पर फिर दर्द रुकने में 5-7 घंटे लग जाते हैं। इससे भी आगे, जब भी रोगी को दर्द बढने की आशंका होती है, वह पेन किलर कैप्सूल ले लेता है क्योंकि दर्द बढने के बाद पेन किलर लेने पर दर्द रुकने में 2-3 घंटे लग जाते हैं। ऐसा अनुमान है कि रोगी का शौच अनियमित हो जाने तथा जी मिचलाने का कारण दर्द निवारक दवाएं हैं। लेकिन इंटरनेट पर दी गई सूचना के अनुसार जब अस्थियों में, विशेषकर पैरों में दर्द होता है, उस समय अस्थियों से कैल्शियम निकल कर रक्त में मिल जाता है जो जी मिचलाना, उल्टी, कब्ज आदि के लक्षण उत्पन्न करता है। रोगी की वातनाडी की तीव्रता में कमी न होना यह संकेत करता प्रतीत होता है कि शरीर में अस्थियों के शोधन का कार्य चल रहा है। रोगी द्वारा वासा-नागरमोथा-गिलोय-पित्तपापडा-सोंठ से बने चूर्ण का सेवन भी किया जा रहा है। यह उल्लेखनीय है कि आयुर्वेदिक ओषधियों के सेवन से गुर्दों में क्रिएटिनीन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है जो खतरनाक है और जिसे दूर करना बहुत कठिन हो जाता है। अतः दीपनीय-आरग्वध गण की ओषधियों को लगातार नहीं लेना अच्छा होगा। अनुमान है कि इन ओषधियों के साथ लौकी, ज्वारा या पेठे के रस का सेवन करने से यह समस्या कम होगी। रोगी को कैंसर के मूल से मुक्ति पाने के लिए त्रिफला चूर्ण दिया गया है, इस अनुमान से कि केवल त्रिफले में ही आस्थापन की सामर्थ्य है। अनुमान है कि त्रिफला दूषित अस्थि मज्जा को शुद्ध कर सकता है। अस्थि मज्जा के दूषित होने के कारण ही कैंसर सैल उत्पन्न होते हैं।

दि. 26-4-2012 : रोगी को लगातार कब्ज की शिकायत थी और पेट फूल गया था। अतः रोगी ने किसी अंग्रेजी रेचक ओषधि का सेवन किया जिससे उसे आवश्यकता से अधिक विरेचन हो गया और बहुत बेचैनी हो गई। श्वास की गति भी 32-34 हो गई। अतः अस्पताल में फेफडों से पानी निकलवाने के लिए जाना पडा। 2 लिटर व आधा लिटर पानी फेफडों से निकाला गया। कब्ज की शिकायत दूर करने के लिए अमलतास दीपनीयगण वाली ओषधि में अमलतास की मात्रा इतनी अधिक कर दी गई है कि कटु ओषधियों की कटुता गौण हो गई है और कुछ-कुछ अमलतास का मिठास आता है।

    

रोगी ने डा. श्रीमती डोल्कर ( डी-10, कालका जी, नई दिल्ली, टे. 09312247037) से भी तिब्बती चिकित्सा की ओषधियां प्राप्त की हैं। लेकिन अर्श/बवासीर की परेशानी के कारण यह ओषधियां त्यागनी पडी।

दि. 8-5-2012 : रोगी इतना अशक्त हो गया है कि बोल भी नहीं पाता। अब वह अर्धचेतन स्थिति में चला गया है और यह अर्धचेतन स्थिति लगातार चार-पांच दिन चली। कब्ज की समस्या का कुछ हल तो अनार के रस का सेवन बन्द करने से हुआ, कुछ रात को दूध में ईसबगोल की भूसी का सेवन करने से। अर्धचेतन स्थिति से बाहर निकलने पर रोगी के श्वास की दर 23-24 पाई गई जो शुभ संकेत है। रोगी ने रोटी खाना भी आरम्भ किया गया है।

दि. 12-5-2012 : कैटस्कैन से पता लगा है कि कैंसर मस्तिष्क में फैल गया है जिसके कारण रोगी अर्धचेतन/अचेतन स्थिति में चला गया है। रेडियोथीरेपी देने का विचार है। अब ध्यान आता है कि जब-जब भी फेफडों से द्रव को निकाला गया, तब-तब मस्तिष्क की क्रियाएं प्रभावित होती चली गई। रोगी के फेफडों में द्रव की मात्रा इस बार अपेक्षाकृत कम पाई गई लगभग एक चौथाई या उससे भी बहुत कम। अल्ट्रासाउंड परीक्षण से पाया गया कि कुछ द्रव घनीभूत होकर गुठलियों में बदल गया है।

दि. 14-5-2012 : दिनांक 13-5-2012 को रोगी को बहुत दर्द रहा जिसके कारण पेनकिलर ओषधि अधिक मात्रा में दे दी गई। इसके अतिरिक्त, जब रात को उसे नींद नहीं आ रही थी, तब नींद की गोली भी दे दी गई। घंटा भर शान्त रहने के पश्चात् रोगी पुनः कराहने लगा और इस बार उसकी आंखें आधी पथरा गई हैं । अब वह किसी को पहचानता भी नहीं है और मुख भी बन्द हो गया है। पल्स दर 132 आ रही है लेकिन अन्यथा नाडी ठीक चल रही है। यह मस्तिष्क में कैंसर फैल जाने के कारण हो सकता है। डाक्टर का कहना है कि अब अधिक जीवन शेष नहीं बचा है।

 दिनांक 17-5-2012 : रोगी की मृत्यु

विश्लेषण : बाबा कमलनाथ की ओषधियों का सेवन करते हुए रोगी को दो महीने भी नहीं हुए थे कि रोगी की मृत्यु हो गई। अब समय आत्ममन्थन का है कि क्या गलतियां हुई हैं। रोगी लगातार कमजोरी बढने की शिकायत कर रहा था। अन्तिम दिनों में तो रोगी का बोलना भी कठिन हो गया था। ऐसी आशा थी कि कमजोरी एक सीमा तक बढकर फिर रोग से मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि यह पता होता कि बाबा कमलनाथ की ओषधियों से फेफडों में पानी बनेगा तो अमलतास से बनी ओषधि का सेवन पहले से ही कराया जाना चाहिए था। अन्तिम दिनों में, मृत्यु होने से पहले भी रोगी के पैरों में भयंकर दर्द था जो मूलाधार में कैंसर कोशिकाओं के जमा हो जाने के कारण था। बाबा कमलनाथ-प्रदत्त ओषधियों के सेवन से नाडी की गति में बहुत परिवर्तन हुआ। पहले नाडी पित्त-प्रधान थी। वह कुछ ही दिनों में वात-प्रधान हो गई। पहले वातनाडी की गति बहुत तीव्र थी। धीरे-धीरे वह मन्द हो गई। लेकिन अन्तिम समय तक भी उसकी गति 100-125 बनी रही। यही संभवतः मृत्यु का कारण बना। नाडी की गति जितनी अधिक होगी, इसका निहितार्थ होगा कि हृदय को रक्त भेजने के लिए अधिक कार्य करना पड रहा है और इसका कारण कैंसर की कोशिकाएं हो सकती हैं। हो सकता है कि ज्वर-निरोधी ओषधियों से नाडी की गति धीमी हो जाती।  

