PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(Suvaha - Hlaadini)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Suvaha - Soorpaakshi  (Susheela, Sushumnaa, Sushena, Suukta / hymn, Suuchi / needle, Suutra / sutra / thread etc.)

Soorpaaraka - Srishti   (Soorya / sun, Srishti / manifestation etc. )

Setu - Somasharmaa ( Setu / bridge, Soma, Somadutta, Somasharmaa etc.)

Somashoora - Stutaswaami   ( Saudaasa, Saubhari, Saubhaagya, Sauveera, Stana, Stambha / pillar etc.)

Stuti - Stuti  ( Stuti / prayer )

Steya - Stotra ( Stotra / prayer )

Stoma - Snaana (  Stree / lady, Sthaanu, Snaana / bath etc. )

Snaayu - Swapna ( Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc.)

Swabhaava - Swah (  Swara, Swarga, Swaahaa, Sweda / sweat etc.)

Hamsa - Hayagreeva ( Hamsa / Hansa / swan, Hanumaana, Haya / horse, Hayagreeva etc.)

Hayanti - Harisimha ( Hara, Hari, Harishchandra etc.)

Harisoma - Haasa ( Haryashva, Harsha,  Hala / plough, Havirdhaana, Hasta / hand, Hastinaapura / Hastinapur, Hasti / elephant, Haataka, Haareeta, Haasa etc. )

Haahaa - Hubaka (Himsaa / Hinsaa / violence, Himaalaya / Himalaya, Hiranya, Hiranyakashipu, Hiranyagarbha, Hiranyaaksha, Hunkaara etc. )

Humba - Hotaa (Hoohoo, Hridaya / heart, Hrisheekesha, Heti, Hema, Heramba, Haihai, Hotaa etc.)

Hotra - Hlaadini (Homa, Holi, Hrida, Hree etc.)

 

 

All ancient cultures propagate that there is an ocean of consciousness which is the source of birth of all beings. Every being in this universe comes from this ocean and assimilates into it after death. According to Dr. Lakshminarayan Dhoot, vedic literature defines this ocean more precisely, saying that this ocean is the ocean of unmanifested causes. Sacred texts state that the creator, who has been named as Brahmaa or Prajaapati, creates all beings from this ocean of unmanifested causes. This statement should be understood with caution. There is creation without Brahmaa also, which is happening naturally. The presence of Brahmaa modifies the natural process in the way that he helps creation in an efficient way, where causes can be utilized for creation of a more efficient world. How Brahmaa is born, it is not much clear. But how he modifies the natural process, there are hints for it. According to one puraanic text, lord Brahmaa entered the plants in the form of antisymmetry, in conscious beings in the form of power, in humans in the form of intellect and  special accomplishments like conversion from large to small etc. In gods, Brahmaa entered in the form of nourishment. This statement can be  taken as an extension of what has been hypothesized by Gowan in modern contexts. According to him, The universe was perfectly symmetrical before big bang. After big bang, this symmetry was disturbed in matter. Matter lost it’s symmetry. But according to lady Noether, symmetry can not be destroyed, just like energy can not be destroyed. Then where is the lost symmetry hidden? According to Gowan, a part of the lost symmetry is present in the form of charge on particles of matter. This concept can be taken as the basis to explain the puraanic statement further. Gowan talks of only matter, but puraanic texts go beyond to explain the symmetry in animate beings.

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First published : 21-9-2009 AD( Aashwin shukla triteeyaa, Vikram samvat 2066)

