PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(Suvaha - Hlaadini)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Suvaha - Soorpaakshi  (Susheela, Sushumnaa, Sushena, Suukta / hymn, Suuchi / needle, Suutra / sutra / thread etc.)

Soorpaaraka - Srishti   (Soorya / sun, Srishti / manifestation etc. )

Setu - Somasharmaa ( Setu / bridge, Soma, Somadutta, Somasharmaa etc.)

Somashoora - Stutaswaami   ( Saudaasa, Saubhari, Saubhaagya, Sauveera, Stana, Stambha / pillar etc.)

Stuti - Stuti  ( Stuti / prayer )

Steya - Stotra ( Stotra / prayer )

Stoma - Snaana (  Stree / lady, Sthaanu, Snaana / bath etc. )

Snaayu - Swapna ( Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc.)

Swabhaava - Swah (  Swara, Swarga, Swaahaa, Sweda / sweat etc.)

Hamsa - Hayagreeva ( Hamsa / Hansa / swan, Hanumaana, Haya / horse, Hayagreeva etc.)

Hayanti - Harisimha ( Hara, Hari, Harishchandra etc.)

Harisoma - Haasa ( Haryashva, Harsha,  Hala / plough, Havirdhaana, Hasta / hand, Hastinaapura / Hastinapur, Hasti / elephant, Haataka, Haareeta, Haasa etc. )

Haahaa - Hubaka (Himsaa / Hinsaa / violence, Himaalaya / Himalaya, Hiranya, Hiranyakashipu, Hiranyagarbha, Hiranyaaksha, Hunkaara etc. )

Humba - Hotaa (Hoohoo, Hridaya / heart, Hrisheekesha, Heti, Hema, Heramba, Haihai, Hotaa etc.)

Hotra - Hlaadini (Homa, Holi, Hrida, Hree etc.)

 

 

हरि का वैदिक दृष्टिकोण

फतहसिंह व श्रद्धा चौहान

वेद में जहां हरि शब्द सोम के लिए प्रयुक्त हुआ है, वहीं इन्द्र के हरियों की भी चर्चा है। प्रायः वे द्विवचनान्त(हरी) रूप में अभिहित हुए हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में उनका समीकरण मनुष्य व्यक्तित्व के पूर्व और अपरपक्ष, ऋक् और साम, द्यौ और पृथिवी, अहोरात्र अथवा दर्श और पूर्णमास नामक युग्मों के साथ किया जाता है। कहीं-कहीं इन्द्र के दो से अधिक हरयः का उल्लेख भी हुआ है। इन्द्र सैंकडों और सहस्रों हरयः से युक्त कहा गया है। इन्हीं हरयः का केन्द्रीभूत रूप हरिः(एकवचन) है, जबकि इन सबकी समष्टि का ऊर्ध्वगामी तथा अधोगामी प्रवाह द्विवचनान्त ही नामक अश्वद्वय के रूप में कल्पित हुआ है।

     हरि शब्द पर आश्रित इसी प्रकार के वैविध्य का विचित्र वर्णन उस हरिस्तुति में प्राप्त है जो ऋग्वेद १०.९६ में सर्वत्र अनेक रूपों में वर्णित है—

प्र ते॑ म॒हे वि॒दथे॑ शंसिषं॒ हरी॒ प्र ते॑ वन्वे व॒नुषो॑ हर्य॒तं मद॑म्।

घृ॒तमं न यो हरि॑भि॒श्चारु॒ सेच॑त॒ आ त्वा॑ विशन्तु॒ हरि॑वर्पसं॒ गिरः॑॥(१)

सूक्त का प्रारम्भ हरियों द्वारा सेवित एक ‘चारु घृतम्’  से होता है जिसे द्वितीय मन्त्र में ‘हरि योनिम्’ कहा गया है। इसे हरियों द्वारा पूरित किया जाता है और इस प्रकार उपलब्ध ‘हरिवन्तं शूषम्’ की अर्चना इन्द्र के निमित्त होती है।

हरिं॒ हि योनि॑म॒भि ये स॒मस्व॑रन् हि॒न्वन्तो॒ हरी॑ दि॒व्यं यथा॒ सदः॑।

आ यं पृ॒णन्ति॒ हरि॑भि॒र्न धे॒नव॒ इन्द्रा॑य शू॒षं हरि॑वन्तमर्चत॥(२)

सो अ॑स्य॒ वज्रो हरि॑तो॒ य आ॑य॒सो हरि॒र्निका॑मो॒ हरि॒रा गभ॑स्त्योः।

द्यु॒म्नी सु॑शि॒प्रो हरि॑मन्यु॒सायक॒ इन्द्रे॒ नि रू॒पा हरि॑ता मिमिक्षिरे॥(३)

इस हरि के कारण ही इन्द्र का वज्र ‘हरित’ और ‘हरिर्निकामः’ है जिसका निर्माण हरित अश्व ‘हरिमन्युसायक’ इन्द्र के भीतर करते हैं(मं. ३)।

दि॒वि न के॒तुरधि॑ धायि हर्य॒तो वि॒व्यच॒द्वज्रो॒ हरि॑तो॒ न रंह्या॑।

तु॒ददहिं॒ हरि॑शिप्रो॒ य आ॑य॒सः स॒हस्र॑शोका अभवद्धरिंभ॒रः॥(४)

इन्द्र ‘हरिशिप्र’ है जो अहि का वध करता है और सहस्रतेजधारी होकर ‘हरि’ का भरण करने वाला कहलाता है(मं.४)।

त्वंत्वमहर्यथा॒ उप॑स्तुतः॒ पूर्वे॑भिरिन्द्र हरिकेश॒ यज्व॑भिः।

त्वं ह॑र्यसि॒ तव॒ विश्व॑मु॒क्थ्य१॒॑मसा॑मि॒ राधो॑ हरिजात हर्य॒तम्॥(५)

ता व॒ज्रिणं॑ म॒न्दिनं॒ स्तोम्यं॒ मद॒ इन्द्रं॒ रथे॑ वहतो हर्य॒ता हरी॑।

पु॒रूण्य॑स्मै॒ सव॑नानि॒ हर्य॑त॒ इन्द्रा॑य॒ सोमा॒ हर॑यो दधन्विरे॥(६)

इन्द्र के रथ से युक्त होने वाले हरिद्वय के साथ ही उन ‘सोमाः हरयः’ का भी उल्लेख है जो इन्द्र के लिए ‘पुरूणि सवनानि’ का विधान करते हैं(मं६)।

अरं॒ कामा॑य॒ हर॑यो दधन्विरे स्थि॒राय॑ हिन्व॒न् हर॑यो॒ हरी॑ तु॒रा।

अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भि॒र्जोष॒मीय॑ते॒ सो अ॑स्य॒ कामं॒ हरि॑वन्तमानशे॥(७)

हरि॑श्मशारु॒र्हरि॑केश आय॒सस्तु॑र॒स्पेये॒ यो ह॑रि॒पा अव॑र्धत।

अर्वद्भि॒र्यो हरि॑भिर्वा॒जिनी॑वसु॒रति॒ विश्वा॑ दुरि॒ता पारि॑ष॒द्धरी॑॥(८)

इस हरि के सम्बन्ध से ही सूक्त में हरिश्माशारुः, हरिकेशः, हरिवः, हर्यश्व, हरिशिप्रः तथा हरिपा आदि अनेक विशेषणों का प्रयोग इन्द्र के लिए हुआ है जिसके हरिद्वय आन्तरिक दुरितों(विश्वा दुरिता) से पार ले जाने वाले कहे गए हैं(मं. ८)।

 

स्रुवे॑व॒ यस्य॒ हरि॑णी विपे॒ततुः॒ शिप्रे॒ वाजा॑य॒ हरि॑णी॒ दवि॑ध्वतः।

प्र यत् कृ॒ते च॑म॒से मर्म॑ज॒द्धरी॑ पी॒त्वा मद॑स्य हर्य॒तस्यान्ध॑सः॥(९)

‘हरी’ शब्द द्वारा संकेतित आनन्दसोम के प्रवाह-युग्म को उन दो हरिणियों के रूप में कल्पित किया गया है जो स्रुवा के समान इतस्ततः गति करती हैं और बल के लिए(वाजाय) दोलन करती हैं(मं ९)।

उ॒त स्म॒ सद्म॑ हर्य॒तस्य॑ प॒स्त्यो॒३॒॑रत्यो॒ न वाजं॒ हरि॑वाँ अचिक्रदत्।

म॒ही चि॒द्धि धि॒षणाह॑र्य॒दोज॑सा बृ॒हद्वयो॑ दधिषे हर्य॒तश्चि॒दा॥(१०)

