PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(Suvaha - Hlaadini)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Suvaha - Soorpaakshi  (Susheela, Sushumnaa, Sushena, Suukta / hymn, Suuchi / needle, Suutra / sutra / thread etc.)

Soorpaaraka - Srishti   (Soorya / sun, Srishti / manifestation etc. )

Setu - Somasharmaa ( Setu / bridge, Soma, Somadutta, Somasharmaa etc.)

Somashoora - Stutaswaami   ( Saudaasa, Saubhari, Saubhaagya, Sauveera, Stana, Stambha / pillar etc.)

Stuti - Stuti  ( Stuti / prayer )

Steya - Stotra ( Stotra / prayer )

Stoma - Snaana (  Stree / lady, Sthaanu, Snaana / bath etc. )

Snaayu - Swapna ( Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc.)

Swabhaava - Swah (  Swara, Swarga, Swaahaa, Sweda / sweat etc.)

Hamsa - Hayagreeva ( Hamsa / Hansa / swan, Hanumaana, Haya / horse, Hayagreeva etc.)

Hayanti - Harisimha ( Hara, Hari, Harishchandra etc.)

Harisoma - Haasa ( Haryashva, Harsha,  Hala / plough, Havirdhaana, Hasta / hand, Hastinaapura / Hastinapur, Hasti / elephant, Haataka, Haareeta, Haasa etc. )

Haahaa - Hubaka (Himsaa / Hinsaa / violence, Himaalaya / Himalaya, Hiranya, Hiranyakashipu, Hiranyagarbha, Hiranyaaksha, Hunkaara etc. )

Humba - Hotaa (Hoohoo, Hridaya / heart, Hrisheekesha, Heti, Hema, Heramba, Haihai, Hotaa etc.)

Hotra - Hlaadini (Homa, Holi, Hrida, Hree etc.)

 

 

According to late swami Shri Gangeshwaraananda, the fire of Vedas is Hanumana of puraanas. Hanumaana represents fire element. He burns Lankaa. He is the son of three fathers. We have three wisdoms within our body. The gross wisdom works through our senses. The finer wisdom is involved in thinking process and the wisdom of causal body is an integral one, above the multiplicity. The soul in this gross body which is working through sensory perception, is Hanumaana who is son of air. The soul which is free from craving, anger, despise etc., is Hanumaana who is son of Kesari. Kesari word is used for one who has hair, like the progeny of lion, the middle portion of a flower, the sun rays etc. That form of soul which is associated with peace of super-mental level, where all despise, craving, anger disappear, that Hanumaana is the son of lord Shiva. In other words, one soul has three aspects – action represented by Indra, knowledge represented by fire/agni and emotion represented by Soma. The soul is getting these three powers from God.

                                                                                                                                                                                                                                - Fatah Singh

 

हनुमान

टिप्पणी : राम के राज्योभिषेक के समय हनुमान द्वारा दीपक दिखाने का उल्लेख आता है । यह अग्नि तत्त्व के प्रतीक हैं । इसी कारण यह लंका को जला देते हैं । स्वर्गीय स्वामी गङ्गेश्वरानन्द के शब्दों में वेदों का अग्नि तो हनुमान ही है ।

                           हनुमान तीन पिताओं के पुत्र हैं । हमारे शरीर में तीन बुद्धियां हैं । स्थूल बुद्धि इन्द्रियों के माध्यम से काम करती है । सूक्ष्म शरीर की बुद्धि सोचती - विचारती है और कारण शरीर की बुद्धि अनेकता से परे, एकता ग्रहण किए हुए है । इस स्थूल शरीर में जो आत्मा विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से काम कर रहा है, वह है पवन - पुत्र हनुमान । जो जीवात्मा काम, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि से रहित है, आत्मा का मन युक्त वह रूप केसरि - पुत्र हनुमान है । केसरि अर्थात् जिसके केसर, बाल हों, जैसे शेर की संतान केसरि, पुष्पों के बीच के भाग केसर, सूर्य की किरणें केसरि । आत्मा का जो सूक्ष्म रूप विज्ञानमय कोश में शं - शान्ति से युक्त है, जहां सारे द्वेष, काम, क्रोध आदि मिट जाते हैं, वह रूप शंकर - पुत्र हनुमान है । दूसरे शब्दों में, एक ही आत्मा के तीन पक्ष हैं - क्रियापरक रूप इन्द्र, ज्ञानपरक रूप अग्नि और भावनापरक रूप सोम । यह तीनों शक्तियां उसे परब्रह्म परमात्मा से मिला रहीं हैं ।

-         फतहसिंह

 

हनुमान की उत्पत्ति-कथा के माध्यम से प्रज्ञा की उत्पत्ति का चित्रण

 - राधा गुप्ता

              वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धा काण्ड के अन्तर्गत अध्याय 66 में हनुमान की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली एक छोटी सी कथा वर्णित है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है कथा का संक्षिप्त स्वरूप

              पुञ्जिकस्थला नाम की एक अप्सरा थी जो अप्सराओं में अग्रगण्य थी। वह शापवश जब कपि योनि में अवतीर्ण हुई, तब वानरराज कुञ्जर की पुत्री और वानरराज केसरी की पत्नी अञ्जना कहलाई। अञ्जना रूप और यौवन से सुशोभित थी। अतः एक दिन जब वह पर्वत-शिखर पर विचर रही थी, तब वस्त्रों के हरने से उसके सुन्दर अंगों का अवलोकन करके वायुदेव अञ्जना के ऊपर मोहित हो गए और उसके साथ मानसिक समागम किया। फलस्वरूप अञ्जना ने एक गुफा में वायु के पुत्र महाबली महातेजस्वी हनुमान को जन्म दिया।

 

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा पूर्णरूपेण प्रतीकात्मक है। अतः कथा के एक-एक प्रतीक को पूर्ण रूप से समझ लेना आवश्यक है। -

1.    पुञ्जिकस्थला अप्सरा पुञ्जिकस्थला शब्द पुंजिक और स्थला नामक दो शब्दों के योग से बना है। पुंजिक (पुञ्जित) का अर्थ है समूह अथवा एकत्रित और स्थला का अर्थ है स्थान। अतः पुञ्जिकस्थला का अर्थ हुआ एक स्थान पर एकत्रित (ज्ञान)।

अप्सरा शब्द अप् उपसर्ग के साथ सृ धातु के योग से निष्पन्न हुआ है। अप् का अर्थ है नीचे की ओर और सृ धातु का अर्थ है -  सरण करना या बहना। अतः जो शक्ति ऊपर से नीचे की ओर सरण करती है बहती है वह अप्सरा कहलाती है। अप्सरा को पुंजिकस्थला नाम देकर यह संकेतित किया गया है कि जो शक्ति ज्ञान के पुञ्ज को हिरण्यमय कोष से नीचे के कोष में अर्थात् मन-बुद्धि के स्तर पर उतारती है वह पुञ्जिकस्थला अप्सरा है।

2- अञ्जना संस्कृत शब्द-कोश के आधार पर अञ्जन का अर्थ है सुरमा, जिसे नेत्रों में लगाकर नेत्र-ज्योति को पुष्ट किया जाता है। पौराणिक साहित्य में इस शब्द का प्रयोग ज्ञान के प्रतीक रूप में किया गया है। ज्ञान रूपी अञ्जन से भी मनुष्य की दृष्टि अर्थात् सबके प्रति आत्म-दृष्टि पुष्ट होती है, विकसित होती है। अतः अञ्जना ज्ञान को इंगित करती है।

3- कथा में अञ्जना को वानरराज कुञ्जर की पुत्री कहा गया है। कुञ्जर शब्द कु और जर नामक दो शब्दों के योग से बना है। कु का अर्थ है विकृति या विकार और जर का अर्थ है जीर्ण अथवा क्षीण। अतः वानरराज कुञ्जर का अर्थ हुआ ऐसा मन जिसके विकार क्षीण हो गए हों अर्थात् शुद्ध परिष्कृत मन। पुत्र अथवा पुत्री शब्द पौराणिक साहित्य में गुण के वाचक हैं। अतः अञ्जना को कुञ्जर की पुत्री कहकर यह संकेत किया गया है कि ज्ञान रूप गुण की उत्पत्ति में शुद्ध परिष्कृत मन ही समर्थ है।

4 कथा में अञ्जना को वानरराज केसरी की पत्नी कहा गया है। वानरराज केसरी का अर्थ है श्रेष्ठ मन। पत्नी शब्द पौराणिक साहित्य में शक्ति का वाचक है। अतः अञ्जना को वानरराजा केसरी की पत्नी कहकर यह संकेत किया गया है कि ज्ञान केवल श्रेष्ठ मन की शक्ति है। कमजोर मन ज्ञान रूप शक्ति को धारण करने में समर्थ नहीं है।

5- कपियोनि कपि शब्द कम्पन अर्थ वाली कम्प् धातु से बना है तथा योनि शब्द स्थान का वाचक है। चूंकि मनुष्य का मन कम्पन धर्म से युक्त है, अर्थात् चंचल है, इसलिए कपियोनि कहकर मनुष्य के मन को ही इंगित किया गया है।

6- शाप शाप शब्द पौराणिक साहित्य में अवश्य भवितव्यता अर्थात् अवश्य होने को इंगित करता है। देहचेतना में रहते हुए प्रसुप्त अवस्था में विद्यमान ज्ञान एक न एक दिन अवश्य प्रकट होता है इसी अवश्यम्भाविता को व्यक्त करने के लिए यहाँ शाप शब्द का प्रयोग किया गया है।

7- पर्वत के  शिखर पर अञ्जना का विचरण करना ज्ञान के मनन-चिन्तन को इंगित करता है।

8 वायुदेव वायुदेव मनुष्य के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर में क्रियाशील प्राणशक्ति /चेतनाशक्ति को इंगित करते हैं। अञ्जना के साथ वायुदेव का आलिंगन अथवा मानसिक समागम ज्ञानशक्ति के साथ प्राणशक्ति के विनियोग को इंगित करता है। अञ्जना के साथ वायुदेव के समागम से पुत्र हनुमान की उत्पत्ति कहकर यह संकेत किया गया है कि ज्ञान के साथ प्राणशक्ति का विनियोग होने पर ही हनुमान रूपी प्रज्ञा उत्पन्न होती है। ज्ञानशक्ति अपने आप में बहुत सुन्दर है, परन्तु आचरण में उतरे बिना इसकी सार्थकता नहीं है और ज्ञान की शक्ति आचरण में तभी उतरती है जब मनुष्य अपनी सम्पूर्ण प्राणशक्ति को उस कार्य में लगाता है। उदाहरण के लिए, सत्य बोलो अथवा ईमानदार रहो एक श्रेष्ठ सुन्दर ज्ञान है, परन्तु सत्य बोलने के लिए अथवा ईमानदार होने के लिए मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण प्राणशक्ति का विनियोग उस कार्य में करना पडता है, तभी वह सुन्दर ज्ञान सार्थक हो पाता है।

9 हनुमान ज्ञानशक्ति (अञ्जना) और प्राणशक्ति/चेतना शक्ति (वायुदेव) के परस्पर सम्मिलन से जो तीसरा तत्त्व उत्पन्न होता है, उसे प्रज्ञा कहा जाता है। हनुमान इसी प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