सृष्टि विद्या

एक वैबसाईट में अमेरिका के प्राचीन निवासियों की सभ्यता तथा दर्शन का विवरण दिया गया है । इस वर्णन के अनुसार इस प्राचीन सभ्यता की मान्यता यह है कि चेतना का एक अथाह समुद्र है । इस लोक में प्राणी इसी चेतना समुद्र से आकर जन्म लेते हैं और मृत्यु के पश्चात् इसी चेतना समुद्र में मिल जाते हैं । लेकिन कुछ प्राणी जैसे कछुआ, मत्स्य आदि ऐसे भी हैं जो मृत्यु - पश्चात् इस चेतना समुद्र में नहीं सिल पाते । इसलिए इन प्राणियों की हत्या का इस सभ्यता में निषेध किया गया है । डा. लक्ष्मीनारायण धूत का कहना है प्राचीन सभ्यताओं में जो चेतना समुद्र है, वही भारतीय सभ्यता में ब्रह्म है । इसे अव्यक्त सलिल भी कहा जा सकता है ( वैदिक दर्शन में सलिल शब्द अव्यक्त आपः के लिए प्रयुक्त होता है ) । आपः व्यक्त प्राण हो सकते हैं । पुराणों में ब्रह्मा या प्रजापति का कार्य चेतना के इस अव्यक्त स्वरूप को व्यक्त करना है (वैदिक दर्शन में सृष्टि का आरम्भ प्रजापति से कहा जाता है जबकि पौराणिक साहित्य में इस सृष्टि करने वाले प्रजापति को ब्रह्मा कहा गया है ) । यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि पुराणों में ब्रह्मा शब्द से क्या तात्पर्य है । ब्रह्माण्ड पुराण १.१.३.२२ में भावों का बृंहण करने वाले, पुष्ट करने वाले को ब्रह्मा कहा गया है । कहा गया है कि वह सब देहों का अनुग्रह द्वारा आपूरण करता है । यहां देह से तात्पर्य जड पदार्थ से लिया जा सकता है और अनुग्रह से तात्पर्य चेतना से हो सकता है । अतः ब्रह्मा से तात्पर्य हुआ - जो जड पदार्थ में चेतना का संचार करता है ।

     ऊपर जिस अव्यक्त सलिल का उल्लेख किया गया है, उसके संदर्भ में कहा गया है कि यह वह अवस्था है जहां कारण और कार्य अव्यक्त अवस्था में विद्यमान हैं । इस अव्यक्त स्थिति को व्यक्त रूप में कैसे परिणत किया जा सकता है, इस संदर्भ में केवल यही कहा गया है कि सबसे पहले इस अण्ड में वह पुरा पुरुष, हिरण्यगर्भ ब्रह्म या चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुआ जिसने देखा कि इस अण्ड में सात लोक निहित हैं, समुद्रों, पर्वतों और द्वीपों सहित पृथिवी निहित है, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र निहित हैं । अधिक क्या कहें, जो कुछ भी है, वह सब इस अण्ड में निहित है । यह अव्यक्त सलिल या अण्ड बाहर से दस गुना तेज से घिरा हुआ है । तेज बाहर से दस गुना वायु से, वायु दस गुना नभ से, नभ या आकाश भूतादि से, भूतादि महत् प्रधान से । इस प्रकार यह अण्ड सात प्राकृतों से घिरा है । कहा गया है कि हिरण्यगर्भ का जन्म ऐसे होता है जैसे आकाश में बिजली चमकती है । यह बुद्धि से परे है । इसे जो जानता है, वह आयुष्मान्, कीर्तिमान्, धन्य, प्रजावान् होता है ।

     आगे कहा गया है कि प्रकृति में सत्त्व, रज और तमोगुण साम्यावस्था में विद्यमान होते हैं . जब इन गुणों में आपेक्षिक ह्रास - वृद्धि होती है, तभी सृष्टि उत्पन्न होती है । जब रजोगुण की अधिकता हो जाती है तो उससे सृष्टि होती है । जब रजो और तमोगुण की अधिकता हो जाती है तो काल या प्रलय होता है । जब सत्त्व गुण की वृद्धि होती है तो उससे पुरुषत्व का सृजन होता है । इस कथन को डा. लक्ष्मीनारायण धूत की परिकल्पना के आधार पर कुछ हद तक समझा जा सकता है । डा. धूत के अनुसार प्रकृति तीन प्रकार की है - सात्त्विक, राजस और तामस । तामस सृष्टि का विकास बहुत धीमे होता है । यह ऐसे ही है जैसे कोई शराबी अपने घर की ओर कदम बढाये लेकिन वह कभी भी अपने लक्ष्य पर, अपने घर पर नहीं पहुंच पाएगा । दूसरी स्थिति वह है जहां शराबी को थोडा होश है । वह कभी न कभी, गिर - पड कर अपने घर पहुंच जाएगा । तीसरी स्थिति वह है जहां व्यक्ति पूरी होश में है और वह अपने गन्तव्य तक पहुंच जाएगा । यह सात्त्विक प्रकृति है । इस ब्रह्माण्ड में तीनों प्रकार की प्रकृतियां विद्यमान हैं लेकिन उनमें तमोगुणी प्रकृति का ही बाहुल्य प्रतीत होता है । यह कहा जा सकता है कि जब पुराण अव्यक्त सलिल में, अण्ड में हिरण्यगर्भ की, नारायण की, पुरुष की, ब्रह्मा की उत्पत्ति का उल्लेख करते हैं, तो उससे तात्पर्य सात्त्विक प्रकार की प्रकृति में वृद्धि से हो सकता है ।