आ रोद॑सी॒ हर्य॑माणो महित्वा नव्यं॑नव्यं हर्यसि॒॑ मन्म॒ नु प्रि॒यम्।

प्र प॒स्त्य॑मसुर हर्य॒तं गोरा॒विष्कृ॑धि॒ हर॑ये॒ सूर्या॑य॥(११)

आ त्वा॑ ह॒र्य॑न्तं प्र॒युजो॒ जना॑नां॒ रथे॑ वहन्तु हरि॑शिप्रमिन्द्र।

पिबा॒ यथा॒ प्रति॑भृतस्य मध्वो॒ हर्य॑न् य॒ज्ञं स॑ध॒मादे दशो॑णिम्॥(१२)

अपाः॒ पूर्वे॑षां हरिवः सुताना॒मथो॑ इ॒दं सव॑नं॒ केव॑लं ते।

म॒म॒द्धि सोमं॒ मधु॑मन्तमिन्द्र स॒त्रा वृ॑षञ्ज॒ठर आ वृ॑षस्व॥(१३)

इस द्विविध हरिणी का अद्वैत रूप ही वह हरिणी पुरी हो सकती है जिसे पहले प्रभ्राजमाना हिरण्ययी तथा अपराजिता विशेषणों से मण्डित किया गया है। यही वह ‘सवनं केवलम्’ है जो ‘हरिवः’ इन्द्र के लिए तैयार किया जाता है और जिनमें इन्द्र ‘मधुमान् सोम’ को पीकर मस्त हो जाता है(मं. १३)।

सूक्त का प्रारम्भ हरियों द्वारा सेवित एक ‘चारु घृतम्’  से होता है जिसे द्वितीय मन्त्र में ‘हरि योनिम्’ कहा गया है। इसे हरियों द्वारा पूरित किया जाता है और इस प्रकार उपलब्ध ‘हरिवन्तं शूषम्’ की अर्चना इन्द्र के निमित्त होती है। इस हरि के कारण ही इन्द्र का वज्र ‘हरित’ और ‘हरिर्निकामः’ है जिसका निर्माण हरित अश्व ‘हरिमन्युसायक’ इन्द्र के भीतर करते हैं(मं. ३)। इन्द्र ‘हरिशिप्र’ है जो अहि का वध करता है और सहस्रतेजधारी होकर ‘हरि’ का भरण करने वाला कहलाता है(मं.४)। इन्द्र के रथ से युक्त होने वाले हरिद्वय के साथ ही इन ‘सोमाः हरयः’ का भी उल्लेख है जो इन्द्र के लिए ‘पुरूणि सवनानि’ का विधान करते हैं(मं६)। इस हरि के सम्बन्ध से ही सूक्त में हरिश्माशारुः, हरिकेशः, हरिवः, हर्यश्व, हरिशिप्रः तथा हरिपा आदि अनेक विशेषणों का प्रयोग इन्द्र के लिए हुआ है जिसके हरिद्वय आन्तरिक दुरितों(विश्वा दुरिता) से पार ले जाने वाले कहे गए हैं(मं. ८)।

     ‘हरी’ शब्द द्वारा संकेतित आनन्दसोम के प्रवाह-युग्म को उन दो हरिणियों के रूप में कल्पित किया गया है जो स्रुवा के समान इतस्ततः गति करती हैं और बल के लिए(वाजाय) दोलन करती हैं(मं ९)। इस द्विविध हरिणी का अद्वैत रूप ही वह हरिणी पुरी हो सकती है जिसे पहले प्रभ्राजमाना हिरण्ययी तथा अपराजिता विशेषणों से मण्डित किया गया है। यही वह ‘सवनं केवलम्’ है जो ‘हरिवः’ इन्द्र के लिए तैयार किया जाता है और जिनमें इन्द्र ‘मधुमान् सोम’ को पीकर मस्त हो जाता है(मं. १३)। दूसरे शब्दों में, ‘हरिणी’(हरिः नीयते यत्र) उस हिरण्यय कोशीय ब्रह्मात्म-सायुज्य का बोधक हो सकती है जहां ऊर्ध्वगामी और अधोगामी चेतनाप्रवाह समाप्त होकर उस अद्वैत चेतना सिन्धु को जन्म देते हैं जिसे ऊपर ‘हरि योनिम्’ कहा गया है और जहां निम्नस्तरीय हरयः या सोमाः का नानात्व समाप्त होकर ‘पुरूणि सवनानि’ के नानात्व को, इन्द्र के लिए होने वाले ‘सवनं केवलम्’ में परिणत कर देते हैं।

     इस प्रकार हरिस्तुति सूक्त में हरि शब्द को आधार बनाकर जिन अनेक शब्दों का निर्माण किया गया है, उन्हीं के साथ ‘हर्य’ धातु भी है जिसे धातुपाठ में गति और कान्ति(इच्छा) का द्योतक माना गया है। सूक्त में इसी धातु से निष्पन्न हर्यत, हर्यतम्, हर्यतः, हर्यते, हर्यता(हर्यतौ) आदि कईं रूप प्रयुक्त हुए हैं। यह ‘हर्य’ धातु हरिशब्द से निष्पन्न नामधातु मानी जा सकती है जिसका मूलार्थ हरि के योग्य होने की कामना हो सकता है। इस प्रकार जब सोम को ‘हर्यतं मदम्’ कहा जाता है तो उससे हमारा वह काम(प्रेम) अभिप्रेत हो सकता है जो हरि नाम आनन्द तत्त्व की प्राप्ति के लिए समर्थ माना जा सके। ऐसे ही काम को गीता में ‘धर्माविरुद्धकाम’ कहकर और भगवत्स्वरूप मानकर हरिभक्ति का समानार्थक बना दिया है। इस दृष्टि से ‘पुरूणि अस्मै सवनानि हर्यते’ कहकर इन्द्र को जिन अनेक सवनों का प्रेमी बताया गया है, उन्हें भगवत् प्रेम की भक्तिरसधाराएं मानना अधिक उपयुक्त होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘हरिस्तुति’ के अन्तर्गत स्तुत सोम को ऊपर से बरसने वाला आनन्दरूप सोम नहीं, अपितु भक्त द्वारा भगवान् को अर्पित भक्तिरस मानना चाहिए। अतः जब हरिणी को द्विविध माना जाता है तो वह अपने एक रूप में भक्ति रस को समाधिस्तरीय ‘हरि’ तक पहुंचाने वाली हरिणी कही जा सकती है तो दूसरे रूप में वह उस ‘हरि’ से आनन्दरस को नीचे लाने वाली मानी जा सकती है। इसलिए अपने अद्वैत रूप में उक्त हरिणी नामक अपराजितापुरी मनुष्य व्यक्तित्व का एक ऐसा स्वरूप प्रस्तुत करती है जिसमें भक्ति तथा आनन्दरस दोनों सम्मिश्रित होकर सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। तभी हिरण्ययकोश को स्वर्ग कहना सार्थक हो जाता है।

हारियोजन, हरियोग और हरित

     ‘हारियोजन ब्रह्माणि’ से वह अतिमानसिक अनुभूत शृंखला अभिप्रेत है जिसका सम्बन्ध पूर्वोक्त ‘हरयः’ नामक मनुष्यप्राणों से है। प्रत्येक व्यक्ति में इन्द्र के ये सहस्रों हरयः परस्पर संयुक्त होकर प्रच्छन्न रूप से जिस प्रकार से हारियोजन का निर्माण करते हैं, उसका वर्णन ऋग्वेद ६.४७.१८ में करते हुए कहा गया है –

रू॒पंरू॑पं॒ प्रति॑रूपो बभूव॒ तद॑स्य रू॒पं प्र॑ति॒चक्ष॑णाय।

इऩ्द्रो॑ मा॒याभिः॑ पुरु॒रूप॑ ईयते यु॒क्ता ह्य॑स्य॒ हर॑यः श॒ता दश॑॥

     मन्त्र के अनुसार परमेश्वर इन्द्र के उस मूल रूप का साक्षात्कार करना वांछनीय है जो नाना रूपों में पृथक्-पृथक् प्रकट हो रहा है। इस प्रकार स्वमाया से इन्द्र जिन अनेक रूपों में प्रकट हो रहा है, उनमें से प्रत्येक रूप में उसके सैंकडों हरयः संयुक्त होकर हारियोजन नामक सोमानन्द की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं। निस्संदेह इस हारियोजन अवस्था का इन्द्रकृत वृत्रवध से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वृत्र के प्रभाव से प्राणों में घोर और अघोर भेद से दो जातियां उत्पन्न हो जाती हैं जिनमें देवासुर संग्राम प्रारम्भ हो जाता है। इन्द्र प्रत्येक उग्र प्राण का दमन करता हुआ दूसरे प्रकार के प्राणों की ‘अति’ को भी दूर करता रहता है, क्योंकि वह किसी भी अतिवृद्धि का द्वेषी है। परन्तु, साथ ही दोनों का राजा होने से उन दोनों का हित चाहता हुआ समन्वयशील उन प्राणों को प्रोत्साहित करता है जिन्हें ‘मनुष्याः विशः’ कहा जाता है। ये मनुष्यप्राण ज्ञान अथवा अवबोधन से सम्बद्ध होने के कारण स्वभावतः समन्वयशील होकर हारियोजनम् के लिए उपयुक्त होते हैं।