 

कैंसर के उपचार हेतु विभिन्न आयुर्वेदिक ओषधियों का सुझाव देने वाली वैबसाईट

 

vedastudy@yahoo.com

 


 

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Posted by puraana at 12:28 AM EDT
Updated: Wednesday, 11 July 2012 12:04 AM EDT
Alternative treatment of Cancer Ayurveda Way

कैंसर की वैकल्पिक चिकित्सा

सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान अध्याय ३८.२२ में पिप्पल्यादिगण को अग्निदीपक कहा गया है। इस गण में निम्नलिखित ओषधियां हैं पिप्पली, पिप्पलीमूल/पिपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, कालीमरिच, गजपीपल, हरेणुका, छोटी इलायची, अजमोद, इन्द्रयव, पाठा, जीरा, सरसों, महानिम्बफल/बकायन का फल, हींग, भारंगी, मूर्वा, अतीस, वचा, वायविडङ्ग व कुटकी।

पिप्पली(long pepper)

पिप्पलीमूल/पिपरामूल(root of long pepper)

चव्य(Piper chaba Hunter)

चित्रक(Plumbago zeylanica Linn.)

सोंठ(Zingiber officianale)

कालीमरिच(Piper nigrum, Linn./Black pepper

गजपीपल(Scindapsus officinalis, Schott,)

हरेणुका/संभालू का बीज(Vitex agnus-castus Linn.)

छोटी इलायचीCardamom Fruit/lesser Cardamom

अजमोद(Apium graveolens, Linn./Celery fruit

इन्द्रयव(Holarrhena antidysenterica Wall.)

पाठा(Cissampelos Pareira)

जीरा(Cuminum cyminum Linn.)

सरसों(Indian Colza/Brassica campestris var. sarson Prain)

महानिम्बफल/बकायन का फल

हींग(Ferula narthex, Boiss)

भारंगी(Cierodendron serratum, Spreng./Picrasma quassioides/Premna herbacea, Roxb./Cierodendrum siphonanthus)

मूर्वा(Marsdenia tenacissuma/Sansevieria roxburghiana/Bauhinia vahlii/Clematis gouriana Roxb./Maerua Arenaria Hook./Helicteres isora Linn.)

अतीस(Aconitum heterophyllum Wall.)

वचा(Acorus calamus Linn.)

वायविडङ्ग(Embelia ribes Burm.)

कुटकी(Picrorhiza kurroa Royle ex Benth.)

इन सबको आरग्वधादिगण की ओषधियों के साथ मिलाकर सेवन करना है। आरग्वध गण की ओषधियों में  आरग्वध/अमलतास, मदन/मैनफल, गोपघण्टा, कण्टकी, कुटज/कुडा, पाठा, पाटला, मूर्वा, इन्द्रयव, सप्तपर्ण/सतवन, निम्ब, कुरुण्टक, गुडूची/गिलोय, चित्रक, शार्ङ्ष्टा/काकजङ्घा, करञ्जद्वय(नाटा व पूतीकरञ्ज), पटोल, किराततिक्त/चिरायता व सुषवी/करेला हैं।

 

अमलतास/आरग्वध(Cassia Fistula)

मैनफल/मदन(Randia Dumetorum Lam)

गोपघण्टा

कण्टकी(Solanum Xanthocarpum?, Solanum Indicum?)

कुटज/कुडा कडवा(Holarrhena Antidysenterica)

पाठा(Cissampelos Pareira)

पाटला(Stereospermum Suaveolens/ Stereospermum Chelonides)

मूर्वा

इन्द्रयव(Holarrhena antidysenterica Wall.)

सप्तपर्ण/सतवन

निम्ब(Aza Directa Indica)

कुरुण्टक

गुडूची/गिलोय(Tinospora Cordifolia)

चित्रक(Plumbago Zeylanica/ Plumbago Rosea)

शार्ङ्ष्टा/काकजङ्घा?(Peristrophe Bicalyculata/Leea Hirta)0m

करञ्जद्वय(नाटा व पूतीकरञ्ज)(Pongamia Clabra)

पटोल/परवल(Trichosanthes Dioica)

किराततिक्त/चिरायता(Swertia Chirata)

सुषवी/करेला(Monordica Charantia)

दूसरे वर्ग की ओषधियों में से केवल अमलतास और गिलोय को लिया गया। अन्य जैसे मैनफल को इसलिए छोड दिया गया कि यह वमन ला सकता है। चिरायता को इसलिए छोड दिया गया कि जब रोगी को बुखार नहीं है तो चिरायता क्यों लेना?। केवल अमलतास और गिलोय मिलाने से ही रोगी के फेफडों में कैंसर के कारण जो पानी बन रहा था, वह लगभग 15 दिन में सूख गया और डाक्टर पानी को ढूंढते ही रह गए। लेकिन कैंसर ठीक नहीं हुआ। इसका कारण यह हो सकता है कि दूसरे वर्ग की जिन ओषधियों को दुर्भाग्य से ग्रहण नहीं किया गया, वह कैंसर को पूरी तरह ठीक कर सकती थी।

वास्तव में यह योग किसी स्थान पर फुन्सियों के निवारण(विसर्प चिकित्सा) के लिए दिया गया है। कहां दिया गया है, यह पता नहीं लग सका है। इससे अगले चरण में आरग्वध गण के बदले ८ क्षार(पलाश, शिरीष आदि) लिए जाते हैं। इससे अगले चरण में ८ मूत्र(गौ, महिषी, अजा, उष्ट्र आदि) लिए जाते हैं। जो योग फुन्सियों के लिए कहा गया है, उसी योग को कैंसर सैलों के लिए भी माना जाना चाहिए।