       अब तमोमयी प्रकृति का उद्धार करने का भार इस सात्त्विक प्रकृति से युक्त पुरुष पर पडता है । ब्रह्माण्ड पुराण १.१.५ में कहा गया है कि ब्रह्मा ने उस अव्यक्त सलिल में वाक् बनकर इस प्रकार विचरण किया जैसे वर्षाकाल में रात्रि में खद्योत या जुगनू विचरण करता है । उसने सलिल में डूबी हुई पृथिवी के उद्धार के लिए सोचकर यज्ञमय वाराह का रूप धारण किया । यज्ञमय से तात्प्रय यह है कि उसकी देह का प्रत्येक अवयव यज्ञ में प्रयुक्त सामग्रियों में से एक में परिणत हो गया । जैसे जिह्वा अग्नि बन गई, दन्त क्रतु बन गए, मुख जुहू नामक पात्र बन गया इत्यादि । उस यज्ञवाराह ने पृथिवी को अव्यक्त सलिल से बाहर निकाला । उस पृथिवी का उद्धार और उसके पश्चात् उस पर भू आदि चार लोकों का कल्पन करने के पश्चात् उसने उस पर प्रजा की सृष्टि की । सबसे पहले तमोमयी प्रजा की सृष्टि हुई जिसमें दुःख की बहुलता थी । उसमें न तो बाहर प्रकाश था, न अन्दर । वह निःसंज्ञ थी । यह मुख्य सृष्टि थी । इस सृष्टि के अन्तर्गत स्थावर, वृक्ष इत्यादि आते हैं । इसके पश्चात् उसने तिर्यक् स्रोत वाली प्रजा की सृष्टि की । इसमें भी तमोगुण की बहुलता थी, इस कारण इसमें अज्ञान बहुलता थी । यह सृष्टि अहंकार प्रधान थी । इस प्रजा में अन्दर प्रकाश था, लेकिन बाहर से यह अन्धकार से घिरे थे । पृथिवी पर रहने वाले प्राणी जो चल - फिर सकते हैं, इस श्रेणी में आते हैं । इसके पश्चात् ऊर्ध्वस्रोत वाली प्रजा की सृष्टि हुई । इसमें बाहर भी प्रकाश था, अन्दर भी । इस प्रजा में देवगण आते हैं । इससे ब्रह्मा संतुष्ट हो गए और उन्होंने आगे सृष्टि की नहीं सोची । इसके पश्चात् अर्वाक् स्रोत वाली सृष्टि का वर्णन है । इनमें प्रकाश की बहुलता थी जबकि किंचित् तमोगुण था और रजोगुण अधिक था । सिद्ध, मनुष्य, गन्धर्व आदि इस श्रेणी में आते हैं । इसके पश्चात् भूतों और तन्मात्राओं की सृष्टि हुई ।