कथा का तात्पर्य

              प्रस्तुत कथा प्रज्ञा की उत्पत्ति को बहुत ही अद्भुत ढंग से निरूपित करती है। कथा संकेत करती है कि प्रत्येक मनुष्य ज्ञानस्वरूप है परन्तु देह-चेतना में रहने के कारण वह ज्ञान अव्यक्त अर्थात् प्रसुप्तावस्था में विद्यमान है। उपयुक्त समय आने पर ही अर्थात् आत्म-चेतना का जागरण होने पर ही वह ज्ञान मन के स्तर पर प्रकट होता है। प्रसुप्तावस्था में विद्यमान उस ज्ञान को जो शक्ति मन के स्तर पर उतारती है, उसे कथा में अप्सराओं में अग्रगण्य पुंजिकस्थला अप्सरा कहा गया है। चूंकि प्रसुप्त ज्ञान ही एक न एक दिन नीचे की ओर सरण करता हुआ या बहता हुआ मन के स्तर पर प्रकट होता है, इसलिए नीचे की ओर सरण करने के कारण उसे अप्सरा कहकर संकेतित किया गया है।मन के स्तर पर अवतरित वही ज्ञान अव्यक्त से व्यक्त होकर अञ्जना कहलाता है। कथा में अञ्जना को वानरराज कुञ्जर की पुत्री और केसरि की पत्नी कहकर यह संकेत किया गया है कि ज्ञान के अवतरण के लिए मन का शुद्ध और श्रेष्ठ होना अनिवार्य है। अशुद्ध विकारी मन ज्ञान को धारण करने में समर्थ नहीं होता।

              पर्वत के शिखर पर अञ्जना का विचरण करना ज्ञान के मनन चिन्तन को इंगित करता है। कथा संकेत करती है कि यद्यपि ज्ञान अपने आप में बहुत सुन्दर है, परन्तु मनन चिन्तन करने पर जब इस ज्ञान की एक एक पर्त खुलती है, तब मनुष्य की प्राणशक्ति /चेतनाशक्ति उस सुन्दरता की ओर आकर्षित होकर उस पर मुग्ध हो जाती है, जिसे कथा में अञ्जना के अंगों का अवलोकन करके पवनदेवता का काम से मोहित हो जाना कहा गया है।

              ज्ञान के अंग प्रत्यंग पर मुग्ध हो जाना ही वह स्थिति होती है जब मनुष्य अपनी सम्पूर्ण प्राणशक्ति/ चेतनाशक्ति को उस ज्ञान के भीतर नियोजित कर देता है, जिसे कथा में अञ्जना के साथ वायुदेव का मानसिक समागम कहकर इंगित किया गया है। ज्ञान के भीतर प्राणशक्ति /चेतनाशक्ति के नियोजन अथवा विनियोग का अर्थ है मनुष्य का पूर्ण पुरुषार्थ एवं उत्साहपूर्वक उस ज्ञान को जीवन व्यवहार में उतारना, उस ज्ञान के अनुसार जीना। जब तक ज्ञान जीवन व्यवहार में नहीं उतरता, तब तक केवल मानसिक अथवा बौद्धिक रहकर मनुष्य का हित सम्पादन नहीं कर सकता। आचरण में, व्यवहार में उतरा हुआ ज्ञान ही अनुभूत ज्ञान बनकर मनुष्य का कल्याण करने में समर्थ होता है। इस अनुभूत ज्ञान को ही प्रज्ञा कहा जा सकता है। हनुमान इसी प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

प्रथम लेखन 25-3-2014(चैत्र कृष्ण नवमी, विक्रम संवत् 2070)

 

 

ORIGIN OF WISDOM THROUGH THE ORIGIN OF HANUMAN

-         Radha Gupta

There is a story in Kishkindhakand related with the origin of Hanuman. It is said that a damsel (apsara) named Punjikasthala being cursed descended in Kapi yoni as Anjana. Anjana was very beautiful. One day, when she was standing on the top of a mountain, Vayu deva came, got attracted towards her and mated her. As a result, Anjana gave birth to a son in a cave. That son became famous a Hanuman.

                           The story describes the origin of wisdom. It says that every person is possessed with knowledge. But in body-consciousness, this knowledge lies in dormant state and manifests only when the consciousness changes from body to soul. This knowledge is symbolized as Anjana. The story indicates that this knowledge relates with a pure – higher mind saying Anjana a daughter of Kunjara and wife of Kesari.

                           Story again tells that although knowledge is very beautiful, but contemplating unfolds it’s beauty more and more. Now it attracts a person’s power – mental and physical, symbolized as the attraction of Vayu deva towards Anjana. This attraction tends towards intimacy between the two symbolized as the mating of Vayu deva with Anjana. Intimacy means, a person is not restricted to knowledge only. He implies it in his daily life, in all his behavious. This originates wisdom symbolized as Hanuman. In short, wisdom requires both – knowledge and power. Knowledge joining with power develops wisdom.

हनुमान द्वारा समुद्र-लंघन के माध्यम से प्रज्ञावान् द्वारा मन रूपी समुद्र के लंघन का चित्रण

-         राधा गुप्ता

हनुमान द्वारा समुद्र-लंघन की कथा रामकथा (सुन्दरकाण्ड, सर्ग 1) की प्रमुख कथाओं में से एक है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

सीता के अन्वेषण हेतु लंका में जाना जब अनिवार्य हो गया, तब वानरवीर हनुमान सौ योजन विस्तृत समुद्र को लांघने के लिए शीघ्र महेन्द्र पर्वत पर चढ गए और वेगपूर्वक आकाश की ओर जाने लगे। वेगपूर्वक जाते हुए हनुमान को समुद्र ने देखा और उनका सम्मान करने के लिए अपने ही जल में छिपे हुए मैनाक पर्वत को ऊपर उठने की आज्ञा दी। मैनाक पर्वत जल से ऊपर उठ गया और हनुमान से विश्राम का अनुरोध करने लगा। परन्तु हनुमान ने कार्य को शीघ्र पूर्ण करने के लिए मैनाक का सत्कार करते हुए उसका स्पर्श मात्र किया और आगे बढ गए। ये वही मैनाक थे जिन्हें इन्द्र ने आज्ञा दी थी कि वे पातालवासी असुरों के बाहर निकलने के मार्ग को रोककर वहीं पाताललोक के द्वार पर खडे रहें।

              हनुमान के बल-पराक्रम की परीक्षा लेने के लिए देवताओं ने नागमाता देवी सुरसा से हनुमान के मार्ग में दो घडी के लिए विघ्न डालने की प्रार्थना की। तदनुसार सुरसा राक्षसी का रूप धारण करके हनुमान को खा जाने के लिए मुँह फैलाकर खडी हो गई। जैसे-जैसे सुरसा अपने मुख का विस्तार करती, वैसे-वैसे हनुमान भी अपने शरीर को बडा बना लेते। अन्त में हनुमान अपने शरीर को अत्यन्त संकुचित करके सुरसा के विशाल मुख में प्रवेश करके तुरन्त बाहर निकल आए और सुरसा ने भी राक्षसी स्वरूप का परित्याग करके हनुमान को राम के कार्य की सिद्धि हेतु सुखपूर्वक जाने की आज्ञा दी।

              आकाश का आश्रय लेकर आगे बढते हुए हनुमान को कामरूपिणी सिंहिका राक्षसी ने भी देखा। सिंहिका राक्षसी छाया देखकर उडते हुए जीवों को पकड लेती, अतः उसने हनुमान की छाया को पकडकर उन्हें भी खा लेना चाहा परन्तु हनुमान सुग्रीव के वचन का स्मरण करके अत्यन्त संकुचित होकर उसके विशाल मुख में प्रविष्ट हो गए और उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण करके वेगपूर्वक बाहर निकल आए। सिंहिका राक्षसी प्राणशून्य होकर समुद्र के जल में गिर पडी।

              अन्त में सौ योजन विस्तार वाले समुद्र को पार करके हनुमान ने समुद्र के तट पर पहुँच कर पर्वत-शिखर पर बसी हुई लंका को देखा।

कथा की प्रतीकात्मकता

              अब हम कथा के एक-एक प्रतीक को समझने का प्रयास करें

1. सौ योजन विस्तृत समुद्र कथा में समुद्र को सौ योजन विस्तार वाला कहा गया है। वास्तव में मनुष्य का मन ही समुद्र है और इस मन रूपी समुद्र के सौ योजन विस्तार के पीछे वह शास्त्रीय मान्यता काम कर रही है जिसमें कहा गया है कि मनुष्य के मन की एक सौ वृत्तियाँ हैं। इनमें से सौ वृत्तियाँ मनुष्य को शरीर अथवा जगत की ओर ले जाती हैं, केवल एक वृत्ति मनुष्य को आत्मा-परमात्मा से जोडती है। शरीर अथवा जगत की ओर ले जाने वाली मन की सौ वृत्तियों को जो सहज रूप से पार कर ले, उनके आकर्षण अथवा बन्धन से बाहर निकल जाए वही प्रज्ञावान् है जिसके प्रतीक हनुमान हैं। अतः हनुमान द्वारा सौ योजन विस्तृत समुद्र को लांघने का अर्थ है प्रज्ञावान् द्वारा अपने ही सौ वृत्तियों वाले मन रूपी समुद्र का अतिक्रमण कर देना, वृत्तियों के बन्धन से मुक्त हो जाना।

2 महेन्द्र पर्वत कथा में कहा गया है कि हनुमान जी समुद्र को लांघने के लिए सहज रूप से उछलकर महेन्द्र पर्वत पर चढ गए और वेगपूर्वक आकाश की ओर जाने लगे।

              चूंकि पर्वत स्थिरता एवं उच्चता का द्योतक है, अतः किसी श्रेष्ठ विचार अथवा गुण को इंगित करने के लिए पुराणों में पर्वतों का भी प्रतीक रूप में प्रयोग किया गया है। यहाँ महेन्द्र पर्वत निष्कामता (कामना-रहितता) और निष्कम्पता (स्थिरता) जैसे श्रेष्ठ गुणों को इंगित करता प्रतीत होता है। निष्कामता और निष्कम्पता प्रज्ञावान् के सहज गुण हैं जिन पर आरूढ होकर वह मन रूपी समुद्र से बाहर आने वाली अनेक बाधाओं को पार करता हुआ लक्ष्य तक पहुँचता है।

3 मैनाक पर्वत मैनाक पर्वत को समझने के लिए सबसे पहले मैनाक से सम्बन्ध रखने वाले पौराणिक कथनों और उन कथनों के प्रतीकों को समझ लेना आवश्यक होगा।

              पुराणों में कहा गया है कि पितरों की एक कन्या थी मेना, जिसका विवाह हिमालय पर्वत से हुआ। हिमालय और मेना से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो मैनाक पर्वत कहलाया। पौराणिक साहित्य में पितर शब्द संस्कार या छाप का, कन्या शब्द विशेषता या गुण का, मेना (मैं मैं नहीं) शब्द निरहंकारिता (अहंकार के अभाव) का, हिमालय पर्वत शुद्ध स्थिर मन का तथा पत्नी शब्द शक्ति का प्रतीक है। अतः समस्त प्रतीकों पर विचार करते हुए यहाँ यह संकेत किया गया है कि अनेकानेक जन्मों की लम्बी यात्रा में मनुष्य अपने चित्त में जिन श्रेष्ठ संस्कारों (पितरों ) को इकट्ठा कर लेता है, वही श्रेष्ठ संस्कार मनुष्य के मन में निरहंकारिता (अहंकार का अभाव) को उत्पन्न करते हैं। श्रेष्ठ संस्कार से उत्पन्न निरहंकारिता को ही पौराणिक कथाओं में पितरों की कन्या मेना कहकर संकेतित किया गया है। यह निरहंकारिता रूप विशेषता शुद्ध स्थिर मन (हिमालय) से संयुक्त होकर और उस शुद्ध मन की शक्ति बनकर पुण्य की राशि का सृजन करती है, जिसे पौराणिक कथाओं में मेना एवं हिमालय से  मैनाक पर्वत का उत्पन्न होना कहा गया है।