     हारियोजन के लिए उपयुक्त होने का अर्थ है अनेक ‘हरयः’ का द्वैत में परिणत होकर भी ‘हरित’ हो जाना। इसीलिए, उक्त प्रसंग में हरयः के वर्णन के उपरान्त आगामी मन्त्र में दो हरितों की ओर भी संकेत किया गया है –

यु॒जा॒नो हरिता॒ रथे॒ भूरि॒ त्वष्टे॒ह रा॑जति।

को वि॒श्वाहा॑ द्विष॒तः पक्ष॑ आसते उ॒तासी॑नेषु सू॒रिषु॑॥ - ऋ. ६.४७.१९

     मनुष्य व्यक्तित्व रूपी रथ में जब दो हरित अश्व संयुक्त होते हैं तो उसमें इन्द्र त्वष्टा होकर विराजमान होता है। मन्त्र में वर्णित यह स्थिति ध्यानस्थ उन सूरियों(ज्ञानयोगियों) की है जिनके भीतर कोई भी द्वेषी पक्ष नहीं रह सकता। वहां अब विध्वंसक द्वेषियों के लिए कोई स्थान नहीं, क्योंकि हरित होने का अर्थ है अनात्म(असुर्य) से रहित होकर सर्वथा ‘आत्मा वै हरितम् हिरण्यम्’ की उक्ति को चरितार्थ करना। दूसरे शब्दों में, इन्द्र के जो दो अश्व(हरी) निम्न स्तरों पर पूर्वापरपक्षौ, दर्शपूर्णमासौ और द्यावापृथिवी अथवा विपक्षसा हरी कहे जाते थे, वे अब ऋक्साम(ज्ञान-भावना), का संयुक्त युग्म बनकर अन्ततोगत्वा वेद के ‘दक्षं हिरण्ययं रथे हरियोगं ऋभ्वसम्’ की विचित्र कल्पना को जन्म देते हैं। यह कल्पना वस्तुतः उस हिरण्ययकोश का तेजोमय चित्र प्रस्तुत करती है जिसे प्रारम्भ में ही ब्रह्मात्मसायुज्य का स्तर कहा जा चुका है। इसी में पूर्वोक्त सभी ‘हरयः’ (प्राणाः) का ‘हारियोजनम्’ साम होता है। यही हरियोग नाम भाव-समाधिगत आनन्दरस रूप रंहणशील(रथ) कहा जा सकता है और यही मन्त्र में वर्णित दक्ष नामक बल है। आगामी मन्त्र में इसी की प्राप्ति को समुद्र में संचरण अथवा तेज द्वारा एक ऐसे बल(सह) पर अधिरूढ होना बताया गया है जिसके कारण वह दक्ष का पति कहलाता है। यह बल वस्तुतः ब्राह्मी शक्ति है जो सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में ‘देवी तविषी’ के रूप में वर्णित हुई है, यह आत्मा रूपी इन्द्र की उसी प्रकार सेवा करती है जिस प्रकार सूर्य उषा की । सेवा के रूप में वह अन्धकार का नाश और प्रकाश की बृह्द्रेणु को गति प्रदान करता है। तदुपरान्त वृत्र-वध, आपः का प्रकटीकरण आदि जो भी इन्द्र के वीर कर्म वर्णित हुए हैं, वे सभी उक्त हिरण्यय रथ अथवा हरियोग नामक दक्ष बल के हैं जिसे अन्यत्र इन्द्र का ‘हिरण्ययः वज्रः’ संपादित करता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि इस प्रसंग में रथ का अभिप्राय हिरण्ययकोश की आनन्दज्योति है न कि कोई वाहन। यह रथ हरित रथ भी कहलाता है। उसमें आसीन होने के लिए परमेश्वर इन्द्र का आह्वान करते हुए कहा जाता है –

अ॒यं ते॑ अस्तु हर्य॒तः सोम॒ आ हरि॑भिः सु॒तः.

जुषा॒णः इ॑न्द्र॒ हरिभिर्न॒ आ ग॒ह्या ति॑ष्ठ॒ हरि॑तं॒ रथ॑म्॥ - ऋ. ३.४४.१

प्रस्तुत मन्त्र के अनुसार इन्द्र को हरित रथ पर आरूढ होने के लिए आमन्त्रित करने से पूर्व हरियों ने हर्यत सोम का अभिषवण कर लिया था। इस प्रकार यहां पर हरि शब्द के सजातीय चार शब्दों का प्रयोग करके जो आलंकारिक चमत्कार उत्पन्न किया गया है, उसी का वितान सूक्त के आगामी मन्त्रों में दृष्टिगोचर होता है। द्वितीय ऋचा में हर्यश्व इन्द्र से उषा के अर्चन द्वारा ‘विश्वाः श्रियः’ के वर्धन की प्रार्थना की गई है--

ह॒र्यन्नु॒षस॑मर्चयः॒ सूर्यं॑ ह॒र्यन्न॑रोचयः।

वि॒द्वांश्चि॑कि॒त्वान् ह॑र्यश्व वर्धस॒ इन्द्र॒ विश्वा॑ अ॒भि श्रियः॑॥

तृतीय ऋचा में हरिधायस द्यौ तथा हरिवर्पस् पृथिवी रूप में दो हरितों(अश्वों) को धारण करने वाला कहा गया है जिनके ‘भोजन’ को उन दोनों के भीतर विचरण करने वाला ‘हरि’ धारण करता है—

द्यामिन्द्रो॒ हरि॑धायसं पृथि॒वीं हरि॑वर्पसम्।

अधा॑रयद्ध॒रितो॒र्भूरि॒ भोज॑नं॒ ययो॑र॒न्तर्हरि॒श्चर॑त्॥

 चतुर्थ ऋचा में जायमान वृषा ’हरितः’ विश्व(आन्तरिक जगत्) को प्रकाशित करता है और वह ‘हर्यश्व’ इन्द्र अपनी दोनों भुजाओं में जिस वज्र को धारण करता है, वह भी ‘हरित ‘ और ‘हरि’ कहा गया है—

ज॒ज्ञा॒नो हरि॑तो॒ वृषा॒ विश्व॒मा भा॑ति रोच॒नम्।

हर्य॑श्वो॒ हरि॑तं धत्त॒ आयु॑ध॒मा वज्रं॑ बा॒ह्वोर्हरि॑म्॥

 सूक्त के अन्त में इन्द्रायुध को ‘हर्यन्तम् अर्जुनं वज्रम्’ कहकर शुक्र रश्मियों द्वारा आवृत्त बताया गया है, वह हरिरूप अद्रियों द्वारा अभिषुत सोम है, इन्द्र गायों के साथ उसे हरियों की सहायता से उद्घाटित करता है—

इन्द्रो॑ ह॒र्यन्त॒मर्जु॑नं॒ वज्रं॑ शु॒क्रैर॒भीवृ॑तम्।

अपा॑वृणो॒द्धरि॑भि॒रद्रि॑भिः सु॒तमुद् गा हरि॑भिराजत॥

     सम्पूर्ण सूक्त को उद्धृत करने का अभिप्राय यह बतलाना है कि हरि तथा उसके सजातीय जो अन्य शब्द यहां प्रयुक्त हुए हैं, वे सभी उसी आन्तरिक प्रकाश की ओर संकेत करते हैं जिसे पूर्व में ‘आत्मा वै ज्योतिर्हिरण्यम्’ कहा गया है। इन शब्दों में जिस हर्य क्रिया का प्रयोग हुआ है, उसके अर्थ(कामना अथवा प्रेम) से यहां आध्यात्मिक कामना अथवा प्रेम संकेतित प्रतीत होता है। इस प्रकार इन्द्र, इन्द्रवज्र, सोम आदि के लिए प्रयुक्त हरि शब्द को उसी ब्रह्मात्मसायुज्य से उद्भूत आध्यात्मिक शक्ति का द्योतक मानना होगा जो मनुष्य के हिरण्ययकोश से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। इसी निष्कर्ष पर हम पूर्व अध्याय में नवम मण्डल के हरिस्तुति सूक्त पर विचार करते हुए पहुंचे थे, किन्तु यहां पर हरि तत्त्व के साथ गो तत्त्व का हरियों द्वारा उद्घाटित किया जाना विचारणीय बिन्दु है।