Alternative Treatment for Cancer through Ayurveda

A permanent cure the Ayurveda way is by a class of herbs called appetizer-increasing in Sushruta Samhita. This class of herbs contains long pepper, root of long pepper, Piper chaba Hunter, Scindapsus officinalis, Schott, Plumbago zeylanica Linn., Apium gravealens Linn, Cuminum cyminum Linn., Ferula narthex Boiss, Acorus calamus Linn., Embelia ribes Burm., Picrorhiza kurroa Royle ex Benth., Aconitum heterophyllum Wall., Velvet leaf/Cissampelos pareira Linn., Holarrhena antidysenterica Wall., Indian Colza/Brassica campestris var. sarson Prain, Bead tree fruit/Melia azedarach Linn. etc. These herbs have to be mixed with other herbs of another class, called disease killing class, the main herb of which is fruit of Pudding pipe tree/Cassia fistula Linn. When this concoction was prepared using many herbs of the first class and  only one herb of the second class, namely Pudding pipe, it was able to cure the accumulation of water in lungs. In advanced stage of cancer, when cancer cells spread to whole body, there is a secretion of fluid around all the cancer cells and this fluid goes on accumulating in the body, puts stress on liver and also leads to disappearance of hunger. Allopathic doctors remove this fluid by inserting syringe in the lungs etc., if this fluid is accumulating in lungs. This process has to be repeated periodically till the patient is unable to bear it, or develops fever, the end of the game. Other herbs of the second class were not used due to ill luck. It was presumed that Randia Dumatorum may create vomiting symptoms and therefore it is safe to avoid it. In the same way, it was presumed that why to use Swertia Chirata when the patient is not having fever. But it is expected that had all the herbs been used, this concoction could have cured the cancer completely. Almost all these herbs are cheaply available with any herb-selling shop in all small and big towns of India, though custom laws have to be circumvented while transporting. This formulation is actually meant for abscess.

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Updated: Wednesday, 6 June 2012 12:19 AM EDT
Thursday, 9 June 2011
Cow urine for urinary disease

मूत्र रोग में गोमूत्र का उपयोग

वृद्धावस्था में मूत्रत्याग के पश्चात् भी मूत्र की एक-आध बूंद बाद में टपकती है। इसके कईं कारण हो सकते हैं जैसे प्रोस्ट्रेट ग्रन्थि का बढना आदि। निम्नलिखित योग इस स्थिति में उपयोगी पाया गया-

शुण्ठी चूर्ण 20 ग्राम

नागरमोथा चूर्ण 20 ग्राम

पित्तपापडा चूर्ण 20 ग्राम

वासा पत्ते(ताजे) 250 ग्राम

गिलोय ताजी  150 ग्राम

वासा(साधारण भाषा में बांसा) के ताजे पत्ते (लगभग 250 ग्राम) लेकर उनको कूटकर मिक्सी में गोमूत्र लगभग 250 मि.लि. के साथ मिश्रित किया गया और फिर उस को छलनी में दबाकर रस अलग कर लिया गया। इस रस में और गोमूत्र लगभग 250 ग्राम मिलाकर गिलोय के छोटे-छोटे टुकडों के साथ, जिन्हें पहले कूट लिया गया था, मिश्रित किया गया और फिर मिश्रण से रस को अलग कर लिया गया। ठोस भाग में पुनः जल मिलाकर उसको मिश्रित किया गया और रस को अलग कर लिया गया। सारे रस को शुण्ठी, नागरमोथा व पित्तपापडा के चूर्ण में मिश्रित कर दिया गया और तेज धूप में सुखा लिया गया। इस चूर्ण को खाने पर जीभ पर थोडा कटान सा होता है। इस चूर्ण के सेवन से मूत्र का टपकना बन्द हुआ है। गोमूत्र जिस गौ से प्राप्त किया गया था, वह सडक में घूमने वाली गौ ही थी, कोई विशेष गौ नहीं।


Posted by puraana at 12:34 AM EDT
Sunday, 10 October 2010
Alternative treatment of AML in Indian conditions

निम्नलिखित वैबसाईट एक्यूट माइलांयड ल्यूकीमिया के वैकल्पिक उपचार के सम्बन्ध में है -