              कथा संकेत करती है कि मन रूपी समुद्र के भीतर विद्यमान यही पुण्यराशि ऊपर उठकर जैसे जैसे जीवन में सुखों का विस्तार करती है, वैसे-वैसे मनुष्य का स्पृहा युक्त मन उन सुखों में अटक जाता है। सुखों में अटका हुआ मनुष्य अपने ही देहाभिमानी व्यक्तित्व को देख नहीं पाता, अतः उसका परिमार्जन परिष्कार नहीं कर पाता। चूंकि प्रज्ञावान् की सुखों में भी कोई स्पृहा नहीं होती, अतः यही निःस्पृहता उसे सुखों में न उलझाकर लक्ष्य-प्राप्ति की ओर अग्रसर कर देती है जिसे कथा में हनुमान का मैनाक पर्वत पर विश्राम न करके आगे बढ जाना कहा गया है।

              चूंकि मनुष्य की अपनी ही पुण्यराशि मन की गहराई में विद्यमान आसुरी संस्कारों को दबाकर रखती है, इसलिए कथा में कहा गया है कि मैनाक पर्वत पाताल लोक के द्वार पर स्थित रहता है जिससे असुर बाहर न निकल सकें।

4 सुरसा सुरसा नामक पात्र के रूप में मन रूपी समुद्र में रहने वाले किसी ऐसे तत्त्व की ओर इंगित किया गया है जिसका मूल स्वरूप तो दैवीय है, परन्तु राक्षसी स्वरूप धारण करने में भी वह समर्थ है। जो चित्त में रहने वाली नाना वृत्तियों का मूल है, इसीलिए कथा में उसे नागमाता कहा गया है। अपने राक्षसी स्वरूप में वह तत्त्व हनुमान जैसे दैवीय तत्त्व को भी खा जाने की इच्छा रखता है, परन्तु दैवीय स्वरूप में राम के कार्य की सिद्धि चाहता है।

              उपर्युक्त वर्णित सभी बिन्दुओं पर विचार करते हुए सुरसा नामक पात्र आसक्ति अनासक्ति नामक महत्त्वपूर्ण तत्त्व की ओर संकेत करता प्रतीत होता है। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में नाना प्रकार की भूमिकाओं को धारण करता हुआ नाना प्रकार के सम्बन्धों में व्यवहार करता है। सम्बन्धों में निर्वाह करने के दो ही प्रकार हैं। एक है दैवी प्रकार, जिसे शास्त्रों में अनासक्ति कहा गया है तथा दूसरा है आसुरी प्रकार, जिसे शास्त्रों में आसक्ति कहा गया है। जब मनुष्य आत्मस्वरूप (मैं आत्मा हूं) में स्थित रहकर दूसरों को भी आत्म-दृष्टि से देखता है, तब सभी सम्बन्धों का भली प्रकार निर्वाह करते हुए भी वह उन सम्बन्धों से चिपकता नहीं, अर्थात् सभी सम्बन्धों में प्रेमपूर्वक रहते हुए भी वह उनमें अनासक्त बना रहता है।

              इसके विपरीत, जब मनुष्य स्वयं को शरीर मानकर दूसरों को भी शरीर-दृष्टि से ही देखता है, तब अपने पराए का विचार उदित होने से वह अपनों के साथ ऐसा चिपक जाता है कि उसके समस्त सुख दुःख अपनों अर्थात् सम्बन्धों पर ही निर्भर हो जाते हैं। यही आसक्ति है जिसे कथा में राक्षसी सुरसा के रूप में चित्रित किया गया है। मन के समुद्र में रहने वाली यह आसक्ति रूप राक्षसी इतनी प्रबल होती है कि सामान्य मनुष्य को सहज रूप से अपने चंगुल में फँसा लेना चाहती है, जिसे कथा में सुरसा द्वारा मुख को फैलाने के रूप में चित्रित किया गया है। चूंकि प्रज्ञावान् अनासक्त होने के कारण सम्बन्धों में कहीं चिपकता नहीं, इसलिए वह आवश्यकता के अनुसार सभी सम्बन्धों का सम्यक् निर्वाह करता हुआ कभी उन सम्बन्धों के विस्तार में चला जाता है तो कभी सहज रूप से स्वयं को उन सम्बन्धों से समेट भी लेता है। इसे ही कथा में हनुमान का सुरसा के मुख में प्रवेश करना और फिर सूक्ष्म स्वरूप धारण करके सुरसा के मुख से निकलना कहकर संकेतित किया गया है।

              देहभाव में रहते हुए आसक्ति का रस तथा आत्मभाव में रहते हुए अनासक्ति का रस सभी प्रकार के रसों में श्रेष्ठ है, इसीलिए आसक्ति और अनासक्ति को यहाँ सुरसा नाम देना युक्तिसंगत ही है। अनासक्ति तथा आसक्ति दोनों ही स्थितियों में मन के भीतर सकारात्मक नकारात्मक नाना प्रकार की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, इसीलिए कथा में सुरसा को नागमाता कहा गया है। नाग शब्द वृत्ति (मन के व्यापार) को इंगित करता है और माता का अर्थ है उत्पन्न करने वाली।

5 सिंहिका राक्षसी सिंहिका को समझने के लिए भी उस पौराणिक कथन को समझना आवश्यक है जिसमें उसे राहु की माता कहा गया है। राहु उस तत्त्व का प्रतीक है जो सूर्य और चन्द्रमा को ग्रसता है। आध्यात्मिक स्तर पर सूर्य आत्म तत्त्व का तथा चन्द्रमा शुद्ध श्रेष्ठ मन का प्रतीक है। अतः दोनों को ही ग्रस लेने वाले कलुष विचार को राहु कहा जा सकता है। जो इस कलुष विचार को उत्पन्न करती है उसे पुराणों में सिंहिका राक्षसी कहा है।

              इस आधार पर मन रूपी समुद्र में रहने वाली सिंहिका नामक राक्षसी मनुष्य की विकृत मानसिकता को इंगित करती है। विकृत मानसिकता का अर्थ है ज्ञान के लुप्त हो जाने से मनुष्य की सोच का ही विकारयुक्त हो जाना। उदाहरण के लिए छोटे से छोटे अथवा बडे से बडे पर्व (त्यौहार) को भारतीय जीवन में इसलिए पिरोया गया था कि मनुष्य का स्वयं का जीवन सदैव उन विशेषताओं से भरपूर रहे, जो न केवल उसके स्वयं के जीवन को निरन्तर विकास की ओर बढाएं अपितु सामाजिक वैश्विक समरसता को भी बनाए रखें। परन्तु ज्ञान के विलुप्त हो जाने और परिणामस्वरूप सोच के विकृत हो जाने से मनुष्य के हाथ में आया हुआ प्रत्येक पर्व आज विकारयुक्त होकर स्वयं मनुष्य को ही हानि पहुँचाने लगा है। इस तथ्य का संकेत कथा में यह कहकर किया गया है कि सिंहिका राक्षसी को देखकर हनुमान को सिंहिका विषयक सुग्रीव के वचनों का स्मरण हो आया।

              सिंहिका नामक यह राक्षसी अर्थात् विकृत मानसिकता उस विकृत दर्पण की भांति है जिसमें बनने वाला प्रत्येक प्रतिबिम्ब विकृत ही बनता है, अर्थात् बिम्ब कितना भी अच्छा हो, प्रतिबिम्ब कभी अच्छा नहीं बनता क्योंकि प्रतिबिम्ब का आधार दर्पण ही विकृत है। इसी तथ्य को कथा में यह कहकर संकेतित किया गया है कि सिंहिका राक्षसी आकाश में उडते हुए प्राणी की परछाई को पकड लेती और उसे खा जाती। कथा संकेत करती है कि मन रूपी समुद्र में विराजमान इस विकृत मानसिकता को विनष्ट करने में प्रज्ञा ही समर्थ है, जिसे हनुमान कहा गया है।

कथा का तात्पर्य

              प्रस्तुत कथा के माध्यम से यह संकेत किया गया है कि अपने ही देहाभिमानी व्यक्तित्व (लंका) में रहने वाला अपना ही देहाभिमान (रावण) जब अपनी ही पवित्रता (सीता) का हरण कर लेता है, तब निश्चित रूप से अपने ही देहाभिमानी व्यक्तित्व को टटोलना अर्थात् उसके भीतर झांकना अनिवार्य हो जाता है।

              परन्तु देहाभिमानी व्यक्तित्व को टटोलने के लिए उस देहाभिमानी व्यक्तित्व के निकट पहुँचना कठिन हो जाता है क्योंकि अपना ही मन रूपी समुद्र बाधा बनकर खडा हो जाता है। कथा संकेत करती है कि मनुष्य का अपना ही मन एक ऐसे समुद्र की तरह है जिसमें अपने ही संस्कारों के कारण अच्छा और बुरा बहुत कुछ भरा हुआ है। वहाँ श्रेष्ठ संस्कारों के फलस्वरूप उत्पन्न हुई श्रेष्ठ सोच भी विद्यमान है और निकृष्ट संस्कारों के फलस्वरूप उत्पन्न हुई निकृष्ट सोच भी। वहाँ कामनाओं, इच्छाओं के ऊँचे ऊँचे पर्वत भी हैं और ममता, मोह के झरने भी। कभी मनुष्य अपने ही पुण्यों के फलस्वरूप प्रकट हुए सुखों के विस्तार में अटक जाता है तो कभी आसक्ति के रस उसे खींच लेते हैं।

              कथा संकेत करती है कि अपने ही देहाभिमानी व्यक्त्तित्व तक पहुँचने और उसे देखने में प्रज्ञावान् ही समर्थ है क्योंकि प्रज्ञावान् निष्कम्प और निष्काम होने के कारण कामनाओं में नहीं उलझता और सहज रूप से लक्ष्य की ओर गतिमान रहता है। निःस्पृह होने के कारण जीवन में आए हुए अनेक प्रकार के सुखों में वह लिप्त नहीं होता और अनासक्त होने के कारण सम्बन्धों के विस्तार में रहते हुए भी उनसे नहीं बंधता। वह श्रेष्ठ सोच का धनी होता है, इसलिए मनःसमुद्र में विद्यमान निकृष्ट सोच का सहज रूप से वध कर देता है। इसे ही कथा में हनुमान द्वारा समुद्र का लंघन कहकर संकेतित किया गया है।

प्रथम लेखन 31-3-2014ई.(चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम संवत् 2071)

 

 

SAMUDRA LANGHAN KATHA

                           When vanaras knew from Sampati that Sita is living in Lanka puri in prison of Ravana and it is compulsory to cross the sea to see and meet Sita, then they measured their strength to cross the sea and came to know that only Hanuman is able to cross that sea.

                           Accordingly, Hanuman got ready, climbed on mountain Mahendra and flew in the sky. Sea saw him flying and wished to respect him. He (the sea) requested mountain Mainaka to rise above from water, accordingly Mainaka rose and requested Hanumana to take rest over him. But Hanumana, respecting Mainaka did not rest and flew ahead.