     यज्ञवाराह द्वारा सलिल से पृथिवी को व्यक्त करने के वर्णन को समझने के लिए यह आवश्यक है कि यज्ञ से क्या तात्पर्य हो सकता है, इस को समझा जाए । यज्ञ की बहुत सी परिभाषाएं हो सकती हैं, लेकिन जो परिभाषा डा. फतहसिंह को प्रिय थी, वह है - यज्ञो वै श्रेष्ठतमम् कर्मं ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.१.४, शतपथ ब्राह्मण १.७.१.५ आदि )। इसका अर्थ यह हुआ कि अव्यक्त सलिल में सारे कारण अव्यक्त रूप में विद्यमान हैं । प्रकृति में जो भी घटनाएं घटित हो रही हैं, वह इन अव्यक्त कारणों के कार्य रूप में परिणत होने के कारण ही हैं । इन घटनाओँ को हम आकस्मिकता, चांस कह देते हैं । देखना यह है कि उन कारणों को श्रेष्ठतम कर्म में या कार्य में कैसे परिणत किया जा सकता है । ऐसा कार्य जिससे सात्विक गुणों में वृद्धि हो, दक्षता में वृद्धि हो, ऊर्जा का उपयोगी कार्य में अधिकतम उपयोग किया जा सके, अनुपयोगी ऊर्जा का जनन कम से कम हो । इसका सबसे पहला उपाय तो यह हुआ कि ब्रह्मा यज्ञवाराह में परिवर्तित हो गया । इसके द्वारा उसने अव्यक्त सलिल से पृथिवी का उद्धार किया । इसके पश्चात् उसने पृथिवी पर प्रजा की सृष्टि आरम्भ की । उसने तामसी, राजसी और सात्त्विक प्रकृति वाली प्रजाएं क्रमशः उत्पन्न की । इसके पश्चात् उल्लेख आता है (ब्रह्माण्ड पुराण १.१.५.६१) कि ब्रह्मा उस प्रजा में स्वयं प्रवेश कर गए । स्थावरों में उन्होंने विपर्यय के द्वारा, तिर्यकों में शक्ति के द्वारा, मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि के द्वारा तथा देवों में पुष्टि के द्वारा प्रवेश किया । श्री गोवान के अनुसन्धान के अभाव में पुराण का यह कथन उपेक्षित ही रह जाता । श्री जे. ए. गोवान के अनुसन्धानों से इस कथन की व्याख्या अन्य ही प्रकार से होती है । उनके अनुसार आरम्भ में यह विश्व सममित था, केवल ऊर्जा भाग था । ऊर्जा सममित ही होती है । फिर कोई बिग बैंग या बडा विस्फोट हुआ और इस विश्व का निर्माण हो गया । तब जड पदार्थ का निर्माण हुआ जिसमें सममिति नहीं है । लेकिन श्रीमती नोएथर की परिकल्पना के अनुसार सममिति को नष्ट नहीं किया जा सकता । अतः आभासी रूप में नष्ट हुई सममिति ब्रह्माण्ड में कहीं न कहीं विद्यमान होनी चाहिए । श्री गोवान के अनुसार जड पदार्थ के सूक्ष्म कणों इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि पर जो विद्युत आवेश विद्यमान है, यह सूर्य द्वारा जड पदार्थ में स्थापित की गई सममिति का भाग है । श्री गोवान की यह विवेचना तो जड पदार्थ के विषय में हुई । जड और चेतन, दोनों प्रकार के द्रव्यों में खोई हुई सममिति की पुनरस्थापना कैसे की जा सकती है, इसका उत्तर ब्रह्माण्ड पुराण का उपरोक्त कथन देता है । पुराण के इस कथन के अनुसार स्थावर जगत, वृक्ष आदि में ब्रह्मा ने विपर्यय के रूप में प्रवेश किया । विपर्यय का अर्थ होता है व्युत्क्रमित सममिति । अँग्रेजी में इसे इन्वर्टेड सिमीट्री कहते हैं । इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि यदि दर्पण में अपना मुख देखें तो वहां दांईं आंख बांई बन जाती है, बांई आंख दांई । हमारी देह में भी व्युत्क्रमित सममिति है । देह के आधे भाग में दूसरे आधे भाग के सापेक्ष व्युत्क्रमित सममिति है । खोई हुई सममिति को प्रत्यक्ष करने का यह पहला प्रयास है । दूसरा प्रयास तिर्यक् प्रजा में शक्ति की स्थापना के रूप में हुआ है । पौराणिक भाषा में तो शक्ति शिव की अर्द्धांगिनी कही जाती है । लेकिन संसार के प्राणियों में इस शक्ति के बिखरे हुए रूपों का दर्शन होता है । प्राणियों में काम, क्रोध, राग, द्वेष, उल्लास, हर्ष आदि सभी उस परमात्मा की शक्ति के बिखरे हुए रूप हैं जो सममिति को पूरा करते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि शक्ति के इन बिखरे हुए रूपों को एकत्र करके इन्हें पुनः परमात्मा की शक्ति बना दिया जाए । शक्ति की उपरोक्त व्याख्या के समर्थन में महाभारत शल्य पर्व में युधिष्ठिर द्वारा शक्ति से शल्य के वध का उदाहरण दिया जा सकता है । शल्य संह्राद असुर का अंशावतार है । वह मद्र देश का राजा है जहां कामुकता की प्रधानता है । शल्य में बाहु बल की प्रधानता है । युद्ध में शल्य के रथ की ध्वजा पर अग्निशिखा की भांति सौवर्णी सीता का चिह्न है । यह शल्य के चरम लक्ष्य को इंगित करता है । सारी शक्ति का अग्निशिखा की भांति ऊर्ध्वमुखी बनना अपेक्षित है ।