A.P.John Institute for Cancer Research

http://www.apjohncancerinstitute.org/cancer/acutemy.htm

भारतीय परिस्थितियों में इस वैबसाईट से निष्कर्ष निकालना कठिन हो सकता है । अतः आवश्यक जानकारी इस ब्लाग में प्रस्तुत है -
1.
उपरोक्त वैबसाईट का कहना है कि हमारे भोजन में जो फास्फोरस तत्त्व होता है, वह ल्यूकीमिया सैलों के विकास के लिए भोजन बनता है । अतः यह आवश्यक है कि भोजन से फास्फोरस तत्त्व निकाल दिया जाए । फास्फोरस की मात्रा सबसे अधिक दुग्ध में होती है । गेहूं आदि अन्नों में भी फास्फोरस होता है । लेकिन दुग्ध के फास्फोरस और अन्न के फास्फोरस में अन्तर यह है कि  दुग्ध का फास्फोरस बायोएक्टिव होता है, अर्थात् दुग्ध का सेवन करने पर फास्फोरस का शरीर में तुरन्त अवशोषण होता है, जबकि गेहूं आदि अन्नों का फास्फोरस बायोएक्टिव नहीं होता । अतः भोजन से दुग्ध को निकालना आवश्यक है । दुग्ध के बदले बादाम का दुग्ध लिया जा सकता है । इसके लिए बादाम को भिगोकर उसका ऊपर का लाल छिलका उतार कर सफेद भाग को बीज निकले मुनक्का और कुछ एक सफेद व काली मिर्च के साथ ग्राइन्डर में पीस लिया जाता है । फिर उसमें पानी मिलाकर उबाल लिया जाता है । यह दूध का अच्छा विकल्प है ।
2.
उपरोक्त वैबसाईट का कहना है कि गेहूं के प्रोटीन जैसे लाइसीन आदि कैंसर सैलों के पनपने के लिए भोजन बनते हैं । अतः यह आवश्यक है कि गेहूं के बदले मोटे अनाजों जैसे ज्वार, कंगनी, मक्का, कुट्टू आदि का प्रयोग किया जाए । इसके अतिरिक्त पालिश किए हुए सफेद चावलों का उपयोग भी किया जा सकता है ( चावल के लाल भाग में फास्फोरस होता है ) लेकिन इन अन्नों के आटे से रोटी नहीं बनती । अतः उसमें कुछ मात्रा में गेहूं का आटा मिलाया जा सकता है । (टिप्पणी - व्यवहार में यह देखा जा रहा है कि गेहूं के प्रयोग से कोई विशेष अन्तर नहीं पडता)।
3.
उपरोक्त वैबसाईट का कहना है कि गेहूं को फरमेंट कर उसकी रोटी बनाने पर उसके तत्त्व बायोएक्टिव बन जाते हैं । अतः किण्वित या फरमेंट किए हुए गेहूं के उत्पाद त्याज्य हैं 
4.
केवल बादाम का दुग्ध पर्याप्त नहीं है । अन्य पदार्थों से भी दुग्ध की उपलब्धि होनी चाहिए । लेकिन बादाम के दुग्ध का कोई विकल्प नहीं है । हमारे समाज में खरबूजा, तरबूज, खीरा व कद्दू के बीजों को मिलाकर ठंडाई बनाने की परम्परा है । इन बीजों को पीस कर व उबाल कर इनका दुग्ध बनाया जा सकता है। इन बीजों के चूरे को आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाई जा सकती है । अथवा दाल इत्यादि के साथ मिलाया जा सकता है। इस प्रकार दुग्ध की आवश्यकता बहुत हद तक पूरी की जा सकती है ।
5.
ए.एम.एल. या ल्यूकीमिया धीरे - धीरे सारे शरीर में फैलने लगता है । हमारी स्थिति में ल्यूकीमिया के लक्षण फुन्सी के रूप में प्रकट हुए, जैसा कि सामान्यतः कैंसरों में गर्दन पर छोटी फुंसियां विकसित हो जाती हैं । यह कैंसर विकसित होने की पहचान है । फिर यह फुन्सियां मुंह पर बनती हैं, मुख से कैंसर मस्तिष्क में जाता है और मस्तिष्क से स्पाईनल कोर्ड में । यहां पहुंचने पर भयंकर दर्द आरम्भ हो जाता है और डाक्टर लोग उसका उपचार मात्र मांर्फीन आदि दर्द निवारक दवाओं द्वारा ही कर पाने में समर्थ होते हैं । अन्ततः रोगी की मृत्यु हो जाती है । हमारी स्थिति में यह पाया गया कि केवल प्रातःकाल का दुग्ध बंद करने से ही, अर्थात् दुग्ध की मात्रा आधी करने से ही मुख पर फुन्सियों का निकलना बंद हो गया । यह सारी फुन्सियां हिप्स पर निकलने लगी । जब मुख पर फुन्सी निकलनी बंद हो गई तो धीरे - धीरे स्पाईनल कोर्ड में गया कैंसर भी कम हो गया और दर्द बंद हो गया ।
6.
ऊपर जिस वैबसाईट का उल्लेख है, उसमें दुग्ध व गेहूं के अतिरिक्त और बहुत से प्रतिबन्ध दे रखे हैं जिनका रोगी को पालन करना है । उदाहरण के लिए, गन्ने की शर्करा कम से कम लेनी है, फलों की शर्करा ली जा सकती है । वैबसाईट में नींबू का उल्लेख है जो कैंसर के सैलों को समाप्त करता है । लेकिन साथ ही साथ यह भी उल्लेख है कि जब कैमोथीरेपी चल रही हो, उन दिनों नींबू नहीं लेना है । कैंसर सैल कैमोथीरेपी द्वारा नष्ट होने चाहिएं, न कि नींबू द्वारा ।