                           On his way, Hanumana was confronted with demoness Surasaa. Surasaa opened her mouth to swallow Hanumana, but Hanumana became large and at last becoming very tiny, he entered in her wide mouth and came back soon. Being blessed by Surasaa, Hanumana flew ahead and was confronted by a demoness Simhikaa. Simhikaa used to eat creatures by catching their reflection. Hanumana also felt that attraction but killed her by entering in her mouth.  At last, he reached on the bank of sea and saw Lanka.

                           This story describes efficiency of wisdom. It first reveals this truth that a person’s own ego symbolized as Ravana steals his purity (Sita), therefore it becomes important ot investigate one’s own personality full of ego to get that purity back symbolized as Sita.

                           Story indicates that although a person has many-many powers but inspite of these powers, he never concentrates on his personality full of ego. A vast sea of desires, expectations, comforts and attachments hinders his way and he never thinks or tries in that direction.

                           Only a person of wisdom symbolized as Hanuman concentrates in this direction. He is free from desires, he never entangles in comforts, he remains detached and he thinks highly, therefore, he easily crossed the vast sea and reaches his destination, i.e., the personality symbolized as Lanka.

 

हनुमान द्वारा अशोकवाटिका के विध्वंस, राक्षसों के विनाश तथा लंकादहन के माध्यम से देहाभिमानी मन और व्यक्तित्व को कमजोर बनाने वाली प्रज्ञाशक्ति के महत्त्व का चित्रण

-          राधा गुप्ता

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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड के अध्याय 4 से 54 तक अशोकवाटिका के विध्वंस, राक्षसों के विनाश तथा लंका के दहन की कथा विस्तार से वर्णित है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

     हनुमान ने सबसे पहले सौ योजन विस्तार वाले समुद्र को लांघा। लंका के द्वार पर स्थित लंकापुरी राक्षसी को परास्त किया। तत्पश्चात् वे महाबली हनुमान लंका में प्रविष्ट होकर घर-घर में घूमकर सीता की खोज करने लगे। बहुत खोजने पर भी जब उनको सीता का पता न लगा तब वे दुःखा हुए। नाना प्रकार से तर्क-वितर्क करते हुए और सम्पाति के वचनों का स्मरण करके अन्त में हनुमान अशोकवाटिका की चहारदीवारी पर चढ गए। अशोकवृक्ष पर बैठकर उन्होंने वहाँ की अद्भुत शोभा को देखा। तभी उन्हें राक्षसियों से घिरी हुई एक स्त्री दिखाई दी। यह निश्चय करके कि ये ही सीता हैं हनुमान प्रसन्न हुए और राम का स्मरण करते हुए वहीं बैठे रहे। प्रातःकाल होने पर एक सौ सुन्दरियों से घिरा हुआ रावण सीता के समीप आया और सीता को अनेक प्रकार से प्रलोभित करने लगा। केवल राम में ही अनुरक्त रहने वाली सीता ने भी रावण को समझाने का प्रयत्न किया परन्तु रावण नहीं माना। अन्त में सीता को फटकारता हुआ रावण अपने महल में लौट गया।

     अब हनुमान ने राक्षसियों के द्वारा डरायी, धमकायी जाती हुई और करुण विलाप करती हुई सीता से वार्तालाप करने का निश्चय किया। उन्होंने रामकथा का वर्णन करके पहले सीता के विश्वास को प्राप्त किया, स्वयं को राम का दूत बतलाया और पहचान के रूप में सीता को रामनाम से अंकित मुद्रिका प्रदान की। हनुमान ने सीता को रावण से शीघ्र मुक्ति का आश्वासन भी दिया। पहचान के रूप में सीता ने हनुमान को चूडामणि प्रदान की और सीता का संदेश लेकर हनुमान वहाँ से चले गए।

     सीता से विदा लेकर हनुमान ने शेष बचे हुए कार्य पर विचार किया और युद्ध की इच्छा से वाटिका को उजाड दिया। वृक्षों को उखाड डाला, जलाशयों को मथ दिया, पर्वतशिखरों को चूर-चूर कर डाला और चित्रशालाओं को उजाड दिया। सोकर उठी हुई राक्षसियों ने वाटिका के विध्वंस का सारा समाचार जब रावण से निवेदित किया, तब रावण ने अस्सी हजार किंकर नामक राक्षसों को युद्ध के लिए भेजा। हनुमान ने एक ही परिघ से उन सबका संहार कर दिया और फिर सौ खम्बों वाले चैत्य प्रासाद को भी तोडफोड डाला। क्रुद्ध रावण ने प्रहस्त के पुत्र जम्बुमाली को युद्ध के लिए भेजा परन्तु हनुमान ने जम्बुमाली को भी सेना सहित काल के गाल में डाल दिया। पुनः रावण ने मन्त्री के पुत्रों को भेजा, पाँच शूरवीर सेनापतियों को भेजा परन्तु उनके भी सेना सहित मारे जाने पर पुत्र अक्षकुमार को युद्ध के लिए भेजा। अक्षकुमार युद्ध की कला में अत्यन्त प्रवीण था परन्तु हनुमान ने आकाश में उडते हुए उसके दोनों पैर पकड लिए और पृथ्वी पर पटककर मार दिया। अक्षकुमार के वध से रावण अत्यन्त कुपित हुआ और दूसरे पुत्र इन्द्रजित् को भेजा। इन्द्रजित् ने वानर का सामना करना असम्भव समझ कर हनुमान को ब्रह्मास्त्र से बांध दिया। दूसरे राक्षस भी हनुमान को रस्सियों से बांधकर रावण के समीप ले गए। रावण ने हनुमान से जब लंका में आगमन का कारण पूछा, तब हनुमान ने सीता के दर्शन को ही आगमन का कारण बताया और अपने स्वामी सुग्रीव का संदेश भी सुनाया। हनुमान ने रावण से आग्रह किया कि वह सीता को राम को सौंप दे परन्तु क्रुद्ध हुए रावण ने सैनिकों को दूत के वध की आज्ञा दी। विभीषण ने दूत के वध की निन्दा करते हुए अंग-भंग करने का परामर्श दिया। तदनुसार हनुमान की पूंछ में कपडा लपेट कर आग लगा दी गई। पूंछ में आग लगाकर हनुमान को जब लंका में घुमाया जा रहा था, तभी हनुमान ने विशाल स्वरूप को संकुचित करके स्वयं को बन्धन से छुडा लिया। उन्होंने लंका के महलों पर चढकर अपनी पूंछ की आग से समस्त लंका नगरी को जला दिया।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा के एक एक प्रतीक को समझना उपयोगी होगा।

1.    लंकापुरी लंका शब्द अधम अर्थ वाले रंक शब्द में र अक्षर को ल करने से बना प्रतीत होता है(उणादि कोष, पाद 3, सूत्र 40)। पुरी शब्द व्यक्तित्व का वाचक है। अतः लंकापुरी मनुष्य के अधम व्यक्तित्व देहाभिमानी व्यक्तित्व को इंगित करती है। इसी देहाभिमानी व्यक्तित्व में देह का अभिमानी मन (देह तथा देह से सम्बन्ध रखने वाली भूमिकाओं, पदों तथा सम्पत्ति में अभिमान करने वाला) अर्थात् रावण अपने काम क्रोध, लोभ आदि विकार रूप कुटुम्ब के साथ निवास करता है।

2.    अशोकवाटिका अशोकवाटिका का अर्थ है ऐसी वाटिका अथवा क्षेत्र जहाँ शोक न हो। अतः सुख के, आराम के क्षेत्र को ही अशोकवाटिका कहा गया है। कथा में इसे रावण का अन्तःपुर कहा गया है। चूंकि रावण देहाभिमानी मन का प्रतीक है, अतः अन्तःपुर कहकर यह संकेतित किया गया है कि देह का अभिमानी मन अपने ही भीतर एक ऐसे पुर (क्षेत्र) का निर्माण कर लेता है जहाँ कोई शोक या दुःख नहीं होता। तात्पर्य यह है कि देह का अभिमानी मन (मनुष्य) अशुद्ध मलिन सोचता है, असत्य बोलता है, बेईमानी करता है परन्तु मलिन सोचकर, असत्य बोलकर अथवा बेईमानी करके भी उसके भीतर किसी बेचैनी अथवा व्याकुलता का अनुभव नहीं होता क्योंकि तर्कों के सहारे वह अपने मानसिक वाचिक अथवा कामिक प्रत्येक अनुचित आचरण को उचित एवं सही ठहराकर सुखी बना रहता है। उदाहरण के लिए अभिमानी मन बेईमानी करता जाता है और स्वयं को यह तर्क देकर कि आजकल ईमानदारी से काम ही कहाँ चलता है स्वयं को आरामदायक स्थिति में रखता जाता है। यही देहाभिमानी व्यक्तित्व (लंका) के भीतर निर्मित हुई अशोकवाटिका है जिसका विनाश आवश्यक है। अशोकवाटिका को कथा में प्रमदावन भी कहा गया है। चूंकि अभिमानी व्यक्तित्व के भीतर बना हुआ यह सुख का क्षेत्र देह के अभिमानी मन को विशेष प्रकार का मद प्रदान करता है, इसलिए इसको प्रमदावन कहना सार्थक ही है।

3 सीता का अशोकवाटिका में निवास और हनुमान द्वारा उनका दर्शन

मन बुद्धि की पवित्रता अर्थात् पवित्र सोच को ही रामकथा में सीता के रूप में चित्रित किया गया है। देह का अभिमानी मन जब अपनी अपवित्र मलिन सोच को ही सही एवं उचित ठहराता हुआ सुख से, आराम से बिना किसी अपराध बोध के रहने लगता है, तब पवित्र सोच(सीता) का जीवन व्यवहार (जनस्थान) से लुप्त होकर कैदी की भाँति विद्यमान हो जाना स्वाभाविक सहज है। जीवन व्यवहार से लुप्त हुई, कैद में पडी हुई, असहाय, असमर्थ, दीन पवित्र सोच को ही कथा में अशोकवाटिका में विद्यमान सीता के रूप में इंगित किया गया है।

     कथा संकेत करती है कि एकमात्र प्रज्ञा ही वह शक्ति है जो सूक्ष्म होकर एक न एक दिन अपने ही इस अभिमानी मन के सुख क्षेत्र (अशोकवाटिका) में घुस जाती है और देख पाती है कि पवित्र सोच (सीता) जीवित तो है परन्तु मलिनता के सघन आवरण से घिरी हुई है। अतः मलिनता के विकारों के इस सघन आवरण को तोडकर ही इस पवित्र सोच रूपी सीता को मुक्त किया जा सकता है।

4 हनुमान द्वारा अशोकवाटिका का विध्वंस

     देह का अभिमानी मन जिसे कथा में रावण कहा गया है मन से, वचन से तथा कर्म से भ्रष्ट आचरण करता हुआ भी जिन विभिन्न तर्कों के सहारे स्वयं को सदा सही ठहराता है और अपराध बोध से मुक्त रहकर सुख से, मजे से रहता है उन तर्कों का आधार उसकी अपनी हीमान्यताएँ, धारणाएँ, कल्पनाएँ तथा पक्के विश्वास होते हैं, जिन्हें कथा में अशोकवाटिका के वृक्ष, जलाशय, चित्रशालाएं तथा पर्वतशिखर आदि कहा गया है। प्रज्ञाशक्ति इन मान्यताओं, धारणाओं, कल्पनाओं तथा पक्के हो चुके विश्वासों को चूर-चूर करके ही सुख के क्षेत्र (अशोकवाटिका) का विध्वंस करती है और देह के अभिमानी मन (रावण) को कमजोर करने का श्रेष्ठ कार्य सम्पन्न करती है।