हरियोग सम्पन्न व्यक्तित्व(गृत्समद, ऋग्वेद २.१८.७)

‘मम ब्रह्म इन्द्र’ कहकर ऋषि अपने उपास्य देव का आह्वान कर रहा है। वह न केवल हरिद्वय को रथ से युक्त करने का आग्रह करता है, अपितु उन सभी ‘हरयः’ को भी संयुक्त करने की प्रार्थना करता है जिनकी संख्या १०० तक है। उसकी उत्कट अभिलाषा है कि ब्रह्म इन्द्र का सख्य उसे प्राप्त होता रहे, ताकि वह ब्रह्म की दक्षिणा(दक्षता) का दोहन करता रहे। यहां संकेत यह है कि जिस हर्ष या आनन्द का इच्छुक गृत्समद है, वह सोम है। साथ ही, वह जिन इष्टियों और मतियों द्वारा रथ को गतिशील करना चाहता है, वे ही रथ के अश्वों (हरयः) के रूप में कल्पित किए गए हैं। अतः समस्त हरियों को रथ से युक्त करने का अर्थ है—हरियोग की वह स्थिति जिसमें सोम स्वयं हरि हो जाता है। दूसरे शब्दों में, उप्रयुक्त नव मनुष्यरथ व्यष्टिगत इन्द्र(आत्मा) का वह हरियोग सम्पन्न व्यक्तित्व है जो अपने ब्रह्म-इन्द्र के लिए भक्ति रस(सोम) को प्रस्तुत करके ब्रह्मसायुज्य द्वारा ब्राह्मी दक्षता का दोहन करना चाहता है। इसका तात्पर्य है कि गृत्समद स्वयं व्यष्टिगत इन्द्र का प्रतीक है; इस निष्कर्ष की पुष्टि उस आख्यान द्वारा भी की जा सकती है जो ऋग्वेद २.१२ के प्रसंग में बृहद्देवता तथा ब्राह्मणों से उद्धृत किया गया है। इस आख्यान में गृत्समद वेशधारी इन्द्र परमेश्वर की कल्पना की गई है, क्योंकि वस्तुतः प्रत्येक व्यष्टिगत आत्मा(इन्द्र) में समष्टिगत इन्द्र(परमात्मा) की छाया होती है, परन्तु छद्मवेश में उसे यह स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता होती है कि वह इन्द्र नहीं है, अपितु इन्द्र तो वह है जिसने वृत्र, शम्बर आदि का वध किया तथा अन्य अनेक पराक्रम दिखाए।

हरियोग सम्पन्न व्यक्तित्व(वामदेव)

     गृत्समद के समान ही, वामदेव ऋषि भी मनुष्य के हरियोग सम्पन्न व्यक्तित्व का प्रतीक कहा जा सकता है। जहां गृत्समद जिस सोम का इच्छुक है, उसे मद नाम दिया गया है, वहां वामदेव ऋषि उसी सोम को ‘वाम’ नाम से अपना उपास्य बनाए हुए है। उसके नाम(वामदेव) का रहस्य यही है। जब तक उसने वाम को अपना देव(उपास्य) नहीं बनाया था, तब तक जो दुर्दशा युक्त जीवन था, उसका परिचय कराते हुए वह बताता है कि उस समय उसकी भार्या(तनु) को भी अपमानित होना पडा था। वह स्वयं इतना दरिद्र था कि उसे ‘शुनः अन्त्राणि’ पकानी पडी थी(ऋग्वेद ४.१८.१३)। अब वामदेव होकर हरियोग की स्थिति प्राप्त करने के कारण उसका प्राणरूप श्येन ही उसके लिए मधु(सोम) ले आया। इस प्रसंग में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऋग्वेद ४.२७ का प्रथम मन्त्र है जहां वामदेव उत्तम पुरुष के क्रियापद द्वारा स्पष्टतः स्वयं को ही सोम लाने वाले श्येन के रूप में स्वीकार करता है—

श॒तं मा॒ पुर॒ आय॑सीररक्ष॒न्नध॑ श्ये॒नो ज॒वसा॒ निर॑दीयम्।

पूरवः

- - इस प्रकार सक्रिय होकर जो प्राण मनुष्य व्यक्तित्व को सर्वथा परिपूर्ण करने में लग जाते हैं, वे ही निघण्टु की मनुष्य-नाम सूची में पूरवः नाम से सम्मिलित हैं। ये पूरवः प्राण वरणीय कहे जाते हैं क्योंकि वे इन्द्रार्थ सोमाभिषवण से संयुक्त हैं जो उस योग की विशेषता है और जिसमें पूर्वोक्त हरिद्वय भी इन्द्र में लीन हो जाते हैं। यह सोमाभिषवण उस भक्तिरस के उद्रेक का वाचक है जो भाव-समाधि में उत्पन्न होता है। इससे युक्त व्यक्ति को वेद में एक ऐसा राजा कहा गया है जिसमें इन्द्र तीव्र सोम पीता है और ‘क्षितीः’ प्राणों को प्राप्त होकर वृत्रवध कर देता है। इस घटना के फलस्वरूप इन्द्र मनुष्य के क्षेम और योग दोनों का पोषक हो जाता है। इस प्रकार वह उसके योगक्षेम का एक साथ सञ्जयन करने लगता है। यह उभयात्मक सञ्जयन तभी सम्भव है जब सभी हरयः हरिद्वय में परिणत होकर योग-साधना रूपी रथ को वहन करने लगें और परमेश्वर इन्द्र अपनी अर्वाक् गति द्वारा व्यक्ति का प्रिय सम्पादन करने के लिए सन्नद्ध हो –

  हरी॒ रथे॑ सु॒धुरा॒ योगे॑ अ॒र्वाक् इन्द्र॑ प्रि॒या कृ॑णुहि हू॒यमा॑नः – ऋग्वेद ५.४३.५

     हरयः, हरितः और हरि शब्दों में अन्तर को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। ऋग्वेद की ऋचाओं के अनुसार हरयः द्वारा केवल हरि या सोम का शोधन हो सकता है(ऋग्वेद ९.९६.२ इत्यादि)। हरितः सूर्य के लिए ईं शक्ति के वाहक हैं(ऋग्वेद ७.६०.३, १०.३१.८)। वे श्येन जैसे हैं। हरि अवस्था आह्लाद की वर्षा कर सकती है(द्र. ऋग्वेद ७.१०.१, ९.२.६, ९.५.९ इत्यादि में हरि का वृषा विशेषण)। अब हम समझ सकते हैं कि लोकभाषा में जब कोई हरि ओम तत्सत् कहता है तो उसका क्या अर्थ हो सकता है। ईम् को ऊर्जा को ऐसा रूप समझा जाता है जो ऊपर की ओर गति करती है, जबकि ऊम् को ऊर्जा का वह रूप समझा जाता है जो नीचे की ओर गति करता है। ऋग्वेद १०.१०१.१० में हरि ईम् का भी उल्लेख है।

हरिणी

ब्रह्म की अपराजितापुरी के लिए सोम वाचक हरि शब्द से निष्पन्न हरिणी विशेषण का प्रयोग विशेषतः महत्त्वपूर्ण है।‘हरी’ शब्द द्वारा संकेतित आनन्दसोम के प्रवाह-युग्म को उन दो हरिणियों के रूप में कल्पित किया गया है जो स्रुवा के समान इतस्ततः गति करती हैं और बल के लिए(वाजाय) दोलन करती हैं(मं ९)। इस द्विविध हरिणी का अद्वैत रूप ही वह हरिणी पुरी हो सकती है जिसे पहले प्रभ्राजमाना हिरण्ययी तथा अपराजिता विशेषणों से मण्डित किया गया है। यही वह ‘सवनं केवलम्’ है जो ‘हरिवः’ इन्द्र के लिए तैयार किया जाता है और जिनमें इन्द्र ‘मधुमान् सोम’ को पीकर मस्त हो जाता है(मं. १३)। दूसरे शब्दों में, ‘हरिणी’(हरिः नीयते यत्र) उस हिरण्यय कोशीय ब्रह्मात्म-सायुज्य का बोधक हो सकती है जहां ऊर्ध्वगामी और अधोगामी चेतनाप्रवाह समाप्त होकर उस अद्वैत चेतना सिन्धु को जन्म देते हैं जिसे ऊपर ‘हरि योनिम्’ कहा गया है और जहां निम्नस्तरीय हरयः या सोमाः का नानात्व समाप्त होकर ‘पुरूणि सवनानि’ के नानात्व को, इन्द्र के लिए होने वाले ‘सवनं केवलम्’ में परिणत कर देते हैं।