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विपिन कुमार
19-10-2010
रोग का इतिहास
रोगी की आयु 70 वर्ष है। रोगी को कम से कम चार - पांच वर्षों से खुजली की शिकायत थी । जब जुकाम होकर कफ निकल जाता था तो खुजली कम हो जाती थी । जुकाम ठीक होने के पश्चात् फिर बढ जाती थी । आरम्भ में होम्योपैथिक ओषधि लेने से आराम होता था, लेकिन बाद के वर्षों में नहीं । आयुर्वेद की सारक ओषधियां भी दी गई, लेकिन आराम नहीं हुआ । नाडी परीक्षा में कफ और पित्त की नाडियों की सक्रियता नहीं के बराबर थी । कैमोथीरेपी के रूप में पहले जब तक ए.एम.एल. नहीं बना था, केवल एम.डी.एस. ही थातब तक मुख द्वारा ली जाने वाली ओषधि लीनोमी का उपयोग करने का प्रयत्न किया गया । लेकिन साईड इफेक्टों के कारण इस ओषधि को त्यागना पडा । फिर एक गोमूत्र से बनी ओषधि का प्रयोग किया गया । इस बीच एम.डी.एस. तीन महीने के अन्दर ही ए.एम.एल. में बदल गया और तब कैमोथीरेपी से उत्पन्न होने वाले साईड इफेक्टों से बचने के लिए डैसीटाबीन (डेकोजन) द्वारा कीमोथीरेपी के तीन चक्र पूरे किए गए । एक चक्र का व्यय लगभग 4 लाख रुपये आता है । रोगी की अस्थि मज्जा का 50 प्रतिशत भाग apoptosis से ग्रस्त है। 
दुग्ध का सेवन बन्द करने से उत्पन्न परिणाम
दुग्ध लगभग पूरी तरह बन्द करने के 15 दिन पश्चात् रोगी में हीमोग्लोबीन की मात्रा 5.5 तथा प्लेटलैट की मात्रा 22000 पाई गई । 15 दिन पूर्व, जब दुग्ध केवल आधा बन्द किया गया था, यह मात्राएं क्रमशः 6.5 तथा 26000 थी । इन मात्राओं में कमी होने के कारणों का पता लगाना आवश्यक है । हो सकता है कि दर्दनिवारक दवा अल्ट्रासेट के साथ पेंटोसिड लेने से यह प्रभाव पडता हो । रोगी को एक यूनिट ब्लड दिया गया। इसके लगभग एक महीने पश्चात् हीमोग्लोबीन की मात्रा 5.2 तथा प्लेटलैट की मात्रा 34000 पाई गई। लेकिन व्हाईट सैलों की मात्रा 24000 पाई गई है जो संकेत करता है कि ल्यूकीमिया  के कारण  कैंसर सैल अधिक मात्रा में बन रहे हैं। ए.एम.एल. की स्थिति में हीमोग्लोबीन तथा प्लेटलैट की मात्राओं में तेजी से ह्रास होता है। इसका क्या कारण हो सकता है कि ह्रास इतनी तेजी से नहीं है। डाक्टरों का अनुमान यह है कि डेसीटाबीन कैमोथीरेपी का प्रभाव देर से भी हो सकता है जिसके कारण ह्रास नहीं हुआ है।
रोगी को कहा गया है कि वह बादाम के दुग्ध का सेवन करने के साथ - साथ दुग्ध बनाने हेतु तैयार की गई बादाम पिष्टी को भी चूसे । जो भी भोजन चूसने के द्वारा ग्रहण किया जाएगा, उससे कैंसर सैल नहीं बनेंगे ।
यदि गेहूं आदि का चूर्ण लेने से भूख घटती है तो यह अच्छा लक्षण होगा ।
प्लीहा पहले या कैंसर
रोगी की प्लीहा(spleen) या तिल्ली इतनी बढी हुई है कि वह पेट में रिब केज से निकली हुई स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और उसका बाहर निकला आकार लगभग 4-5 इंच होगा । लेकिन यकृत अपनी सामान्य स्थिति में प्रतीत होता है । डाक्टरों से कहा गया कि प्लीहा की चिकित्सा पहले की जानी चाहिए तो उनका कहना है कि यदि कैंसर ठीक हो गया तो प्लीहा अपने आप ठीक हो जाएगी । अब कौण्डली, दिल्ली एक होम्योपैथी के  ए.एम.एल. विशेषज्ञ(डा. अशोक अग्रवाल, 11, पाकेट 5, एम.आई.जी. फ्लैट्स, उन्नति अपार्टमेण्ट, मयूर विहार फेज 3, दिल्ली - 110096, फोन 22625535) ने प्लीहा को सुधारने की ओषधि पहले दी है । इस विशेषज्ञ का कहना है कि ए.एम.एल. तो वह ठीक नहीं कर सकता, लेकिन प्लीहा ठीक कर सकता है और प्लीहा का शोथ कम हो जाने पर वह हीमोग्लोबीन बनाने लगेगी।  इस विशेषज्ञ ने उडद की दाल, राजमा आदि के भोजन का निषेध किया है । यह ध्यान रखने योग्य है कि जिस भोज्य वस्तु को पकाने के लिए जितने अधिक ताप की आवश्यकता पडेगी, वह उतना ही अधिक कैंसर सैलों का निर्माण करेगा । मूंग की दाल को गलने के लिए बहुत कम तापमान की आवश्यकता पडती है । अतः दालों में वह मनुष्य के सबसे निकट है ।
24-11-2010
गाय - भैंस के दुग्ध को पीने योग्य बनाने का प्रयत्न
आयुर्वेद में यह ज्ञात है कि गाय व भैंस का दुग्ध गुरु होता है जबकि बकरी का दुग्ध लघु । बकरी का दुग्ध ए.एम.एल. रोगी के लिए उपयुक्त है या नहीं, इसका परीक्षण नहीं किया जा सका है, अंशतः बकरी के दुग्ध की अनुपलब्धता के कारण । एक बार दुग्ध का त्याग कर देने के पश्चात् किसी भी रोगी के लिए यह तो संभव नहीं है कि वह कभी दुग्ध का सेवन करे ही नहीं । और जब वह सेवन करता है तो उससे हानि होती है, फुन्सी निकलती हैं । ऐसी स्थिति में गाय - भैंस के दुग्ध को निरापद बनाने की किसी विधि को ढूंढने का प्रयत्न किया गया । भावप्रकाश में अजीर्णरोगाध्याय में दिया है कि दुग्ध के अजीर्ण पर अजवायन का सेवन किया जाए । खोए के अजीर्ण पर बायबिडंग व त्रिकटु को अन्न या चावल के माण्ड के साथ सेवन का निर्देश है । यह उपयुक्त होगा कि दोनों ही निर्देशों का पालन करके देखा जाए । इसके अतिरिक्त, चरक संहिता चिकित्सा खण्ड में कईं स्थानों पर दुग्ध में ओषधियां मिलाकर रोग विशेष हेतु पेय बनाए गए हैं लेकिन इनमें प्रयुक्त ओषधियां तीखी प्रतीत होती हैं, जैसे निशोथ, छोटी कटेरी, बडी कटेरी आदि का योग । धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक में बायबिडंग के संदर्भ में कहा गया है कि बायबिडंग के 10-20 दानों को दूध में उबाल कर उस दूध का उपयोग किया जा सकता है ।
Pros and cons of drinking milk
रोग में अम्लीयता का योगदान
बहुत सी वैबसाईटों में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि अम्लीयता या एसीडिटी से कैंसर रोग में वृद्धि होती है । अतः जहां तक हो सके, अम्लीयता को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए । एलोपैथी में अम्लीयता कम करने  हेतु डाईजीन का प्रयोग किया जाता है तथा इससे भी तेज ओषधि के रूप में पैंटोसिड नामक ओषधि का प्रयोग किया जाता है ।लेकिन यह पता नहीं है कि इन ओषधियों के सेवन से जीवन शक्ति पर कितना प्रभाव पडता है । दूसरे शब्दों में, यह हमारे जीवन को वढाती हैं या घटाती हैं । आयुर्वेद में आजकल कईं अम्ल निरोधी ओषधियां बाजार में उपलब्ध हैं । इनमें से डाबर की एण्टासिड ओषधि का प्रयोग किया गया । इस एण्टासिड के घटक त्रिवृत् या निशोथ, भृङ्गराज या भांगरा, गुडूची या गिलोय और मधुयष्टि या मुलेठी हैं । बाजार में मिलने वाले अन्य योगों में से एक प्लान्टासिड है । एक अन्य ओषधि निर्माता ने सूचना दे रखी थी कि गेरु, चन्दन, नागरमोथा, सोंठ तथा  मधुयष्टि आयुर्वेद के पांच एण्टासिड हैं ।
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विपिन कुमार
1-12-2010
रोगी के मुख पर जो फुन्सियां निकलती हैं, अब वह इस प्रकार गुच्छों में निकलने लगी हैं जैसे चींटियों के काटने से धापड पड जाते हैं । ऐसा अनुमान है कि इस प्रकार के धापड पित्त प्रकृति के सूचक हैं और इनका कारण रोगी द्वारा उपयोग किया जाने वाला त्रिकटु हो सकता है । अतः त्रिकटु की मात्रा सीमित कर देना उपयोगी होगा।
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विपिन कुमार
रोगी के पैरों में ट्यूमर या गांठें अभी तक विद्यमान थी। इसके कारण का अनुमान यह लगाया गया कि रोगी के भोजन में सब्जियों को पकाने तथा पकौडी तलने में सरसों के तेल का उपयोग किया जाता है। सरसों के तेल को अपने भोजन से निकाल देने पर पैरों के ट्यूमर समाप्तप्राय हो गए हैं।यह भी संभव है कि होम्योपैथिक ओषधि के कारण ट्यूमर समाप्त हुए हों।सरसों के तेल के बदले कैनोला रेपसीड आंयल का उपयोग किया जा सकता है अथवा कैनोला तेल में तेजी लाने के लिए उसमें थोडा सरसों का तेल मिलाया जा सकता है। सरसों के तेल में तेजी एरुसिक अम्ल(erucic acid) के कारण होती है जो बहुत हानिकारक है। कैनोला रेपसीड आंयल भी एक प्रकार का सरसों का तेल ही है जिसको निकालने में हाईब्रिड रेपसीड का उपयोग किया जाता है। इसमें एरुसिक अम्ल की मात्रा बहुत कम होती है।
14-1-2011
01-01-2011
5-12-2010
रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा 5.2 ग्रा प्रति मि.लि. होने पर रोगी को श्वास लेने में थोडी कठिनाई हो रही थी। रोगी ने डा. कल्याण बनर्जी, नई दिल्ली के परामर्श पर Hydrastis Canadensis  तथा  Lycopus Virginicus टिंक्चरों का सेवन आरम्भ किया जिससे शरीर में बेचैनी बहुत बढ गई, मुख के छालों में बहुत वृद्धि हो गई, भोजन निगलना भी कठिन हो गया, प्लीहा में और अधिक वृद्धि हो गई। अतः इनका सेवन बन्द कर दिया गया।यह ठीक पता नहीं है कि प्लीहा के आकार में वृद्धि क्यों हुई, इस कारण से फटे हुए दुग्ध का पानी भी बन्द किया जा रहा है । यह उल्लेखनीय है कि प्लीहा रिब केज से नीचे निकलकर केले के आकार में बढी हुई है। इसके अतिरिक्त, उसी स्थान पर कछुए की पीठ जैसा एक कडा स्थल बन जाता है । पहली बार यह स्थल पेट की ओर था, इस बार पीठ की ओर है। चूंकि रोगी दधि का सेवन करता है, अतः परामर्श दिया गया है कि त्रिफला इत्यादि के अतिरिक्त फिटकरी के पानी की एक बूंद दधि में डाल लिया करे। ऐसा अनुमान है कि फिटकरी में विद्यमान एल्युमिनम सल्फेट दुग्ध में विद्यमान फास्फोरस से मिलकर एल्युमिनम फास्फेट बना लेगा और दधि निरापद हो जाएगी। भोजन से फास्फोरस तत्त्व को हटाने की ओषधि यह है कि रोगी को भोजन के बाद एल्युमिनम हाईड्राक्साईड युक्त ओषधि दी जाती है जो सारे फास्फोरस का अवशोषण कर लेती है।
14-1-2011
अब रोगी को ज्वर हो गया है। एण्टीबायोटिक ओषधि से भी ज्वर कम नहीं हो रहा है। ज्वर की आशा तो पहले से ही थी। यदि एलोपैथिक ओषधियों से ज्वर कम नहीं होता है तो रोगी को इन्दौर के स्वर्णिम नेचरसाईंस द्वारा बिना सांद्र किए गए गोमूत्र में बनाई गई कैंसर रोधक ओषधि तथा पंचभद्र(चिरायता, नागरमोथा, पित्तपापडा, गिलोय व सोंठ) का क्वाथ लेने को कहा गया है। रोगी के ठीक होने की संभावनाएं हैं भी, नहीं भी।आशा करनी चाहिए कि उपरोक्त ओषधियां ज्वर को समाप्त कर देंगी।
17-1-2011
Monocef
नामक ओषधि के इन्ट्रावीनस इंजेक्शन(कुल 10) लेने से रोगी का ज्वर समाप्त हो गया है।लेकिन प्लेटलैट केवल 5000 रह गए हैं। हीमोग्लोबीन 3.1 है तथा wbc 16000 हैं। अतः शीघ्र ही प्लेटलैट ट्रान्सफ्यूजन की आवश्यकता पडेगी।
20-1-2011
22-1-2011