5 चैत्य प्रासाद और हनुमान द्वारा उसका विध्वंस

     मनुष्य जो भी कर्म (मानसिक वाचिक अथवा कायिक) बार-बार करता है, उसकी एक छाप चित्त में अंकित हो जाती है जिसे संस्कार कहा जाता है। अनेकानेक जन्मों की सतत् यात्रा में मनुष्य के चित्त में ढेर सारे संस्कार एक के ऊपर एक इकठ्ठे होकर मानो प्रासाद (भवन) का स्वरूप धारण कर लेते हैं जिसे चैत्य प्रासाद कहा जा सकता है। चूंकि संसार में लिपप्त रहने वाली मन की सौ वृत्तियाँ ही इस प्रासाद के निर्माण में आधारभूत होती हैं, इसलिए कथा में चैत्य प्रासाद को सौ खम्भों पर स्थित कहा गया है। कथा यह महत्त्वपूर्ण संकेत करती है कि प्रज्ञाशक्ति संस्कारों के पुंज रूप इस चैत्य प्रासाद को भी सहज रूप से ध्वस्त कर देती है।

6 हनुमान द्वारा किंकरादि राक्षसों का विनाश

मनुष्यात्मा एक शरीर छोडता है, दूसरा ग्रहण करता है। शरीर छोडने तथा ग्रहण करने की लम्बी यात्रा में वह अनेकानेक मान्यताओं तथा धारणाओं को अपने भीतर इकट्ठा कर लेता है और धीरे धीरे ये मान्यताएँ, धारणाएँ ही उसके विचारों को प्रभावित करके, उन पर आधिपत्य स्थापित करके उसके जीवन को चलाने लगती हैं। मूल मान्यता तो यही है कि मनुष्य स्वयं को शरीर मान लेता है। शरीर दिखाई देता है, आत्मा अदृश्य है, इसलिए उचित ज्ञान के विस्मृत होने से वह अपने आपको शरीर ही मानने लगता है। इस एक मान्यता से फिर सहस्रों मान्यताएँ जन्म ले लेती हैं, जो मनुष्य के जीवन को अधोगामी बनाती हैं। प्रज्ञाशक्ति चित्त में इकठ्ठी हुई इन मान्यताओं को ध्वस्त करती है और मनुष्य के विकास का रास्ता खोलती है। परन्तु मान्यताओं का ध्वस्त होना देह के अभिमानी मन (रावण) को एकदम स्वीकार्य नहीं होता। इसलिए वह अनेक प्रकार के बहाने बनाकर, परम्पराओं की दुहाई देकर, सम्बन्धों का शोर मचाकर उन मान्यताओं को बचाना चाहता है और प्रज्ञा को ही विनष्ट करने का व्यर्थ प्रयत्न करता है। परन्तु प्रज्ञा की शक्ति अद्भुत है। प्रज्ञा के सामने अभिमानी मन के ढेरों बहाने, परम्परा की दुहाइयाँ कुछ भी टिक नहीं पाते, विनष्ट हो जाते हैं जिन्हें कथा में हनुमान द्वारा किंकरादि अस्सी हजार राक्षसों के विनाश के रूप में चित्रित किया गया है।

7 प्रहस्त पुत्र जम्बुमाली और हनुमान द्वारा उसका वध

     प्रहस्त शब्द प्र उपसर्ग के साथ हस्त शब्द के योग से बना है। हस्त का अर्थ है  - हाथ। प्र उपसर्ग को जोडने पर प्रहस्त का अर्थ हुआ विशेष हाथ अर्थात् सहारा। अध्यात्म की दृष्टि से विचार करने पर मेरे का विचार तथा भाव ही देहाभिमानी मन (रावण) का सहारा होता है, इसलिए प्रहस्त को रामकथा में रावण का मन्त्री कहकर इंगित किया गया है।

     जम्बुमाली शब्द जम्बु और माली नामक दो शब्दों के योग से बना है। जम्बु का अर्थ है बडा और माली का अर्थ है माला से सम्पन्न। अतः जम्बुमाली का अर्थ हुआ बडी माला से सम्पन्न। अध्यात्म की दृष्टि से यह बडी माला अनेक प्रकार के विचारों और विकारों की माला है, जो मेरा के फलस्वरूप पैदा होती है। इसलिए कथा में जम्बुमाली को प्रहस्त से उत्पन्न हुआ कहा गया है।

     देह का अभिमानी मन पहले मेरा और मेरे के भाव से युक्त होता है और फिर वह उस मेरा मेरे से उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के विकारों की माला से सम्पन्न हो जाता है, घिर जाता है। उदाहरण के लिए प्रतियोगिता का भाव, तुलना का भाव, निन्दा का भाव तथा अथिकार का भाव आदि कुछ ऐसे भाव रूप विकार हैं जो मेरा मेरे के फलस्वरूप ही मनुष्य के मन के भीतर पैदा हो जाते हैं।

     हनुमान के द्वारा प्रहस्त पुत्र जम्बुमाली के वध से यही इंगित किया गया है कि प्रज्ञाशक्ति उपर्युक्त वर्णित विकारों का वध सहज रूप से करती है। सामान्य बुद्धि ऐसा करने में समर्थ नहीं है।

8 अक्षकुमार और हनुमान द्वारा उसका वध

अक्ष का अर्थ है धुरी, जिसके आधार पर गाडी के दोनों पहिये घूमते हैं और गाडी चलती है। अध्यात्म के स्तर पर स्वार्थ को ही देह के अभिमानी मन (मनुष्य) के जीवन की धुरी कहा जा सकता है क्योंकि स्वार्थ के आधार पर ही देहाभिमानी के जीवन का रथ घूमता अर्थात् चलता है।

     चूंकि स्वार्थ सदैव मैं और मेरा के आधार पर ही खडा होता है, इसलिए कथा में इस मैं और मेरा को ही अक्षकुमार के दो पैर कहा गया है। इन्हीं मैं और मेरा रूपी दोनों पैरों को पकडकर प्रज्ञाशक्ति स्वार्थ को विनष्ट करती है।

9 इन्द्रजित् द्वारा हनुमान का बन्धन

इन्द्रजित् शब्द इन्द्र और जित् नामक दो शब्दों के योग से बना है। इन्द्र का अर्थ है इन्द्रियों का राजा मन तथा जित् का अर्थ है जीतने वाला। अतः इन्द्रजित् का अर्थ हुआ इन्द्रियों के राजा मन को जीत लेने वाला। चूंकि इन्द्रजित् भी एक राक्षस (विकार ) है, इसलिए अध्यात्म के स्तर पर यह इन्द्रजित् मन को जीत लेने वाले अर्थात् मन पर अधिकार कर लेने वाले क्रोध नामक विकार को इंगित करता है।

          रामकथा में प्रस्तुत अन्य आधारों पर भी इन्द्रजित् को क्रोध के प्रतीक रूप में ग्रहण किया जा सकता है। वह रावण का पुत्र है। चूंकि रावण मनुष्य के देहाभिमानी मन का प्रतीक है, अतः देहाभिमानी मन से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है। इन्द्रजित् को मेघनाद भी कहा गया है। मेघनाद (मेघ नाद) का अर्थ है मेघ की भाँति गर्जना करने वाला। क्रोध ही जोर जोर से बोलता अर्थात् गर्जना करता है। कथा में (सुन्दरकाण्ड 48.2) कहा गया है कि इन्द्रजित् (क्रोध) देवों और असुरों दोनों को शोक प्रदान करने वाला तथा इन्द्र सहित देवों में भी अपना पराक्रम दिखाने वाला है।

     कथा में कहा गया है कि देहाभिमान से उत्पन्न हुआ यह क्रोध यद्यपि हनुमान (प्रज्ञा) को बांध नहीं सकता, परन्तु हनुमान ने रावण तक पहुँचने के लिए उस बन्धन को स्वीकार किया।

     इस कथन द्वारा यह संकेत किया गया है कि अपने ही देहाभिमानी मन को पहचानना सरल नहीं होता परन्तु क्रोध वह महत्त्वपूर्ण संकेत है जिसके आधार पर प्रज्ञाशक्ति उस अभिमानी मन तक पहुँच पाती है और उसे देख पाती है।

10 इन्द्रजित् का ब्रह्मास्त्र

     ब्रह्मास्त्र का अर्थ है ब्रह्मा अर्थात् निर्माता शक्ति द्वारा दिया गया स्वभाव रूपी अस्त्र। यहां यह संकेत किया गया है कि जस तत्त्व का जो भी स्वभाव है वह उसे उसी की निर्माता शक्ति (ब्रह्मा) द्वारा दिया गया है। क्रोध का स्वभाव है विचलित होना, एकटक घूरना, जोर-जोर से चीखना चिल्लाना अथवा किसी भी चीज को इधर उधर फेंककर उपद्रव करना। यही क्रोध को ब्रह्मा द्वारा दिया गया अस्त्र है जिसका प्रयोग वह (क्रोध) यथासमय करता है। चूंकि क्रोध को प्राप्त हुआ यह स्वभाव (ब्रह्मास्त्र) ही मनुष्य की समझ को बांध लेता है, इसलिए इसे पाश अर्थात् बांधने वाला भी कहा गया है। कथा संकेत करती है कि क्रोध के इस पाश (ब्रह्मास्त्र) से प्रज्ञाशक्ति कभी नहीं बंधती परन्तु ब्रह्मास्त्र का मानो सम्मान करते हुए बंधने का अभिनय अवश्य करती है।

11 हनुमान का दूत स्वरूप

     कथा में हनुमान को दूत के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दूत का अर्थ है एक पक्ष के समाचार को दूसरे पक्ष तक पहुँचाने वाला। प्रज्ञाशक्ति में ही यह  सामर्थ्य होती है कि वह एक ओर से आत्मस्वरूप (राम) से जुडी रहती है, तथा दूसरी ओर अहंकार तथा अहंकार से उत्पन्न हुए विकारों से सर्वथा अस्पर्शित होने के कार्ण देहाभिमानी मन के निकट तक पहुँचने की सामर्थ्य भी रखती है। इस उभयपक्षीय सामर्थ्य के कारण ही प्रज्ञाशक्ति (हनुमान) को दूत के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

12 – पहचान के रूप में अंगूठी और चूडामणि रूप आभूषणों का आदान प्रदान

     पौराणिक साहित्य में आभूषणों का प्रयोग गुणों के अर्थ में किया गया है। प्रस्तुत कथा में आभूषणों के आदान प्रदान द्वारा यह महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि भले ही आत्म-ज्ञान रूपी राम तथा पवित्र सोच रूपी सीता का श्रेष्ठ युगल चतुर्युगी के कालचक्र के कारण अलग अलग हो गया हो, परन्तु दोनों अपने अस्तित्व रूप गुण का परित्याग कभी नहीं करते। आत्म-ज्ञान सदैव आत्म-ज्ञान ही रहता है और पवित्र सोच सदैव पवित्र सोच ही रहती है। अलग अलग हो जाने का यह अभिप्राय नहीं हे कि कोई तत्त्व अपने अस्तित्व अथवा स्वभाव अथवा गुण से अलग हो जाए।