उपरोक्त लेख डा. श्रद्धा चौहान द्वारा लिखित “मानव व्यक्तित्व की वैदिक गवेषणा” पुस्तक(गवेषणा प्रकाशन, जोधपुर, २००३) से उद्धृत है।

HARI

Shraddha Chauhan and Fatah Singh

17E/257, Nandanvana, Chaupaasani, Jodhpur, India 342008

 

The word Hari has been used in Vedas for soma( Rigveda 9.2.6,9.3.3,59 etc.). The word seems to be derived from the root Hree, to fetch. There are general expressions of two Haree of Indra, who are the carriers of his chariot. These carriers or horses are quoted as a doublet by the word Haree iti  ( At other places, like Nighantu 1.15, Haree have been stated to be carriers of  chariot of Indra, Haritaah of Sun and Rohitah of Agni ). In Brahmanic literature, these haris have been equated with the lower and higher aspects of human individuality( Shadvimsha Brahman 1.1), the duals of  Rik and Saama( Shatapath Brahmana 7.9.4.2), Heaven and Earth( Taittiriya Samhita 7.9.4.2), Day and Night( Jaiminiya Brahman 2.79) or with full and new moons( Taittiriya Samhita 2.5.6.2-3). At other places in Rigveda, there is also mention of more than 2 haris of Indra( Harayah). Indra has been said to be associated with hundreds and thousands of haris( Jaiminiya Upnishad Brahmana 1.14.3.5). The integrated form of these horses is Hari in singular form, while the upward and downward motion of the totality of Harayah has been considered as Haree iti in duality. Such type of description of multiplicity in integrity is also available here and there in the mantras of Sukta or prayer of Hari( Rigveda 10.96).

          There are many words in the mantras of Hari Sukta which have been formulated on the basis of word Hari. One such word is Harya which is symbolic of motion and luster according to the meaning of wordroots( Dhatu patha 1.344). This prayer also contains many other words derived from this root, like Haryata, Haryatam, Haryatah, Haryate, Haryatau. This Harya root may be considered to mean a desire to be able to be of use to Hari. Thus, when soma is called Haryatam madam, this may mean that love  or desire which is able to attain that element of happiness which is called Hari.

 

HARAYAH, HAARIYOJANA, HARIYOGA AND HARITA

          In Nighantu or the book of words of Rigveda, Harayah word has been classified under the synonyms for man, and like at so many other places in this classical book, this classification has been a puzzle for vedic scholars. In the mantras of  Rigveda, these harayah, if  one is able to unite them with the chariot of Indra, can purify soma, and also bring Indra to drink soma at the place where soma is being purified. In every human being, these Harayah of Indra combine mutually to form the Haariyojan, as in Rigveda 6.45.18 :

Roopam roopam pratiroopo babhuuva tadasya ruupam pratichakshanaaya. Indro maayaabhih pururoopa eeyate yuktaa hyasya haryah shataa dasha.

          According to this mantra, it is desirable to realize that form of God  which is manifesting in different forms. To realize this, Indra can transform himself in different forms by his illusion or Maayaa when hundreds of Harayah get united to generate the condition of happiness of saama, called Haariyojana.

          In Rigveda 2.18.3-5, there is an imagination of a chariot which is drawn by desires and emotions. These can be called the real Harayah. In this sukta, not only two, but even hundreds of harayah are supposed to be united with the chariot. The meaning of uniting all the Harayah with chariot is that state of Hariyoga where soma itself becomes Hari.  In other words, the above human chariot is an individuality of individualized Indra or Aatma which is full of Hariyoga, one who wants to milk the divine power by becoming one with God. It is to be kept in mind that in Vedas, one is Indra as an individuality and the other is an Indra as a totality. Indra as individuality is an image of the Indra of totality. The examples of individuals who have attained Hariyaga can be given as seers Gritsamada and Vaamdeva of Rigveda.

          The image formed in the above paragraph about the mysterious meaning of Harayah seems to get confirmed from the following mantra of Taittiriya Samhita 4.2.9.6:

Tasmintsuparno madhukrit kulayee bhajannaste madhu devataabhyah. Tasyaasate harayah sapta teere swadhaam duhaanaa amritsya dhaaraam.

The meaning is that there is a main hawk who collects nectar for gods and seven harayah are sitting beside him milking swadhaa or the power to sustain the basic life.

          One further development of Harayah state appears in the word Harita. Many Harayah combine to form a doublet called Harita, as in Rigveda 6.47.19 :

Yujaano haritaa rathe bhuri twashteh raajati. Ko vishwaahaa dvishatah paksha aasate uta aaseeneshu suurishu.

          Thus when two Harita horses are united to the chariot of human individuality, Indra sits on it as Twashta. This is the condition of those individuals who are sitting in trance, who have no side of despise within themselves. This freedom from despise is attained because the meaning of Harita is – to be free from Asurya, to make the saying of Aatma vai haritam hiranyam ( Kaathak Samhita 10.4) true by all means. In other words, those two horses of Indra( Haree iti) which were called upper and lower levels, full and new moon, Heaven and Earth or horses on either side, they now unite as Rik and Saama( Shatapath Brahmana 4.4.3.6), perhaps symbolic of knowledge and emotion. They may give rise to the strange imagery of daksham mahe paayayate hiranyayam rathamaavrityaa hariyogamribhvasam( Rigveda 1.56.1). This imagination presents a picture of that hiranyaya kosha which is called the level of oneness with God. Here is formed the Haariyojanam saama of all the earlier Harayah. The Hariyoga name may be called the chariot of happiness of emotional trance. This chariot is also called the Harita ratha( Rigveda 3.44.1) :

Ayam te astu haryatah soma aa haribhih sutah. Jushanah indrah harihbir na aa gahya tishtha haritam ratham.

          According to this mantra, before inviting Indra to sit on Harita ratha, Harayah had already purified the haryata soma. In this mantra, 4 words with similarity to Hari have been used. In the next mantra, it is prayed that after attainment of Haryata stage, one has to appease Usha or the god of dawn, to make the sun illuminate etc. In the next mantra, Indra is said to hold two horses, one of which is heaven called haridhaayasam and the other is the earth called harivarpasam or the roopa of Hari. Indra gains sufficient food from these 2 horses, when Hari goes inside these two( Rigveda 3.44.3). In 3.44.5, the weapon of Indra has been called as haryantam arjunam vajram which is surrounded by white rays. This has been unveiled by the purification of soma by purifying stones named Harayah. The verb harya which is the base of all the words used here, symbolizes the spritual love or emotion.

          The difference between the words Harayah, Haritaah and Hari should be clearly understood. According to rigvedic mantras, Harayah can only purify Hari or soma etc( Rigveda 9.96.2 etc). Haritah can carry eem power to sun( Rigveda 7.60.3, 10.31.8). They are like hawks( Jaiminiya Brahamana 3.84). Hari is a state which can shower happiness etc( see adjective vrisha of  Hari in Rigveda 7.10.1, 9.2.6, 9.5.9 etc.). Now one can guess what does it actually mean when in common parlance one says Hari Om Tat Sat. Eem is considered as some form of energy which goes upwards, while uum is considered to come down. In Rigveda 10.101.10, there is a reference of Hari eem also.

HARINI

The other word in Vedas which is similar to Hari is Harini. In Shaunak Samhita of Atharvaveda 10.2.33 :

Prabhraajamaanaam harineem yashasaa sampareevritaam. Puram hiranyayeem brahmaaviveshaaparaajitaam.

          This Harini which is full of lights has been called the abode Aparaajitaapuri of Brahammaa. This is also called the Hiranyaya kosha. This word also appears in Rigveda 10.96.9. Here Harini iti appears as a word in duality form. These two harinis move to acquire vaaja or some power. The non – duality of this dual Harini iti appears to form the singular form which is Aparaajitaapuri of Brahamaa in Atharvaveda. The word meaning of Harini is – Harih neeyate yatra – where Hari is carried out.