प्लेटलैट तथा हीमोग्लोबीन ट्रान्सफ्यूजन के पश्चात् प्लेटलैट संख्या 5000 से 15000 गई लेकिन यह शीघ्र ही पुनः 5000 आ जाती है। डाक्टरों का कहना है कि वह कुछ नहीं कर सकते।
26-1-2011
रोगी में कैल्शियम की मात्रा बहुत कम पाई गई है और अब कैल्शियम की पूर्ति के लिए 6 गोली शैल्कैल की प्रतिदिन दी जा रही हैं।
27-1-2011
रोगी के मुख में शुष्कता है। इसका एक कारण डाक्टर लोग डीहाईड्रेशन बताते हैं। लेकिन यह शुष्कता इंट्रावीनस ग्लूकोज देने से भी समाप्त नहीं हुई है। इसका अर्थ है कि शुष्कता का कारण कुछ और ही है। रोगी को बता दिया गया है कि यदि मुख की शुष्कता दूर हो जाए तो सारा रोग ही दूर हो जाएगा। रोगी को अम्लता या एसिडिटी की शिकायत है जिसके लिए पेंटोसिड की गोली का उपयोग सबसे सरल उपाय है। लेकिन यह लाभदायक नहीं है। प्रातःकाल पेंटोसिड की गोली के सेवन से बचने के लिए ज्वरहारक आयुर्वेदिक ओषधियों जैसे पंचभद्र आदि का सेवन करने के लिए कहा गया है। पंचभद्र तो एक ब्रह्मास्त्र की भांति है जिसका प्रयोग प्रतिदिन नहीं किया जा सकता। अतः अन्य ओषधियों के योग जैसे सारिवा या अनन्तमूल, कुटकी, नेत्रबाला का योग तथा खस, निम्बछाल, नेत्रबाला, खस, धनिया आदि का प्रयोग किया जाना अपेक्षित है। सारिवा के योग में रोगी को बहुत प्यास लगी है।इस योग के संदर्भ में भावप्रकाश में लिखा है कि इस योग को उष्ण जल के साथ ले। यह इस योग के विषय में अन्तर्दृष्टि देता है।
28-1-2011
पंचभद्र क्वाथ का सेवन आरम्भ करने पर रोगी को मृदु विरेचन हुआ है। लेकिन 5-6 बार के सेवन के पश्चात् अब नहीं होता है। लगता है कि मृदु विरेचन से दूषित पित्त बाहर निकल गया है और अब स्वास्थ्य में सुधार होना चाहिए। अस्थि मज्जा में जो apoptosis प्रक्रिया चल रही थी, उसमें भी ह्रास होना चाहिए। पंचभद्र क्वाथ के अतिरिक्त दूसरा योग नागरमोथा, पित्तपापडा, नेत्रबाला, धनिया, खस व लालचन्दन का है जिससे तृषा शान्त होती है।
30-1-2011
रोगी के मुख पर बहुत से छोटे - बडे ट्यूमर या पिडिकाएं निकल आए हैं । इसका कारण आयुर्वेद के दूसरे योग में धनिया हो सकता है। धनिये में फास्फोरस होता है।
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यूनिट हीमोग्लोबीन ट्रान्सफ्यूजन के पश्चात् दिनांक 25-1-2011 को रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा 8.1 थी। अब रक्त की जांच कराने पर हीमोग्लोबीन की मात्रा 8.7, कुल श्वेत कण(TLC) 9200 तथा प्लेटलैट संख्या 47000 पाई गई है।
31-1-2011
रोगी के पैरों में सूजन है जिसका कारण गुर्दों (kidney) में कोई समस्या हो सकती है। सूजन का एक कारण यह भी है कि पंचभद्र क्वाथ कडुआ होता है और कडवी वस्तु गुर्दों को हानि पहुंचाती है। अब पंचभद्र क्वाथ के बदले पंचभद्र चूर्ण बना लिया गया है जिसमें नागरमोथाचिरायता, सोंठ व पित्तपापडा को पीस कर महीन कर लिया गया है जबकि ताजी गिलोय को काटकर उसके छोटे टुकडे करके उसे मिक्सी में पानी के साथ मिक्स कर लिया गया। इसके पश्चात् उसे उबाल लिया गया। इसके पश्चात् मोटी छलनी में दबाकर उसका गूदा अलग कर लिया गया, रेशा अलग। गूदे को अन्य चार ओषधियों के चूर्ण में मिलाकर  सुखा लिया गया।
1-2-2011
फुन्सियों के लिए  सुश्रुत संहिता में विसर्प चिकित्सा हेतु दिए गए योग का उपयोग आरम्भ किया जा रहा है। पिप्पल्यादि गण (पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, शृङ्बेर(सोंठ), मरिच, हस्तिपिप्पली, हरेणुका, एला, अजमोदा, इन्द्रयव, पाठा, जीरा, सर्षप, महानिम्ब फल, हिंगु, भार्ङ्गी,मधुरसा, अतिविषा, वचा, विडंग, कटुरोहिणी) के चूर्ण में आरग्वधादि गण(आरग्वध, मदन, गोपघण्टा, कण्टकी, कुटज, पाठा, पाटला, मूर्वा, इन्द्रयव, सप्तपर्ण, निम्ब, कुरुण्टक, दासी, गुडूची, चित्रक, शार्ङ्ग, करञ्जद्वय, पटोल, किराततिक्त, सुषवि) की ओषधियों का क्वाथ मिला दिया गया और उसे सुखा लिया गया (दोनों गणों में से केवल वही ओषधियां ली गई जो उपलब्ध थी)। दूसरे, पिप्पल्यादि गण के चूर्ण में मुष्कादि गण( शीशम, पलाश आदि) के क्षार को मिलाकर उसे सुखा लिया गया। चूर्ण का सेवन करने के पश्चात् घृत का सेवन किया गया।
आरग्वधादौ विपचेद् दीपनीययुतं घृतम्।
क्षारवर्गे पचेच्चान्यत् पचेन्मूत्रगणे अपरम्।
घ्नन्ति गुल्मं कफोद्भूतं घृतान्येतान्यसंशयम्।।(सुश्रुत संहिता, उत्तरतन्त्रं 42.3)
एक दो बार लेने पर ही रोगी का पेट बहुत अस्त - व्यस्त हो गया है। वैद्य श्री बृहस्पति देव त्रिगुणा का अनुमान है कि ग्रन्थियां (गांठें, फुन्सियां) शीत पित्त से सम्बन्धित हैं।
4-2-2011