     कथा में आत्म ज्ञान रूपी राम की पहचान के रूप में अंगूठी का प्रयोग भी बहुत सार्थक है। जैसे अंगुली में पहनी हुई अंगूठी अंगुली के साथ एक रूप हो जाती है, उसका अलग से अहसास नहीं रहता, उसी प्रकार आत्म ज्ञान भी वही है जो चेतना के साथ एकरूप हो जाता है अर्थात् मनु,्य को बार बार यह याद नहीं रखना पडता कि वह आत्मा है।

     चूडामणि का अर्थ ही है पवित्र सोच। चूडा का अर्थ है सिर जो सोच का वाचक है और मणि का अर्थ है स्वतः प्रकाशित अर्थात् पवित्रता। पवित्रता मणि की भाँति स्वतः प्रकाशित होती है।

     अंगूठी और चूडामणि को पहचान के रूप में भेजने का अर्थ है आत्म ज्ञान (राम) सदैव आत्म ज्ञान ही है और पवित्र सोच (सीता) सदैव पवित्र सोच ही है अन्यथा नहीं।

13 हनुमान की पूंछ और लंका का दाह

     अनेकानेक अद्भुत गुणों से सम्पन्न प्रज्ञाशक्ति का अनुपम सौन्दर्य है उसका ज्ञान जिसे कथा में हनुमान की पूंछ कहकर सम्बोधित किया गया है। प्रज्ञाशक्ति ज्ञानस्वरूप उस पूंछ से विशेष प्रेम रखती है और आवश्यकता के अनुसार इसका विस्तार भी करती है जिसे कथा में पूंछ को बढाना कहकर इंगित किया गया है। देह का अभिमानी अज्ञानी मन (रावण) अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जब कोई उपाय नहीं देख पाता, तब विकारों की सहायता लेकर इस ज्ञान को ही विनष्ट करने और लांछित करने का यथासम्भव प्रयास करता है जिसे कथा में राक्षसों द्वारा हनुमान की पूंछ में आग लगाकर हनुमान को नगर में घुमाना कहकर संकेतित किया गया है। परन्तु प्रज्ञा चूंकि मान अपमान से परे होती है, इसलिए ज्ञान की वह अग्नि अधिक प्रज्वलित होकर अभिमानी व्यक्तित्व के विनाश में ही हेतुभूत हो जाती है जिसे कथा में हनुमान द्वारा लंका का दाह कहा गया है।

कथा का अभिप्राय

*रामकथा के आधार स्तम्भ हैं राम और रावण। राम प्रतीक हैं आत्मज्ञान, आत्माभिमान के और रावण प्रतीक है देहज्ञान, देहाभिमान का। आत्मज्ञान (आत्माभिमान) का अर्थ है अपने सही स्वरूप आत्मस्वरूप (मैं चैतन्यशक्ति आत्मा हूं यह अहसास) में होना अर्थात् जब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आत्मस्वरूप को पहचान लेता है और यह भलीभाँति समझ लेता है कि मैं अजर अमर अविनाशी चैतन्यशक्ति आत्मा ही मन रूप होकर विचारों की रचना करता हूँ, बुद्धि रूप होकर निश्चय करता हूँ और चित्त रूप होकर अनुभव करता हूँ तबब वह अपने शरीर रूपी रथ का स्वामी होकर जैसा चाहे वैसा शरीर रूपी रथ का संचालन करता है अथवा जैसा चाहे वैसा अपने शरीर रूपी यन्त्र का उपयोग करता है।

*देहज्ञान(देहाभिमान) का अर्थ है स्वयं को शरीर समझना और शरीर के सम्बन्धों में बंध जाना। जब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आत्मस्वरूप को भूल जाता है, तब शरीर के ही दिखाई पडने से अपने आपको शरीर ही समझने लगता है। स्वयं को शरीर मान लेने के कार्ण वह अपनी ही विभिन्न भूमिकाओं अथवा पदों को अपना स्वरूप समझकर उनसे इतना बंध जाता है कि उन्हीं से अपने सुख दुःख को भी बांध लेता है। समस्त विकारों का मूल यह देहज्ञान(देहाभिमान ) ही है।

*स्वयं को आत्मा जानने वाला अर्थात् आत्मज्ञानी मन रूप होकर विचारों का निर्माता और नियन्ता होता है, इसलिए उसकी प्रत्येक सोच पवित्र और शुद्ध होती है। यही पवित्र शुद्ध सोच उसकी सबसे बडी शक्ति है क्योंकि इसी के सहारे आत्मज्ञानी आत्मगुणों (सुख शान्ति, शुद्धता शक्ति, प्रेम ज्ञान तथा आनन्द) को जीवन में अभिव्यक्त करता और अनुभव करता है। इस शुद्ध पवित्र सोच को ही रामायण में राम की पत्नी सीता के रूप मे चित्रित किया गया है। चूंकि पवित्रता शुद्धता ही सोच का सौन्दर्य है, इसीलिए इस पवित्र शुद्ध सोच (सीता ) को देह का अभिमानी मन (रावण) भी प्राप्त करना चाहता है। परन्तु शुद्ध पवित्र सोच (सीता) और देहाभिमान (रावण) का परस्पर सम्बन्ध संभव नहीं है क्योंकि दोनों ही ऊर्जाएँ विपरीत हैं, एकदम विरोधी हैं। पवित्रता केवल वहीं निवास करती है जहाँ आत्मज्ञान (राम) विद्यमान हैं। दोनों का सम्बन्ध प्रगाढ है। इसीलिए आत्मज्ञान के विद्यमान होते हुए जीवन व्यवहार से  पवित्रता शुद्धता का लोप अथवा हरण कभी हो नहीं सकता। आत्मज्ञानी मनुष्य की सोच सदा पवित्र ही रहेगा और पवित्र सोच आचरण को भी पवित्र ही रखेगी। अतः जीवन व्यवहार (जनस्थान पंचवटी) से पवित्रता शुद्धता (सीता) के खो जाने अथवा लुप्त होने का एक ही अर्थ है आत्म ज्ञान की अनुपस्थिति और देहाभिमान की किसी न किसी रूप से छद्मपूर्ण प्रबल उपस्थिति। आत्मज्ञान की अनुपस्थिति और देहाभिमान की छद्मपूर्ण प्रबल उपस्थिति को ही रामकथा में मारीच प्रसंग के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।

     *देहाभिमानी मन का यह स्वभाव ही है कि वह शरीर से बंधा होने के कारण सबसे पहले अपने और पराए के भेद में फँस जाता है और फिर अपने पराए का भेद ही उसे स्वार्थ की ओर धकेल देता है। स्वार्थ के परिणामस्वरूप धीरे धीरे सभी प्रकार के विकार उसकी सोच में प्रविष्ट होते हैं और अन्ततः उसकी सोच पूरी तरह अपवित्र अशुद्ध हो जाती है। सोच के अपवित्र अशुद्ध होने का अर्थ है पवित्र सोच का छिप जाना, लुप्त हो जाना, कैद हो जाना अथवा हरण हो जाना जिसे कथा में रावण द्वारा सीता का हरण और सीता का अशोकवाटिका में कैद हो जाना कहा गया है।

     *चूंकि आत्मज्ञान (राम) और पवित्रता (सीता) का अन्योन्याश्रित प्रगाढ सम्बन्ध है और दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं, इसलिए पवित्रता शुद्धता का जीवन व्यवहार से हरण आत्मज्ञानी को व्याकुल बनाता है, दुःखी करता है और आत्मज्ञानी पवित्रता को वापस लाने के लिए अत्यन्त व्यग्र भी होता है जिसे रामकथा में राम की व्याकुलता के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

     *परन्तु यह स्मरण रखना भी अत्यन्त आवश्यक है कि चार युगों के बडे चक्र में यथासमय देहाभिमान के विस्तार और आत्मज्ञान के हट जाने के कारण जीवन व्यवहार से पवित्रता शुद्धता का हरण अथवा लोप जितनी सरलता से हो जाता है, उतनी सरलता से वह शुद्धता पवित्रता वापस नहीं आ पाती। देहाभिमान के कारण अपवित्र अशुद्ध सोच का एक सघन आवरण पवित्र शुद्ध सोच को ऐसा ढंक लेता है कि यही पता नहीं चल पाता कि अब पवित्रता है कहाँ और आएगी भी कैसे ?

     *कथा संकेत करती है कि जीवन व्यवहार से लुप्त हुई और विकारों के सघन आवरण से ढंकी हुई पवित्र शुद्ध सोच (सीता) तक पहुँचने में केवल प्रज्ञा समर्थ है। प्रज्ञा निष्कम्प और निष्काम होने के कारण कामनाओं में नहीं उलझती, निःस्पृह होने के कारण सुखों में लिप्त नहीं होती, अनासक्त होने के कारण सम्बन्धों में नहीं बंधती और श्रेष्ठ सोच से युक्त होने के कारण निकृष्ट सोच का वध भी सहज रूप से कर देती है। समुद्र - लंघन की कथा के माध्यम से प्रज्ञा की इस सामर्थ्य का वर्णन सुन्दर ढंग से किया गया है।

     *अपने ही देहाभभिमानी व्यक्तित्व को टटोलने में दोषारोपण की वृत्ति भी बहुत बडी बाधा है क्योंकि इसी वृत्ति का आश्रय लेकर अर्थात् हर बात में दूसरे पर दोष मंढकर मनुष्य का अभिमानयुक्त मन कभी भी अपने भीतर, अपने व्यक्तित्व में झाँक नहीं पाता। प्रज्ञा शक्ति (हनुमान इस वृत्ति को भी धक्का देकर देहाभिमानी व्यक्तित्व में घुस जाती है जिसे कथा में लंकापुरी राक्षसी की कथा के माध्यम से व्यक्त किया गया है।

     *प्रस्तुत कथा में संकेत किया गया है कि देहाभिमान के कारण जीवन व्यवहार से लुप्त हो चुकी पवित्र शुद्ध सोच (सीता) के निकट तक पहुँचने और उसका दर्शन करने में प्रज्ञा ही समर्थ है क्योंकि प्रज्ञा ही एकमात्र वह शक्ति है जो एक ओर तो आत्मस्वरूप (राम) से जुडी रहती है तथा दूसरी ओर देहाभिमानी व्यक्तित्व (लंका) के भीतर घुसने की सामर्थ्य भी रखती है. प्रज्ञा अहंकार अथवा अहंकार से उत्पन्न हुए किसी भी विकार से प्रभावित नहीं होती। अतः वह विकारों से सर्वथा अछूती रहकर विकारों का यथासम्भव विनाश करती है।

     *कथा में कहा गया है कि प्रज्ञा शक्ति न केवल देहाभिमानी व्यक्तित्व (लंका) के भीतर घुसकर अपितु देह के अभिमानी मन तक पहुँचकर यह समझ पाती है कि देह का अभिमानी मन अपवित्र सोच रखने के कारण यद्यपि कर्म भी अपवित्र (स्वार्थादि से प्रेरित) ही करता है, परन्तु किसी न किसी तर्क का सहारा लेकर सदैव स्वयं को सही ठहराता है और सुख से, आराम से रहता है। सुख के इस क्षेत्र को ही कथा में अशोकवाटिका कहा गया है।

     *यह सत्य है कि मनुष्य का अशुद्ध आचरण ही उसे बेचैन करता है और वही बेचैनी मनुष्य को अपने विकार तक पहुँचने तथा विनाश के लिए प्रेरित भी करती है परन्तु प्रबल देहाभिमानी मन जब स्वयं को सदा सही ठहराकर आराम से रहने लगता है, तब किसी प्रकार की कोई बेचैनी या व्याकुलता न होने के कारण ही पवित्र सोच की शक्ति (सीता) जीवन व्यवहार से अनुपस्थित होकर कैद में पडी रह जाती है जिसे कथा में अशोकवाटिका में सीता का कैद हो जना कहा गया है।