 

REFERENCES

Shraddha Chauhan

Vedic Exploration of Human Individuality (In Hindi)

( Gaveshna Prakashan, 17E/257, Nandanvan, Chaupaasani, Jodhpur, India 342008)

 

 

पुराणों में हरि

टिप्पणी : पुराणों में सार्वत्रिक रूप से हरि की निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि जो तीनों लोकों के दुःखों का हरण कर ले, वह हरि है। यह दुःखहरण किस प्रकार संभव है। वैदिक साहित्य में कहा गया है कि सूर्य ब्रह्माण्ड से हरण का कार्य अपनी रश्मियों द्वारा करता है। रश्मियां ही उसके अश्व हैं। मर्त्य स्तर पर आत्मा सूर्य रूप है और इन्द्रियां उसके अश्व हैं। यह भी उल्लेख है कि जो हरण का कार्य सूर्य अपनी रश्मियों द्वारा करता है, वही कार्य गज अपनी शुण्ड द्वारा करता है। अतः मर्त्य स्तर पर गज सूर्य का वाचक है।

सोमयाग के अन्त में हारियोजन ग्रह नामक कृत्य होता है जिसमें उन्नेता नामक ऋत्विज द्रोणकलश को अपने सिर पर रखकर उससे सीधे अग्नि में सोम की आहुति देता है। उसके पश्चात् सोमकलश में धान डालकर ऋत्विक् गण भक्षण करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि ऋक् और साम इन्द्र के हरिद्वय हैं जिनको अपने रथ में जोड लेने की इन्द्र से प्रार्थना की जाती है(योजा न्विन्द्र ते हरी- ऋ. १.८२)। अन्यत्र (तैत्तिरीय संहिता २.५.६.२ में दर्श और पूर्णमास को इन्द्र के हरिद्वय कहा गया है। इनमें दर्श वाक् है जो ददृश समान है(प्रायः अदृश्यसम रहती है, शकुन आदि के रूप में कभी – कभी प्रकट होती है)। पूर्णमा मन है(प्रायः दृश्यमान रहता है)। कौशीतकि ब्राह्मण १७.१ का कथन है कि प्राण ही हरि है। इसका अर्थ यह हुआ है कि प्राण सूर्य या हरि का रूप है और मन व वाक् उसके हरि-द्वय या अश्व-द्वय हैं। इस प्रकार सूर्य-पृथिवी- चन्द्रमा का त्रिक् या संवत्सर या चक्र बनता है(प्राण, मन, वाक् = सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी) । इसका तात्पर्य यह हुआ कि भोजन आदि आहरण के लिए केवल प्राण का, क्षुधा का सक्रिय होना ही पर्याप्त नहीं है, मन और वाक् भी पूर्णतः सक्रिय हो जाने चाहिएं, अन्यथा आहरण में त्रुटि हो सकती है। ऐसा हरि ही दुःखों का हरण कर सकता है।      

पुराणों में हरि शब्द को बहुत मह्त्त्व दिया गया है और कहा गया है कि हरि की अर्चना विष्णु की अर्चना से अधिक मह्त्त्वपूर्ण है । डा. फतहसिंह के अनुसार वैदिक मन्त्रों में यह ध्यान देने योग्य होता है कि मन्त्र में कोई शब्द एक वचन में प्रकट हुआ है या द्विवचन में या बहुवचन में । एकवचन में प्रकट हुआ शब्द सर्वोच्च स्थिति को प्रकट करता है । यही तथ्य पुराणों में प्रकट हरि शब्द पर भी लागू होता है । वाल्मीकि रामायण में सुग्रीव आदि वानरों के लिए हरि शब्द बहुवचन में प्रकट हुआ है (हरयः) । वाली और सुग्रीव को हरि – द्वय (हरी इति) कहा जा सकता है । इससे ऊपर एकवचन में हरि शब्द है जो विष्णु का द्योतक है ।

     हरि शब्द का महत्त्व जानने के लिए हरि के बहुवचन रूप का रहस्य समझना होगा । हरियों या वानरों को कपि भी कहा जाता है । पुराणों में कपि शब्द का अर्थ कम्पन लिया जाता है – वह जो जड जगत में कम्पन उत्पन्न कर दे, जड जगत में चेतना उत्पन्न कर दे । डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार सारा जड जगत उच्चतर अव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है, वह अवस्था जहां विश्व की सारी ऊर्जा अनुपयोगी हो जाएगी । वह प्रलय की अवस्था होगी । लेकिन चेतन जगत इस विश्व को उच्चतर स्तर की ओर ले जाने का प्रयास कर रहा है जहां अव्यवस्था में ह्रास होता है, व्यवस्था में वृद्धि होती है । अतः सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि हम जड हुए व्यक्तित्व में चेतन का विकास करना सीखें, उसे कपि बनाना सीखें । उदाहरण के रूप में, यदि कोई भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट नहीं लग रहा है तो यह स्वर्णिम अवसर है कि हम भोज्य पदार्थ को अपनी चेतना के अनुरूप बना लें । एक बार चेतना का विकास हो जाने के पश्चात् भोजन को समग्र चेतना के साथ एकाकार करना पडता है जो हरि बनने के समकक्ष है ।

     वैदिक साहित्य में इन्द्र के रथ में दो हरियों को जोडा जाता है जिसे याज्ञिक कर्मकाण्ड में हारियोजन ग्रह कहा जाता है । दो हरि कौन से होते हैं, इसकी विभिन्न प्रकार से कल्पना की गई है । प्रायः ऋक् व साम, या प्रकृति व पुरुष या रथन्तर और बृहद् आदि को इन्द्र के दो हरी कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि पौराणिक भाषा में हरि – द्वय के रूप में वाली और सुग्रीव वानर – द्वय का वर्णन किया गया है । सुग्रीव का अर्थ होता है सु – ग्रीव, अच्छी ग्रीवा वाला । सोमयाग के आरम्भ में प्रवर्ग्य कर्म होता है जिसमें अतिरिक्त ऊर्जा द्वारा यज्ञ के शिर का निर्माण किया जाता है । इसे प्रवर्ग्य कहते हैं जिसका रूप विशाल ज्वाला के रूप में समझा जा सकता है । कहा गया है कि ऊर्जा से पूर्ण इस शिर को स्थापित करने के लिए सशक्त ग्रीवा की आवश्यकता होती है । और ग्रीवा ही नहीं, सम्पूर्ण शरीर इस योग्य होना चाहिए कि इस अतिरिक्त ऊर्जा का वहन कर सके । इस हेतु सोमयाग में प्रत्येक प्रवर्ग्य के पश्चात् उपसद इष्टि का विधान है । कहा गया है कि उपसद इष्टि द्वारा प्रवर्ग्य रूपी सूर्य को इस योग्य बनाया जाता है कि वह संवत्सर का रूप धारण कर ले। संवत्सर का अर्थ होता है जब सूर्य पृथिवी और चन्द्रमा को अपने परितः परिक्रमा करने के लिए बाध्य कर दे । अथवा जब मन और वाक् प्राण के परितः केन्द्रित हो जाएं । तब संवत्सर के अंग ऋतु, मास, वर्ष आदि प्रकट होने लगते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जिस अवस्था में सूर्य का विकास तो हो जाए लेकिन संवत्सर न बन सके, उसे वाली अवस्था कहा गया है । वाल शब्द का अर्थ मण्डल होता है । वाल का अर्थ बाल भी होता है, सूर्य की बाल अवस्था । डा. फतहसिंह वाल का अर्थ बिखरा हुआ लेते हैं । वैदिक साहित्य में अवि के बालों से बने कम्बल से सोम छानने का कृत्य किया जाता है ।

     पौराणिक साहित्य में धर्म और मूर्ति के चार पुत्रों के रूप में नर, नारायण, हरि व कृष्ण के नाम आते हैं । नर व नारायण को नरौ कहा जाता है । वैदिक साहित्य में हरि व नरौ को सम्बद्ध करने वाला कोई प्रत्यक्ष संदर्भ नहीं मिलता ( वैदिक निघण्टु में हरयः को मनुष्य नामानि में परिगणित किया गया है ) । विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.१५१.३ में चतुरात्मा हरि के दो रूपों का उल्लेख है – एक है – नर, नारायण, हय व हंस। दूसरा है – नर, नारायण, हरि व कृष्ण। यह संकेत करता है कि जो सम्बन्ध कृष्ण व हरि में है, वही सम्बन्ध हंस व हय में भी होना चाहिए। प्रायः आत्मा के शुद्ध रूप को हंस कहा जाता है। हंस रूपी आत्मा के लिए हय रूपी इन्द्रियां विषयों का आहरण करती हैं। इसी प्रकार कृष्ण के लिए हरि द्वारा भी विषयों का आहरण होना चाहिए। हंस के संदर्भ में यह उल्लेख आता है कि मत्स्य रूप धारी पौण्ड्र नामक असुर हंस मुनि का निगरण कर सकता है। भागवत पुराण ११.५.२३ में कृतयुग में हंस रूप और त्रेता में हरि रूप का उल्लेख आता है ।