प्रायः ऐसा होता है कि सायंकाल रोगी को अम्लपित्त का प्रकोप होता है। ऐलोपैथी में इसका एकमात्र विकल्प डाइजीन या पेंटोसिड है। इसके लिए भाव प्रकाश के अम्लपित्ताधिकार में दिए गए योगों -का आरम्भ किया जा रहा है। सफेद कोंहडे(कूश्माण्ड, Benincosa Cerifera, पेठा) के रस को बादाम आदि के दुग्ध के साथ उबाला गया और उसमें घृत, आमला आदि का प्रक्षेप किया गया। इस योग का दोष यह है कि इसे संरक्षित नहीं किया जा सकता। दूसरा योग है जूसर यन्त्र  में पेठे का रस निकाल कर अलग कर लिया गया तथा ठोस भाग को नारियल का चूर्ण बनाकर उसमें मिला दिया गया , फिर घी में हल्का भूना, फिर बादाम , चार मगज, काली मिर्च, मुनक्का के दुग्ध के साथ उबाला, फिर आमलक, छोटी इलायची , दालचीनी आदि ओषधियों का प्रक्षेप किया गया।
तीसरा योग शतावरी है। बाजार में जो शतावरी मिलती है, उसे खाकर देख लेना चाहिए कि वह पकी हुई, मीठी है या नहीं । दिल्ली में खारी बावली से शतावरी 1000 रु प्रति किलो मिली है। इस शतावरी का चूर्ण बनाकर बादाम के दुग्ध में डालकर उसे उबाल लिया गया।अम्लपित्तहर शतावरी घृत के योग में जो ओषधियां बताई गई हैं, वह साधारण रूप से अनुपलब्ध होने के कारण यह उचित होगा कि शतावरी युक्त बादाम के दुग्ध का सेवन च्यवनप्राश के साथ किया जाए क्योंकि च्यवनप्राश में वह ओषधियां होती हैं ।
बाजार में डाइजीन के स्थान पर अविपत्तिकर चूर्ण, एण्टासिड आदि मिलते हैं । इन योगों का मुख्य घटक सफेद निशोथ है जो किंचित् रेचक है और दोष का निस्सरण कर देती है।अविपत्तिकर आदि चूर्ण को दोपहर भोजन के पूर्व दिया जा सकता है।
रोगी को ज्वरहारक पंचभद्र चूर्ण देने पर भी उसका ज्वर 98 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे नहीं गया(रोगी का सामान्य तापमान कमजोरी के कारण 97 डिग्री है)। इसका अर्थ है कि खराबी कहीं और है। यह अम्लपित्त के कारण हो सकती है।
अम्लपित्त हारक एक योग वासा, निम्ब, पित्तपापडा, चिरायता, गुडूची, भृङ्गराज, त्रिफला आदि से बनाया गया है। उपरोक्त बहुत से योग भैषज्य रत्नावली से, कुछ सुश्रुत संहिता से और कुछ भावप्रकाश से हैं)।इस योग के सेवन से पैरों की सूजन बहुत कम हो गई है।
7-2-2011
प्लेटलैट 33000, हीमोग्लोबीन 7.3, TLC(कुल श्वेत कण) 16000, ब्लास्ट सेल 16000। ऐलोपैथिक डाक्टर द्वारा पैरों की सूजन दूर करने के लिए ग्लूकोज का इंट्रावीनस ट्रान्सफ्यूजन किया जा रहा है । यह एक व्यर्थ की प्रक्रिया है क्योंकि इस प्रकार से रक्त की धुलाई वहां लाभदायक हो सकती है जहां रोगी दुग्ध आदि का सेवन कर रहा हो और उसके कारण यूरिया बन रहा हो।
8-2-2011
रोगी का तापमान 98 से लेकर 98.5 तक चल रहा है जो रोगी की कमजोर अवस्था को देखते हुए ज्वर को सूचित करता है। पंचभद्र देने पर भी तापमान कम नहीं हो रहा है और रोगी बहुत कमजोरी का अनुभव कर रहा है। इसका अर्थ होगा कि यह जीर्ण ज्वर की अवस्था है और उपचार जीर्ण ज्वर हेतु होना चाहिए। जीर्ण ज्वर का उपचार तभी हो सकता है जब आम या कच्चे दोष समाप्त हो गए हों।
14-2-2011