     *प्रस्तुत कथा में इस सत्य का भी उद्घाटन किया गया है कि जीवन व्यवहार से अनुपस्थित हुई शुद्ध पवित्र सोच (सीता) भले ही कैद में पडी हो, मलिन हो, बेबस हो, विकारों से घिरी हो परन्तु जीवित होने के कारण एक न एक दिन निश्चित रूप से उस कैद से उसकी मुक्ति सम्भव है। हनुमान द्वारा सीता को दिए गए मुक्ति के आश्वासन के रूप में इसी तथ्य को इंगित किया गया है।

     *कथा में कहा गया है कि देह के अभिमानी मन (रावण) की कैद में पडी हुई शुद्ध पवित्र सोच (सीता) की मुक्ति हेतु सबसे पहली आवश्यकता है उन मान्यताओं, धारणाओं, कल्पनाओं, पक चुके विचारों अथवा संस्कारों को विनष्ट करना जिनका सहारा लेकर देह का अभिमानी मन प्रत्येक अनुचित कर्म (मानसिक वाचिक तथा कायिक) को उचित ठहराता हुआ सुखपूर्वक रहता है। प्रज्ञाशक्ति ही दृढीभूत मान्यताओं, धारणाओं, कल्पनाओं तथा सुदृढ संस्कारों को तोडती है और देहाभिमानी मन के द्वारा निर्मित किए हुए सुख के क्षेत्र को विनष्ट करती है जिसे कथा में हनुमान द्वारा अशोकवाटिका तथा चैत्यप्रासाद का विध्वंस कहकर इंगित किया गया है।

     *मान्यताओं, धारणाओं के टूटने से देह के अभिमानी मन (रावण) का विचलित होना स्वाभाविक है। मन के विचलित होने पर प्रतिक्रियास्वरूप विभिन्न विकार बाहर निकलते हैं जिन्हें कथा में रावण के मंत्री, पुत्र तथा सेना आदि के रूप में चित्रित किया गया है। प्रज्ञाशक्ति उन सभभी विकारों का विनाश करके अभिमानी मन को कमजोर करने का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती है।

     *प्रज्ञा का सौन्दर्य और शक्ति है उसका ज्ञान, जो सदैव उसके साथ, उसके पीछे पीछे विद्यमान रहता है। देह का अभिमानी मन (रावण) अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु जब कोई सुदृढ उपाय नहीं पाता, तब विकृत विचारों के सहारे इस ज्ञान को ही लांछित करने का प्रयास करता है। परन्तु ज्ञान तो ऐसी अग्नि है जो प्रज्वलित होकर व्यक्तित्व में निर्मित हुए सभी सुदृढ विकारों को भस्म कर देती है। कथा में हनुमान द्वारा लंका का दाह  कहकर इसी तथ्य को निरूपित किया गया है।

     *सार रूप में यह कहा जा सकता है कि अनेक अनेक जन्मों की लम्बी यात्रा में मनुष्य के भीतर देहाभिमान का जो संस्कार प्रबल रूप में निर्मित हो गया है, उसे सीधे सीधे विनष्ट करना सम्भव नहीं है। चित्त अर्थात् अवचेतन मन में विद्यमान मान्यताएँ, धारणाएँ तथा संस्कार देहाभिमान को पुष्ट करते हैं, अतः देहाभिमान को विनष्ट करने से पहले चित्त में विद्यमान उन मान्यताओं, धारणाओं, संस्कारों को विनष्ट करना अति आवश्यक है।

     *स्वयं को पहचानकर और शरीर का मालिक बनकर जब मनुष्य हर कदम पर ज्ञानपूर्वक आचरण करता है, तब उसके भीतर जो विशिष्ट समझ (प्रज्ञा ) पैदा होती है, वही समझ चित्त में विद्यमान मान्यताओं, धारणाओं और संस्कारों का विनाश करके देहाभिमान के प्रबल संस्कार को कमजोर करती है और पवित्रता को वापस लाने में कारणभूत हो जाती है। यह विशिष्ट समझ , प्रज्ञा ही रामकथा में महाबली हनुमान के रूप में चित्रित है।

प्रथम लेखन 21-5-2014 ई.(ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् 2071)

 

The Power of Wisdom through the Story of Hanumana

-         Radha Gupta

Hanumana crossed the ocean and after pushing demoness Lankapuri, entered into Lanka> He wandered here and there in search of Sita but failed. At last he reached in Ashoka Vatikaa and saw Sita surrounded by several demonesses. Somehow, he managed to talk to Sita and returned after consoling her that she will soon be liberated.

     He destroyed trees, ponds, theatres and mountains in Ashoka Vatika and broke a big castle nearby. Hearing this news, Ravana became angry and sent several demons to kill him. But Hanuman killed all the demons. At last, Indrajit came, bound him and produced him before Ranana. Hanumana suggested to Ravana to release Sita but on hearing this, Ravana got angry and ordered his demons to kill Hanumana. At last, when his  tail was put on fire, Hanumana liberated himself, climbed on several castles and burnt all of them.

     This story describes the power of wisdom symbolized as Hanumana.

     It says that wisdom is the only power which is capable of searching purity stolen by ego, and disappeared from life. For this purpose wisdom first enters in the realm of ego symbolized as Lanka. Then it concentrates on the mechanism of ego and finds that ego(the egoistic mind) symbolized as Ravana has created a comfort zone around himself. This egoistic mind thinks impurely, behaves wrongly but justifies all his wrongs as right. This is a big illusion which makes him comfortable and he never feels sorrow for his all wrong thoughts and deeds.

     In this condition, purity of thoughts and deeds symbolized as Sita remains hidden, never manifests in life and lies in dormant state for ever symbolized as Sita imprisoned in Ashoka Vatika.

     Wisdom surely knows that this mechanism of ego has been created by his own beliefs and sanskaras embedded in deeper mind, therefore it becomes necessary to destroy them first. As a result, wisdom starts destroying them symbolized as the destruction of Ashoka Vatika and Chaitya – Praasaada by Hanumana.

     Now destruction of beliefs and sanskaras makes ego (egoistic mind) uncomfortable and in this state of discomfort many many vices come out which are symbolized as the ministers, sons and army of Ravana.

     The story points out that wisdom is the only power which one by one, overpowers all the vices, In its presence, the thought of me and mine finishes, symbolized as Jambumali, selfish thoughts diminishes which is symbolized as Aksha Kumara and anger which also comes and tries to bind wisdom also fails. Wisdom, posing as bound now directly faces ego, i.e., Ravana and requests him to liberate purity, i.e., Sita. But ego remains adamant and tries to kill wisdom using the weapon of ignorance. In this condition, knowledge emerges and burns all the big thoughts of ego such as ego of name, fame, roles, relations, designations and possessions. This is symbolized as the burning of big castles of Lanka by the burning tail of Hanumana.

हनुमान का संभावित वैदिक स्वरूप

-         विपिन कुमार

हनुमान शब्द वैदिक साहित्य में प्रकट नहीं होता। लेकिन वाल्मीकि ने अपनी रामायण की रचना में हनुमान को रामायण का एक प्रमुख पात्र बनाया है, इसलिए ऐसा भी नहीं हो सकता कि हनुमान पात्र अवैदिक हो। अतः यह समझना होगा कि हनुमान पात्र के माध्यम से वैदिक वाङ्मय के किस दृष्टिकोण को पुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है।

              कर्मकाण्ड में धान्य को पहले उखल मुसल द्वारा कूट कर उसका छिलका उतार दिया जाता है और फिर उसे दृषद उपल(लौकिक भाषा में सिल-बट्टा) पर रखकर पीसने का अभिनय किया जाता है (स्वयं दृषद उपल को भी कृष्णाजिन पर रखा जाता है जिससे वह पृथिवी को हानि न पहुंचाए)। पीसते समय उसमें जल मिलाया जाता है और मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है प्राणाय त्वा अपानाय त्वा व्यानाय त्वा इत्यादि। कर्मकाण्ड में दृषद उपल को हनु का प्रतीक कहा गया है। और दृषद पृथिवी का तथा उपल द्यौ का प्रतीक है। इन दोनों को बीच जिह्वा स्थित होती है जिसे कर्मकाण्ड में शम्या कहा जाता है। दृषद और उपल द्वारा जो कुछ पीसा जाता है, शम्या उसका आस्वादन करती रहती है। शम्या का अर्थ है जिसका शमन अपेक्षित है। लेकिन शमी के संदर्भ में एक दूसरा अभिप्राय भी ब्राह्मण ग्रन्थों में दिया गया है। अग्नि बहुत तेज जल रही थी। शमी के माध्यम से उस अग्नि का शमन किया गया जिससे वह बहुत अधिक न जला डाले। योग में हमारे शरीर में दो जिह्वाएं कही गई हैं एक मुख की जिह्वा और दूसरी उपस्थ की जिह्वा(शिश्न)। यह अपेक्षित है कि मुख की जिह्वा द्वारा उपस्थ की जिह्वा उत्तेजित न होने पाए। यदि हनुमान का अर्थ हनु पर नियन्त्रण करने वाला है तो उसके चरित्र में यह विशेषता होनी चाहिए। क्या इस जिह्वा को हनुमान की पुच्छ कहा जा सकता है, यह विचारणीय है। राक्षस तो हनुमान की पुच्छ में आग लगा देते हैं जिससे सारी लंका जल जाती है। दैनिक जीवन में यह अपेक्षित है कि उदर की अग्नि शिश्न तक पहुंचे, उसे जलाए। तभी वह शुद्ध वीर्य का जनन कर सकता है। लेकिन यह एक कठिन कार्य है। सभी सम्प्रदायों के नग्न साधु इस कार्य को करने में समर्थ होते हैं और उनके शिश्न को देखकर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। पुच्छ का विस्तार हमारे मूलाधार चक्र के अन्तर्गत आने वाले शरीर के भागों जैसे पाद आदि तक भी किया जा सकता है। हमारी उदर की अग्नि या जाग्रत चेतना इन भागों को छुए, यह भी एक बहुत कठिन कार्य है। अतः यदि राक्षस गण हनुमान की पुच्छ में आग लगा देते हैं तो योगी के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आग लगे तो सही। यदि लग गई तो सारे पाप नष्ट हो जाएंगे। राक्षसों द्वारा पुच्छ में आग लगाने का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि जिह्वा का कार्य जठराग्नि का शमन करने का होता है, उसे प्रदीप्त करने का नहीं। यदि जिह्वा के द्वारा कोई कामों का उद्दीपन करे तो वह आसुरी पक्ष है।

अञ्जना

टिप्पणी : यद्यपि काशकृत्स्न धातु कोश में अज धातु की व्याख्या में अञ्जन शब्द का उल्लेख नहीं है, लेकिन साधना का मार्ग तभी प्रशस्त होता है जब अञ्जना की व्युत्पत्ति अज धातु से हो। तब अञ्जना की साधना को अथर्ववेद . की अज पञ्चौदन को पकाने की साधना मान सकते हैं। अञ्जना अद्रिका के सम्बन्ध के लिए अद्रिका पर टिप्पणी द्रष्टव्य है।