पुराणों में हरि व कृष्ण के युगल के संदर्भ में, ऋग्वेद १.१६४.४७ में एक कृष्ण पथ का उल्लेख आता है जिसका अनुसरण करके हरि रूपी सुपर्ण स्वर्ग को जाते हैं और वहां से घृत लाकर पृथिवी पर उसका वर्षण करते हैं (इस मन्त्र का मह्त्त्व इस तथ्य से आंका जा सकता है कि इसकी पुनरावृत्ति अथर्ववेद तथा अन्य स्थानों पर हुई है ) । अथर्ववेद शौनक संहिता १३.३.१६ में हरयः को द्युलोक में सूर्य के लिए शुक्र का वहन करने वाला कहा गया है (शुक्रम् वहन्ति हरयो रघुष्यदो देवं दिवि वर्चसा भ्राजमानम् ) । तैत्तिरीय संहिता ३.१.११.४ में कृष्ण वर्ण हरियों का उल्लेख है ( असितवर्णा हरयः सुपर्णा मिहो वसाना दिवमुत्पतन्ति ) ।

     ऋग्वेद के मन्त्रों में हरी इति के विशेषण के रूप में वृषणा शब्द का प्रायः उल्लेख आता है (उदाहरण के लिए, ऋग्वेद 2.16.6, 3.35.5 इत्यादि ) और हरि के लिए वृषा विशेषण आता है (उदाहरण के लिए, ऋग्वेद 6.82.1, 6.86.31, 6.86.44 इत्यादि )। ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में इसे हरिवर्ष का रूप दे दिया गया है । पुराणों में हरिवर्ष में प्रह्लाद द्वारा नृहरि या नृसिंह रूप की अर्चना के उल्लेख आते हैं । प्रह्लाद को एक विशेष आनन्द की, आह्लाद की स्थिति के रूप में समझा जा सकता है जो मनुष्य के सर्वोच्च कोश, हिरण्यय कोश से उत्पन्न होती है । इसका संकेत प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु के माध्यम से दिया गया हो सकता है ।

     भागवत पुराण ११.२ में योगी हरि निमि नामक नृप को उपदेश देते हैं । उपदेश का सार यह है कि केवल ईश्वर की अर्चना ही पर्याप्त नहीं है । ईश्वर की अनुभूति उसकी सृष्टि में भी होनी चाहिए। उसकी सृष्टि से व्यवहार करते समय प्रेम, मैत्री, कृपा व उपेक्षा नामक 4 लक्षणों का उल्लेख किया गया है –

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च । प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ।। अर्थात् ईश्वर से प्रेम, उसके भक्तों से मैत्री, बालिशों पर कृपा व द्वेष करने वालों की उपेक्षा । बौद्ध साहित्य में यह चार लक्षण मैत्री , करुणा, मुदिता व उपेक्षा के रूप में प्रकट हुए हैं । इन 4 लक्षणों का वैदिक मूल क्या है, यह अन्वेषणीय है । हरि के संदर्भ में मैत्री गुण इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि रामायण की कथा में राम ने सुग्रीव हरि से मैत्री स्थापित की । वैदिक साहित्य में मरुतों को इन्द्र के सखा कहा जाता है । मरुद्गण मर्त्य स्तर के देवता हैं जिनसे इन्द्र शत्रुता की अपैक्षा मैत्री स्थापित करता है और मरुद्गण असुरों को जीतने में इन्द्र की सहायता करते हैं । राधावल्लभ सम्प्रदाय में जिस मन्त्र का जप किया जाता है, वह यह है – जय राधावल्ल्भ जय हरिवंश । जय वृन्दावन जय वनचन्द्र । इस मन्त्र में हरिवंश नामक व्यक्तित्व को सखित्व का प्रतीक कहा गया है । भागवत के सूत्र के अनुसार ‘राधावल्लभ’ कृष्ण प्रेम का प्रतीक होना चाहिए । क्या वृन्दावन और वनचन्द्र कृपा और उपेक्षा के प्रतीक होंगे, यह अन्वेषणीय है । यह उल्लेखनीय है कि ब्रह्माण्ड पुराण २.३.७.२३४ में लगभग 110 हरियों का उल्लेख आता है जो ऋग्वेद 6.45.18(?) की संख्या से मेल खाती है ।

PURANIC VIEW OF HARI

Vipin Kumar and Radha Gupta

J-178, HIG Colony, Indore – 452011(India)

Email : ravikant60@hotmail.com

 

Puranas assign much importance to Hari and it has been said that the worship of Hari is more important than that of Vishnu. The monkeys which helped Lord Rama in reuniting with Sita are also called haris. Their leader Sugriva , who has been called a hari, has got special importance. The word meaning of Su-griva is – having a good neck. In vedic literature, griva symbolizes the inner voice(gree root means Vijnana). In Somayaga, some rituals are performed for few days before starting the yagna. These are called Pravargya and Upasada. Pravargya symbolizes attaining a state of high energy, in scientific terms, attaining a state of lower entropy. It has been said in Brahmanic literature that some firm base is required to establish this state of lower entropy, just like our head is established on neck. This base has been called Upasada in yagna. It is assumed that by Upasada ritual, which is done silently, demons are forced to leave the yagna place or vedi. This ritual can give us an idea what can be the actual purpose of haris. As has been said in vedic part of this article, the function of haris is to fetch energy from the main stream to support the self(Swadhaa). The story of Sugriva indicates that Rama has to establish friendship with Sugriva. Let the higher and lower selves be in friendship with each other. Not only that, yogi Hari in Bhaagavata purana teaches to establish 4 traits with lower self – love, friendship, compassion and neglect. This requires further explanation in future. A bigger exclamation is that vedic scholars have not yet been able to support why Harayah word has been classified under synonyms for man in vedic nighantu. But Valmiki Ramayana classifies haris under vaa-nara, one who can be a man or not a man. In classical Sanskrit, even lion, fish, tortoise etc. have been called haris. One has yet to seek a vedic explanation for this fact( Rigveda 9.89.3 refers lion as hari). May be that all those systems which can help in lowering the entropy have been classified under Harayah. 

There is a well known anecdote in vedic literature of king Harishchandra making efforts to save his son Rohita from being sacrificed for god Varun. It’s equivalent has appeared in puranas also in much detail. On delaying the sacrifice of  Rohita, Harishchandra catches the disease of water in stomach. This is significant, because if the energy or fire in the stomach which devours food gets spread in the whole body or beyond that also, then stomach fire will be dampened. The story indicates that one has to make special provisions to keep this fire in proper state. Harishchandra happens to be the god of one mantra in Rigveda  1.28.9:

Uchchishtam chamvorbhara somam pavitre aa srija. Ni dhehi goradhi tvachi.

In this mantra, it is mentioned that let one collect the leftover in yagna and reprocess it ( The verbal meaning of this is that let soma plant which has not been crushed or used in the sacrifice, be again carried back to the chariot ). So, in vedic mantra the prayer of  the seer to Harishchandra is to somehow use properly the leftover of soma. In the stories of puranas, Harishchandra has been depicted as a king who has to make special efforts to reach heaven. He has been shown as the son of Satyavrata/ Trishanku, that form of consciousness of  pure Atman which has spread in this mortal body in three states and got polluted. This further gets polluted in the form of his son Harishchandra. He has got a little power to rise upward in the form of his son Rohita. His son Rohita dies and he has to become a keeper of funeral place. In spirituality, funeral place is symbolic of burning one’s sins. Rohita is symbolic of leftover energy( uchchishta ) which again and again tries to reach back to the crescent point, but is prevented by god Indra, until he has crossed 7 stages or koshas of human inidividuality. Only then the energy which is going waste ( uchchista ) can be put in it’s proper place and can become the real uchchista which is demanded by vedic mantra( In common parlance, Rohita can be considered as the power of judging right and wrong). It can be said that only after these purification, Harishchandra can really become a Marudgana, friend of Indra, as demanded by Rigvedic mantra 9.66.26. The story of connecting Harishchandra with Rohit seems to be wonderful from vedic point of view, because in vedic mantras, Hari and Harayah have been called as hawks/suparnas. Hari is supposed to go higher and higher( Harih suparno divamaaruho archisha etc.- Atharvaveda Shounak Sam. 19.65.1). In Taittiriya Samhita 3.1.11.4, Harayah the hawks rise upto heaven and come back to earth only to quench it with ghrita/butter.

In vegetable kingdom, green color can be considered as a leftover energy, the energy which is emitted by the plants after absorbing sunlight. In creatures, their five senses can be thought of as leftover energy. It has been stated that whatever energy is reaching for working of our senses, is that energy which has not reached its crescent.. Therefore, one’s duty is to somehow arrange for transport of this leftover energy to its crescent.