पंचभद्र के अतिरिक्त जो कोई भी ओषधि का योग रोगी को दिया जाता है, उसका परिणाम उडेल या उल्टी या कै या छर्दि जैसी स्थिति में होता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब रोगी प्रातःकाल शौच साफ रखने के लिए जलपान करता है।यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जिन दोषों का ओषधि शमन करती है, उनके अवशेष उल्टी के रूप में प्रकट हो रहे हैं। रोगी इस स्थिति से परेशान हो गया है और उपचार ही छोडना चाहता है। इसका उपाय यह किया गया है कि जब तक उल्टी या उडेल जैसी स्थिति का शमन न हो जाए, तब तब नई ओषधि न दी जाए, चाहे इसमें चार - पांच दिन का समय ही क्यों न लग जाए। उल्टी रोकने की आयुर्वैदिक ओषधियों के रूप में भैषज्यरत्नावली के योग षडङ्गपानीय(नागरमोथा, पित्तपापडा, सोंठ, नेत्रबाला, चन्दन और खस) का परीक्षण किया जाएगा। इसके अतिरिक्त दशमूल क्वाथ का परीक्षण किया जाएगा। अधिक पित्त की स्थिति में शिंशपा क्षार और अश्वत्थ क्षार का परीक्षण किया जाएगा। गोमूत्र तथा गोबर के रस का भी परीक्षण किया जाएगा। पित्त विकार को अधोगामी बनाने के लिए हरीतकी, त्रिकटु, धनिया, चन्दन के योग का परीक्षण किया जाएगा।भ्रष्ट मूंग तथा लाजा चूर्ण के मधु में मिश्रण का उपयोग भोजन के रूप में किए जाने का विचार है।
16-2-2011
रक्त परीक्षण-
हीमोग्लोबीन 5.5 ग्राम प्रति डे.लि.
प्लेटलैट 10000 - 58000(अनिश्चित मापन)
श्वेत रक्त कण 20000
pH 7.39
pCO2 29 mmHg
pO2 38  
Na+ 121 mmol/L
K+  3.0 mmol/L
Ca++ 0.26 mmol/L
Glu. 98 mg/dL
lac. 1.2 mmol/L
Hct 28 %
Derived Parameters
Ca++(7.4)  0.26mmol./L
HCO3- 17.6 mmol/L
HCO3std. 19.4
TCO2 18.5
BEect -7.4
BE(B) -6.5
SO2c  71%
THbc 8.7g/dL
कम कैल्शियम स्तर का कारण रक्त की अम्लीयता हो सकता है। लेकिन परीक्षण में रक्त में अम्लीयता नहीं आई है।
रोगी की अम्लीयता दूर करने के लिए गोमूत्र और शिंशपा क्षार का मिश्रण उपयुक्त समझा गया है।
डाक्टरों द्वारा संदेह किया जा रहा है कि आयुर्वेदिक ओषधियां किडनी फेल्योर तो नहीं करती, क्योंकि रोगी का क्रिएटिनीन 3.9 से 4.6 हो गया है जबकि यूरिया स्तर 90 के आसपास है। इसका उत्तर यही है कि जो भी कडवे स्वाद वाली आयुर्वेदिक ओषधि रोगी को दी जा रही है, वह ठोस रूप में दी जा रही है जिसे रोगी मुख में रखकर चूसता है। इससे ओषधि का हानिकारक गुण बहुत सीमा तक समाप्त हो जाता है।रोगी तथा उसके परिचारकों ने आयुर्वेदिक ओषधियों का त्याग करके अब पेण्टोसिड, मोनोसैट(उल्टी को रोकने के लिए) आदि ओषधियों का सेवन आरम्भ कर दिया है।
जब भी नए सिरे से आयुर्वेदिक उपचार आरम्भ होता है तो यह ध्यान रखना होगा कि सबसे पहले रोगी के उल्टी व जलन लक्षणों का उपचार किया जाए जिससे हीमोग्लोबीन को कम से कम हानि पहुंचे।
18-2-2011
अब रोगी कैल्शियम की कमी को पूरा करने के लिए Calcitriol नामक ओषधि का सेवन कर रहा है जिससे विटामिन डी का अवशोषण अधिक से अधिक हो सके और उसके कारण कैल्शियम का अवशोषण हो सके।  दूसरी ओषधि जो रोगी ले रहा है, वह Febuget 80 है।
24-2-2011
फेफडों में संक्रमण(pneumonia) के कारण रोगी की मृत्यु हो गई है। पूरे प्रकरण में उसे कोई आयुर्वेदिक ओषधि नहीं दी जा सकी।
28-2-2011

 


Posted by puraana at 12:01 AM EDT
Updated: Thursday, 19 April 2012 12:40 AM EDT

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