                                  त्रैककुद अञ्जन को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोश मनोमय कोश तीन ककुद हैं। आनन्दमय कोश में स्थित शिव की शक्ति जब कपि रूपी मनोमय कोश में अवतरित होती है तो उससे कुरूप हनुमान का जन्म होता है जिसे अञ्जना पर्वत से नीचे फेंक देती है। हनुमान की साधना शिव के वीर्य को मनोमय, प्राणमय अन्नमय कोश में अवतरित कराने की साधना है। इसे दूसरा त्रैककुद कह सकते है

 

              हनुमान का एक परोक्ष अर्थ धनुमान भी किया जा सकता है। मुख में जिह्वा को भी धनुष का तीर कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से धनुष हो सकते हैं। एक धनुष चक्षुओं के पक्ष्मों (भौंहों) से भी बनता है जिसका मध्यम भाग भ्रूमध्य की ज्योति होता है। हनुमान की कथा में कहा गया है कि हनुमान माता अञ्जना ने अपने सारे शरीर को कानों तक जड बना लिया। तब वायु ने कानों के माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश किया जिससे हनुमान का जन्म हुआ। इसका अभिप्राय यह होगा कि यदि हम अपने मुख से भोजन लेना और नासिका से श्वास लेना किसी प्रकार बन्द कर सकें तो फिर सूक्ष्म प्राण कर्णों के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। उस समय हो सकता है कि जो धनुष हमारे शरीर में निष्क्रिय अवस्था में पडे हैं, वह सक्रिय बन जाते हों। हनुमान द्वारा जब बाल सूर्य को खाने का प्रयत्न किया गया, तब सूर्य ने वज्र मारा जिससे हनु नष्ट हो गया। इसका दूसरा अभिप्राय यह भी हो सकता है कि अब हनु स्वयं वज्र बन गया है।

प्रथम लेखन 25-4-2014ई. (वैशाख कृष्ण द्वादशी, विक्रम संवत् 2071)

 

संदर्भ

*वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज ।

वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्न् अमित्रस्याभिदासतः ॥३॥ शौ.अ. 1.21.3

*सं ते हन्मि दता दतः समु ते हन्वा हनू ।

सं ते जिह्वया जिह्वां सं वास्नाह आस्यम् ॥३॥ - शौ.अ. 6.56.3

*यत्ते शिरो यत्ते मुखं यौ कर्णौ ये च ते हनू ।

आमिक्षां दुह्रतां दात्रे क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥१३॥ - शौ.अ. 10.9.13

*अध रात्रि तृष्टधूममशीर्षाणमहिं कृणु ।

हनू वृकस्य जम्भया स्तेनं द्रुपदे जहि ॥८॥ - शौ.अ. 19.47.8

*हन्वोर्हि जिह्वामदधात्पुरूचीमधा महीमधि शिश्राय वाचम् ।

स आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तरपो वसानः क उ तच्चिकेत ॥७॥ - शौ.अ. 10.2.7

*मस्तिष्कमस्य यतमो ललाटं ककाटिकां प्रथमो यः कपालम् ।

चित्वा चित्यं हन्वोः पूरुषस्य दिवं रुरोह कतमः स देवः ॥८॥ - शौ.अ. 10.2.8

*वि शत्रून् वि मृधो नुद वि वृत्रस्य हनू रुज । वि मन्युम् इन्द्र भामितो ऽमित्रस्याभिदासतः ॥ - तै.सं. 1.6.12.5

*दं̇ष्ट्राभ्याम् मलिम्लूञ् जम्भ्यैस् तस्कराम्̇ उत हनूभ्याम्̇ स्तेनान् भगवस् तांस् त्वं खाद सुखादितान् ॥ - तै.सं. 4.1.10.2

*वाजम्̇ हनूभ्याम्  अप आस्येन ।   आदित्याम्̇ छ्मश्रुभिस् ।     उपयामम् अधरेणोष्ठेन तै.सं. 5.7.12.1

*आज्येन व्याघारयति  तेजो वा आज्यम्  प्राणा उपरवाः प्राणेष्व् एव तेजो दधाति  हनू वा एते यज्ञस्य यद् अधिषवणे।  न सं तृणत्ति ।  असंतृण्णे हि हनू तै.सं. 6.2.11.3

*दद्भ्यः स्वाहा     हनूभ्याम्̇ स्वाहा     ष्ठाभ्याम्̇ स्वाहा तै.सं. 7.3.16.3

*दद्भ्यः स्वाहा हनूभ्याम्̐ स्वाहा_इत्य् अङ्गहोमाञ् जुहोति । अङ्गे_अङ्गे वै पुरुषस्य पाप्मा_उपश्लिष्टः । - तै.ब्रा. 3.8.17.4

 

*अथ दृषदमुपदधाति । धिषणासि पर्वती प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्त्विति धिषणा हि पर्वती हि प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्त्विति तत्संज्ञामेवैतत्कृष्णाजिनाय च वदति नेदन्यो ऽन्यं हिनसाव इतीयमेवैषा पृथिवी रूपेण मा.श. 1.2.1.15

*अथ शम्यामुदीचीनाग्रामुपदधाति । दिव स्कम्भनीरसीत्यन्तरिक्षमेव रूपेणान्तरिक्षेण हीमे द्यावापृथिवी विष्टब्धे तस्मादाह दिव स्कम्भनीरसीति मा.श. 1.2.1.16

*अथोपलामुपदधाति । धिषणासि पार्वतेयी प्रति त्वा पर्वती वेत्त्विति कनीयसी ह्येषा दुहितेव भवति तस्मादाह पार्वतेयीति प्रति त्वा पर्वती वेत्त्विति प्रति हि स्वः संजानीते तत्संज्ञामेवैतद्दृषदुपलाभ्यां वदति नेदन्योऽन्यं हिनसात इति द्यौरेवैषा रूपेण हनू एव दृषदुपलेजिह्वैव शम्या तस्माच्छम्यया समाहन्ति जिह्वया हि वदति मा.श. 1.2.1.17

 

 

*अथाधिषवणे फलके उपदधाति । रक्षोहणौ वां वलगहना उपदधामि वैष्णवी इति हनू हैवास्यैते अथ पर्यूहति रक्षोहणौ वां वलगहनौ पर्यूहामि वैष्णवी इति दृंहत्येवैने एतदशिथिले करोति अथाधिषवणं परिकृत्तं भवति । सर्वरोहितं जिह्वा हैवास्यैषा तद्यत्सर्वरोहितं भवति लोहिनीव हीयं जिह्वा तन्निदधाति वैष्णवमसीति वैष्णवं ह्येतत् अथ ग्राव्ण उपावहरति । दन्ता हैवास्य ग्रावाणस्तद्यद्ग्रावभिरभिषुण्वन्ति यथा दद्भिः प्सायादेवं तत्तान्निदधाति वैष्णवा स्थेति वैष्णवा ह्येत एतदु यज्ञस्य शिरः संस्कृतम् मा.श. 3.5.4.22

 

ता हैकेऽनन्तर्हितास्त्रिवृद्वतीभ्यामुपदधति । जिह्वाहनू इति वदन्तो याश्चतुर्दश ते हनू याः षट्सा जिह्वेति न तथा कुर्यादति ते रेचयन्ति यथा पूर्वयोर्हन्वोरपरे हनू अनूपदध्याद्यथा पूर्वस्यां जिह्वायामपरां जिह्वामनूपदध्यात्तादृक्तद्यत्राहैव शिरस्तदेव हनू तज्जिह्वा मा.श. 8.4.4.9

 

*दक्षिणत उ हैक उपदधति । तदेताः पुण्या लक्ष्मीर्दक्षिणतो दध्मह इति तस्माद्यस्य दक्षिणतो लक्ष्म भवति तं पुण्यलक्ष्मीक इत्याचक्षत उत्तरत स्त्रिया उत्तरतआयतना हि स्त्री तत्तत्कृतमेव पुरस्तात्त्वेवैना उपदध्याद्यत्राहैव शिरस्तदेव हनू तज्जिह्वाथैताः पुण्या लक्ष्मीर्मुखतो धत्ते तस्माद्यस्य मुखे लक्ष्म भवति तं पुण्यलक्ष्मीक इत्याचक्षते मा.श. 8.4.4.11

*चत्वारो ह्यत्र युक्ता भवन्ति द्वौ होतारौ द्वावध्वर्यू  पवेर्नु शक्वेव हनूनि कल्पयन्नह्नोरन्तौ व्यतिषजन्त धीराः  न दानवा यज्ञियं तन्तुमेषां विजानीमो विततं मोहयन्ति नः  पूर्वस्याह्नः परिशिंषन्ति कर्म तदुत्तरेणाभिवितन्वते अह्ना। मा.श. 11.5.5.13

  सोमयाग में तीन सवन प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन और तृतीयसवन होते हैं। इसके अतिरिक्त, प्रातःसवन से पूर्व प्रातरनुवाक्, आश्विन शस्त्र आदि होते हैं जिन्हें हनु कहा गया है। उपरोक्त कथन के सायण भाष्य में कहा गया है कि पवि वज्र को कहते हैं तथा शक्व वज्र की शक्ति को। वज्र की शक्ति को हनु कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त कथन से हनु की एक परोक्ष व्युत्पत्ति मिलती है अह व हनु। जो कार्य अह में नहीं किया जा सकता, उसका सम्पादन हनु द्वारा किया जाता है। प्रातरनुवाक् उस समय सम्पादित होता है जब पक्षी भी नहीं चहचहाते। इसमें आत्मा की उस आवाज को सुनना होता है जो बहुत सूक्ष्म होती है। दो अहों पूर्व व उत्तर,  के बीच हनु की स्थिति होती है। जिस संकल्प को आज, पूर्व अह में पूरा नहीं किया जा सका, उसको उत्तर अह में पूरा करना होता है।

*सारस्वतीं मेषीमधस्ताद्धन्वोः  स्त्रीरेव तदनुगाः कुरुते तस्मात्स्त्रियः पुंसोऽनुवर्त्मानो भावुकाः  - मा.श. 13.2.2.4

*अथातः पशोर्विभक्तिस्तस्य विभागं वक्ष्यामो हनू सजिह्वे प्रस्तोतुः श्येनं वक्ष उद्गातुः कण्ठः काकुद्रः प्रतिहर्तुर्दक्षिणा श्रोणिर्होतुः सव्य ब्रह्मणो दक्षिणं ऐ.ब्रा. 7.1

सामवेद गायन में पांच भक्तियां होती हैं हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन। छान्दोग्य उपनिषद में इन भक्तियों को विभिन्न उदाहरणों द्वारा समझाया गया है। एक उदाहरण है सूर्य के उदित होने का। सूर्य के उदय से पूर्व की स्थिति हिंकार है, उदय के समय की स्थिति प्रस्ताव, मध्याह्न की स्थिति उद्गीथ, अपराह्न की प्रतिहार व अस्त की निधन। दूसरा उदाहरण है सूर्य के उदित होने से पूर्व की स्थिति अज है, उदय के समय की स्थिति अवि है, मध्याह्न की स्थिति गौ है, अपराह्न की स्थिति अश्व और अस्त स्थिति पुरुष। ऐतरेय ब्राह्मण का उपरोक्त कथन यह संदेह उत्पन्न करता है कि हनुमान कहीं प्रस्ताव भक्ति तो नहीं है। प्रस्ताव से पूर्व हिंकार स्थिति होती है जो सूर्य की अनुदित अवस्था है। इसकी तुलना अज भक्ति से भी की जाती है। अज को हनुमान की माता अञ्जना कहा जा सकता है।