            In vedic literature, there is a concept of soma, the ultimate food for gods. One is gross food which is devoured by all the creatures including man. This produces residue. On the other hand, there is the food of gods, soma, which does not generate any residue. How to acquire soma? In modern sciences, it has been found that those people who can survive without gross food have their enlarged pineal gland, the gland responsible for third eye, that can fetch rays from sun. This can be done by becoming one of the Haryah, those who can fetch soma. The fact of Harayah fetching food seems to be corroborated by the mention of food in Rigveda 3.44.3.

            In puranic literature, Dharma and her spouse Moorti are said to have four sons – Nara, Naaraayana, Hari and Krishna. Puranas consider Hari to have these four divisions. The combination of Nara and Naaraayana is called collectively as Narau. There is no direct reference in vedic literature to connect Hari with Narau. Regarding the pair of Hari and Krishna in puranas, Rigveda 1.164.47 mentions a krishna or dark path which is followed by Harayah the hawks for reaching to heaven and then they come back from there and shower ghrita on the earth( The importance of this mantra can be guessed from the frequent repetetion of this mantra in Atharvaveda and other places). In Vishnudharmottara Purana 3.151.3, Hari and Krishna have been equated with Haya and Hamsa. Haya can be understood as one which fetches food for Hamsa, the Aatman, or in other words, our senses. There is a possibility that what has been called Haree iti ( two horses) in vedic literature, can be equated with Hari and Krishna in puranas. Atharva veda Shounaka Samhita 13.3.16 refers to Harayah carrying white/shukra to the son in heaven(Shukram vahanti harayo raghushyado devam divi varchsa bhraajamaanam). Taittiriya Samhita 3.1.11.4 refers to black colored Harayah(Asitvarna harayah suparnaa miho vasaanaa divamutpatanti). This offers food for thought how Krishna of puranas and Shukra of Vedas  can be related.

 There is a general adjective Vrishnaa for Haree iti in Rigvedic mantras ( e.g. 2.16.6, 3.35.5 etc.) and Vrishaa for Hari ( Rigveda 9.82.1, 9.86.31, 9.86.44 etc). This seems to have been converted into Hari Varsha in puranic literature. Prahlaada is the devotee in Hari Varsha who  worships God in the form of Nrihari or Nrisimha. Prahlaada can be considered as a state of special joy which is produced from the highest level of human being, the Hiranyaya kosha. The outcome of this highest level seems to have been symbolized by Hiranyakashipu, the infamous father of Prahlaada. The god who saves Prahlaada is Nrihari. Nrihari word seems to contain in itself Nri or Narau and Hari. This state can also be equated with the upward and downward motions of the state of joy, as has been said for the word Haree iti in Braahmanas.

            In Bhaagvata Purana 11.2, yogi Hari gives sermons to King Nimi. The gist of the sermon is that worshipping God is not sufficient. One should feel the presence of God in his manifestations equally well. One has to adopt 4 traits called love, friendship, compassion and neglect  while dealing with his manifestation. The root of these 4 traits in vedic literature is yet to be investigated.

            It is remarkable that Brahmanda purana 2.3.7.234 gives name of approximately 110 haris which is a figure quoted in Rigveda mantra 6.45.18

 

 

For words earlier than uu, puraanic contexts and comments can be seen in the published books

1.Purana Vishay Anukramanika(a to e)

By Vipin Kumar and Radha Gupta,

(Radha Gupta, J-178, HIG Colony, Indore(M.P.), 452011, India)

2.Purana Vishay Anukramanika(ee to u)

Vipin Kumar and Radha Gupta

(Parimal Publications, 27-28, Shakti Nagar, Delhi – 110007, India)

3. Puranic Subject Index ( from a to m)

without comments

(Parimal Publications, Delhi) under print.

 

 

हरि-

. पूर्वपक्षापरपक्षौ वा इन्द्रस्य हरी ताभ्यां हीदं सर्वं हरति ,

भद्रः सोमः पवमानो वृषा हरिः काठसंक ६०

. युक्ता ह्यस्य ( इन्द्रस्य) हरयश्शता दशेति सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः ते ऽस्य युक्तास्तैरिदं सर्वं हरति तद्यदेतैरिदं सर्वं हरति तस्माद्धरयः जैउ , १५,,

. युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे शोणा धृष्णू नृवाहसा तैसं ,,२०.

. हरिं हरन्तमनुयन्ति देवा तैआ , १५, ।।

६ अहोरात्रौ वा अस्य हरी। तौ हीदं सर्वं हर्त्तारौ हरतः – जै. २.७९

७ इन्द्रमिद्धरी वहतोऽप्रतिधृष्टशवसम् – मै. १.३.३४

८ इन्द्रस्य वा एतौ हरी। यदुभे बृहद्रथन्तरे – जै १.३४३ (तु. तां ९.४.८)

९ ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी – मै. ३.१०.६, ४.७.४, . २.४, तै.ब्रा १.६.३.९

१० प्राणापानौ वा अस्य हरी तौ हीदं सर्वं हर्त्तारौ हरतः – जै. २.७९

११ हरिभ्यां त्वेन्द्रो देवतां गमयतु – तै.सं. १.६.४.३, काठ. ५.३

१२ ऋक्सामे वै हरी – मा.श. ४.४.३.६

१३ एतौ वै देवानां हरी यद् दर्शपूर्णमासौ, य एवं विद्वान् दर्शपूर्णमासौ यजते, यावेव देवानां हरी ताभ्यामेवैभ्यो हव्यं वहति – तै.सं. २.५.६.२

१४ इमे (द्यावापृथिव्यौ) वै हरी विपक्षसा – तै.ब्रा. ३.९.४.२

१५ हर्योर्धानाः – मा.श. ४.२.५.२२

१६ हर्योर्धानाः सह सोमाः – तै.सं. १.४.२८.१

१७ प्राणो वै हरिः स हि हरति – कौ.ब्रा. १७.१

हरिकेश-

अयं पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस्तस्य रथकृत्स्नश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्यौ, पुञ्जिकस्थला च कृतस्थला चा ऽप्सरसो, यातुधाना हेती, रक्षांसि प्रहेतिः मै ,, १०

. यद्धरिकेश इत्याह हरिरिव ह्यग्निः माश , , , १६ ।।

३ असौ वा आदित्यो हरिकेशः सूर्यरश्मिः पुरस्तात् – मै. ३.३.८

 

हरि-वत्-

. इन्द्राय त्वा हरिवते एष ते योनिः मै , , ३४

. हरिवद्वै त्रिष्टुभो रूपम् जै , २३ ।।

३ हरिवाँ इन्द्रो धाना अत्तु – ऐ. २.२४

हरि-वर्ण- हरिवर्णो वा एतत्पशुकामः सामापश्यत्तेन सहस्रं पशूनसृजत यदेतत्साम भवति पशूनां पुष्ट्यै तां ,,

हरि-श्री- पशवो वै हरिश्रियः तां १५.३.१० 

हरिश्री-निधन ( सामन् - हरिश्रीनिधनं भवति. पशूनामवरुध्यै श्रियञ्च हरश्चोपैति
तुष्टुवानः तां १५,.- १०

हरिण-

राष्ट्रं हरिणः माश १३,, ,

 २. हरिणो मारुतः काठ ४७, ।।

३ इन्द्रो वै यतीन्त्सालावृकेयेभ्यः प्रायछत् तेषां वा एष ब्रह्मचारी चमसाध्वर्युरासीद्योऽयं हरिणस्तस्य यः सोमपीथ आसीत्, स् स्वजोऽभवत्, तस्माद्धरिणः स्वजं खादति - - - -तस्माद्रोहीतके रोहितके स्वजः – मै ३.९.३

हरित्- दिश्- ५०; प्रजा- ५८; शक्वरी- १६ द्र

हरित-

तां (गां) देवा अदुह्र हरितेन (सुवर्णमयेन) पात्रेण यज्ञं चा ऽमृतं मै ,.१३
तां ( गां) देवा अदुह हरितेन (हिरण्मयेन) पात्रेणामृतम् मै ,,

यदग्ने रेतोऽसिच्यत, तद्धरितम् (अभवत्) काठ , ।। -- द्युम्न- ; सुवर्ण- द्र.
हरिणी (सूची-)

. ऊर्द्ध्वा हरिण्यः तै ,,,, माश १३,,१०,

. दिवो (रूपंहरिण्यः तै ,, ।।

३ विड् वै हरिणी – तै.ब्रा. ३.९.७.२

४ असौ (द्यौः) हरिणी – मै. ४.४.४, तै.ब्रा. १.८.९.१

५ हरिणी (पूः) दिवि आसीत्। - मै.सं. ३.८.१

६ हरिणीं (पुरम्) हादो दिवि (असुराः) चक्रिरे – कौ.ब्रा. ८.८, माश. ३.४.४.३