    इसके पश्चात् मनुष्यों में ब्रह्मा के बुद्धि और सिद्धि के रूप में प्रवेश का उल्लेख आता है । अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि ८ सिद्धियों के नाम आते हैं । अणिमा का अर्थ है अपनी देह को सूक्ष्म से सूक्ष्म बना कर अन्य भूतों में प्रवेश करने की सामर्थ्य, जो हनुमान इत्यादि में थी । लिङ्ग पुराण १.८८ के वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति के पश्चात् मनुष्य विषयों के उपभोग के लिए अपनी इन्द्रियों पर निर्भर नहीं करता । वह बिना इन्द्रियों के भी विषयों का सेवन करने में समर्थ हो जाता है । उसकी चेतना केवल अपनी देह तक सीमित नहीं रहती । वह अन्य भूतों की चेतना में भी प्रवेश कर सकता है । उनके दुःख - सुख में भागीदार बल सकता है । बहुत से सन्तों के बारे में कहा जाता है कि अमुक पशु या व्यक्ति की कमर पर कोडे पडने का जिह्न उनकी देह पर भी प्रत्यक्ष हो गया । कहा जाता है कि सांई बाबा की भूख की तृप्ति चींटियों को खिला देने मात्र से हो जाती थी । श्री रजनीश के अनुसार हमारी चेतना के उच्चतर कोशों में भी ऐसी सामर्थ्य है । अनाहत या हृदय चक्र में पहुंचने पर पहली बार ऐसी सम्भावना बनती है जो इस प्रकार होती है कि जैसे एक चेतना को बोतल में बंद कर दिया जाए और वह बोतल से इस प्रकार बाहर निकल आए कि न तो उसे बोतल के अन्दर कह सकते हैं, न बाहर । फिर अनाहत चक्र का अतिक्रमण करके विशुद्धि आदि चक्रों पर पहंचने पर चेतना अन्य भूतों में प्रवेश के लिए स्वतन्त्र हो जाती होगी ।

     बुद्धि के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है कि जब चेतना पांच इन्द्रियों तक सीमित रहती होगी तो वह बुद्धि कहलाती होगी ।

     सममिति के उपरोक्त प्रकारों के संदर्भ में यह बताना उचित होगा कि स्थावरों में जो विपर्यय या व्युत्क्रम सममिति विद्यमान है, उसके संशोधित रूप चेतना के उच्चतम स्तरों पर भी विद्यमान हैं । एक जाग्रत चेतना है, एक सुप्त चेतना । अथवा कांशस माइंड और अनकांशस माइंड । इन दोनों में व्युत्क्रम सममिति कही गई है । इसी प्रकार जाग्रत अवस्था और निद्रावस्था, रात और दिन आदि । महाभारत स्त्री पर्व १.१६ में कर्ण की मृत्यु को विपर्यय कहा गया है । कर्ण को शाप था कि अन्त समय में वह अपनी अस्त्र विद्या भूल जाएगा । यह मति विपर्यय है ।

     गणेश पुराण में उल्लेख आता है कि देवान्तक ने गणेश पर शक्ति का प्रहार किया लेकिन सिद्धियों ने आकर गणेश की रक्षा कर ली । इस आख्यान में शक्ति से तात्पर्य बिखरी हुई शक्तियों से होगा जिनसे सिद्धियां रक्षा करती हैं ।  

    इसके पश्चात् देवों में ब्रह्मा के पुष्टि रूप में प्रवेश का उल्लेख है । देवों को भोजन की आवश्यकता नहीं पडती । ऊनकी ऊर्जा का ह्रास नहीं होता । पुष्टि के विषय में अनुमान है कि देव स्थिति में जीव केवल सूर्य की किरणों से भी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ हो जाता होगा । कहा जाता है कि जो व्यक्ति भोजन नहीं करते, बिना भोजन के ही अपना जीवन यापन करते हैं, उनमें पिनियल तन्त्रिका का आकार बडा देखा गया है । गौ के स्कन्ध में किसी तन्त्रिका विशेष की स्थिति कही जाती है । गौ ही एकमात्र ऐसा पशु है जो सूर्य की किरणों से अपनी त्वचा में विटामिन डी का निर्माण कर लेता है । पुष्टि का एक दूसरा पहलू भी है । प्रायः कहा जाता है कि यज्ञ में जो आहुति दी जाती है, वह सीधे देवों तक पहुंच कर उनका भोजन बनती है, उनकी पुष्टि करती है । सोमयाग में रथन्तर और बृहत् सामों का गान होता है । रथन्तर और बृहत् सामों से क्या तात्पर्य है, यह अभी तक एक रहस्य ही रहा है । कहा गया है कि रथन्तर साम द्वारा पृथिवी अपने अन्नाद्य भाग को सूर्य और चन्द्रमा में स्थापित करती है । चन्द्रमा में जो कृष्ण भाग दिखाई पडता है, वह वही है जिसकी स्थापना पृथिवी ने अपने अन्नाद्य भाग द्वारा की है । दूसरी ओर, बृहत् साम द्वारा सूर्य अपने अन्नाद्य भाग की स्थापना पृथिवी में करता है । पृथिवी पर जो ऊषर भाग दिखाई पडता है, यह वही सूर्य द्वारा स्थापित अन्नाद्य है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर पृथिवी अपना अन्नाद्य भाग सूर्य और चन्द्रमा में किस प्रकार स्थापित कर रही है, यह बहुत स्प्ष्ट नहीं है । श्री गोवान के अनुसार पृथिवी आदि पिण्ड सूर्य से उत्पन्न ऊर्जा के ब्रह्माण्ड में विस्तार को अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति द्वारा सीमित करने का प्रयास कर रहे हैं । इससे काल का विस्तार भी सीमित हो जाता है । सूर्य और पृथिवी का तादात्म्य अध्यात्म में इस प्रकार बनाया जा सकता है कि हमारी चेतना के उच्चतर स्तर अपने भागों की स्थापना चेतना के निम्नतर स्तरों पर कर रहे हैं । श्री रजनीश ने इस तथ्य का रहस्योद्घाटन अपनी व्याख्यानमाला कुण्डलिनी और सात शरीर में बहुत सुन्दर ढंग से किया है । यदि उच्चतर स्तरों की चेतना का अवतरण स्थूल स्तर पर बाधित होता है तो पैर लडखडाने लगते हैं । लेकिन यहां भी यह तथ्य अस्पष्ट ही रह गया है कि निम्न स्तरों का उच्च स्तरों को क्या योगदान होता है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण पुराणों की केवल एक कथा में ही हो पाया है जहां राजा सुबाहु स्वर्ग जाने के पश्चात् भी क्षुधा और तृषा से ग्रस्त रहता है और जिसके शमन के लिए उसे स्वर्ग से आकर अपनी ही देह के मांस का भक्षण करना पडता है । क्षुधा से ग्रस्त रहने का कारण यह था कि उसने पृथिवी पर रहते हुए अन्नाद्य का दान नहीं किया था । यह अन्नाद्य सामवेद का रथन्तर ही हो सकता है । इसका अर्थ यह हुआ कि स्थूल चेतना अपने अन्नाद्य भाग से किसी प्रकार उच्च स्तर की चेतना को पुष्ट करती है ।

 

Comments :

Dear Sir,

Thank you for citing my work and your interest in my website. While some articles on my webpage have been updated and new articles have been added, the central motif to which you refer has not (and will not) change: "The charges of matter are the symmetry debts of light". This is my paraphrase of "Noether's Theorem" as it applies to the problem of the Unified Field Theory in modern physics. In turn, Noether's Theorem regarding the conservation of symmetry in a multicomponent field is nothing less than the mathematical formulation of John Keat's great poetic intuition (1819) in "Ode on a Grecian Urn": "Beauty is truth, Truth Beauty; This is all ye can know on Earth, and all ye need to know" -- where "beauty" = symmetry and "truth" = conservation. 

It pleases me greatly that the significance of my work for the bridging of the conceptual gap between physical and metaphysical world-views and cosmologies is recognized in your article.

Thank you again for this important citation!

Sincerely,

Mr. John A. Gowan

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 This page was last updated on 12/26/11 .