PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(Suvaha - Hlaadini)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Suvaha - Soorpaakshi  (Susheela, Sushumnaa, Sushena, Suukta / hymn, Suuchi / needle, Suutra / sutra / thread etc.)

Soorpaaraka - Srishti   (Soorya / sun, Srishti / manifestation etc. )

Setu - Somasharmaa ( Setu / bridge, Soma, Somadutta, Somasharmaa etc.)

Somashoora - Stutaswaami   ( Saudaasa, Saubhari, Saubhaagya, Sauveera, Stana, Stambha / pillar etc.)

Stuti - Stuti  ( Stuti / prayer )

Steya - Stotra ( Stotra / prayer )

Stoma - Snaana (  Stree / lady, Sthaanu, Snaana / bath etc. )

Snaayu - Swapna ( Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc.)

Swabhaava - Swah (  Swara, Swarga, Swaahaa, Sweda / sweat etc.)

Hamsa - Hayagreeva ( Hamsa / Hansa / swan, Hanumaana, Haya / horse, Hayagreeva etc.)

Hayanti - Harisimha ( Hara, Hari, Harishchandra etc.)

Harisoma - Haasa ( Haryashva, Harsha,  Hala / plough, Havirdhaana, Hasta / hand, Hastinaapura / Hastinapur, Hasti / elephant, Haataka, Haareeta, Haasa etc. )

Haahaa - Hubaka (Himsaa / Hinsaa / violence, Himaalaya / Himalaya, Hiranya, Hiranyakashipu, Hiranyagarbha, Hiranyaaksha, Hunkaara etc. )

Humba - Hotaa (Hoohoo, Hridaya / heart, Hrisheekesha, Heti, Hema, Heramba, Haihai, Hotaa etc.)

Hotra - Hlaadini (Homa, Holi, Hrida, Hree etc.)

 

 

सूचीमुखी – वानरयूथ कथा (मित्रभेदः, कथा 17)

योगशास्त्रे अयं सार्वत्रिक ज्ञानमस्ति यत् यदा कुण्डलिनी सुषुम्ना नाड्या मार्गेण देहस्य बहिः निष्क्रामति, तत्पूर्वं सा सूचिका समान तनु भवति। ततोपि पूर्वं, श्वासः सूचिका समान भवति। यत्र यत्र श्वासः देहे प्रवेशयति, तत् – तत् स्थानं धूम्रीकरोति। अन्ततः कुण्डलिनी शक्तिः सूची समान सूक्ष्म रूप धारणं कृत्वा देहस्य पारे विनिष्क्रम्य समस्त ब्रह्माण्डे विचरण कर्तुं समर्था भवति। इदानीमपि, सूचिकायाः बहवः प्रकाराः भवन्ति – स्थूल, अयोमुखी, रजता, कानिका इत्यादि(तै.ब्रा. 3.9.6.5)। योगवासिष्ठे उत्पत्ति खण्डे ३.६९ अयं विस्तारपूर्वक वर्णितमस्ति। उल्लेखमस्ति यत् सूची कारणस्य कार्य सार्धं योजनं करोति, न कोपि घटना द्यूतरूपेण घटितुं प्रतीयते।

     सुषुम्णायाः अथवा कुण्डलिनी शक्त्याः आकारं सूचीमुखं कथयन्ति। अयं कथनं आवश्यकं अस्ति, न पर्याप्तं। कारणमस्ति, जैमिनीय ब्राह्मण 2.10 मध्ये उल्लेखमस्ति यत् ओंकार एव सूची अस्ति। अयं प्रतीयते यत् यथा सूच्याः अग्रस्य आकारं बिन्दुसमानं भवति, एवं चेतनायाः आकारमपि बिन्दु समानं भवतुं शक्यते। किन्तु अयं बिन्दुः स्थानदृष्ट्या एव बिन्दु न भवति। व्यवस्था दृष्ट्या अपि अयं बिन्दु रूपः, निम्नतम एण्ट्रांपेः स्थिति। शतपथ ब्राह्मण 13.2.10.2 मध्ये उल्लेखमस्ति यत् विशः सूची भवन्ति। विशः अर्थात् विस्तृत चेतना, आवां मनः इत्यादि । सा विस्तृत, अव्यवस्थित चेतना यदा व्यवस्थितं भविष्यति, तदा सूची भविष्यति।

अयमपि सार्वत्रिक ज्ञानमस्ति यत् यदा कुण्डलिन्याः आरोहणं भवति, तदा देहे शीतलतायाः अनुभूतिः भवति। रसायनशास्त्र दृष्ट्या, अयं एण्डोथर्मिक (ऊष्माशोषी) प्रतिक्रिया भवति। सामान्य जीवनप्रणाल्यां सर्वाणि प्रतिक्रियाः ऊष्माक्षेपी(एक्सोथर्मिक) भवन्ति। इदं कथ्यते यत् कुण्डल्याः आरोहणेन देहः हिमवत् शीतलं भवति। रजनीश महोदय द्वारा प्रदत्त सूचनानुसारेण, तिब्बतनिवासी साधूनां मध्ये शीतावस्थां पारयित्वा ऊष्णावस्थां प्रापयितुं सम्यक् प्रशिक्षणं उपलब्धमस्ति। पंचतन्त्रस्य कथामध्ये उल्लेखमस्ति यत् कठोरशीतकाले वानरः गुंजाफलं अग्निकणं मन्यते एवं गुंजाफलस्य उपयोगं फूत्कार द्वारा अग्नेः प्रज्वलनं हेतु कर्तुं प्रयतते। एतद् दृष्ट्वा सूचीमुखी पक्षी वानरं उपदेशं करोति यत् अयं नाग्निकणः, गुंजामात्रमेव। एतदोपरि वानरः क्रुद्धो भूत्वा सूचीमुखीं हन्ति। कथासरित्सागरस्य कथायां १०.४.२०७ गुंजाफलस्य स्थाने खद्योतस्य उल्लेखं भवति। सूचीमुख्याः हननस्य किं अर्थमस्ति। किं अयं संकेतमस्ति यत् ये जनाः शीतजननस्य रहस्यं न जानन्ति, ते कुण्डलिनी आरोहणस्य प्रक्रियां ध्वस्तं कुर्वन्ति। गुंजाफलस्य अर्थमपि अन्वेषणीयमस्ति। गुंजा अर्थात् गुंजन, कर्णेषु नादस्य प्रकटनम्। लक्ष्मीनारायण संहितायां २.११.१२ बाल कृष्णस्य कर्णवेध संस्कारस्य वर्णनमस्ति। अयं कर्णवेध संस्कारः सर्वेषां बालानां हेतु विहितमस्ति एवं अस्य लाभ हेतु आरोग्यादयाः उल्लेखं भवति। किन्तु वास्तविक अर्थे अयं नादस्य दीक्षा अस्ति। वानराः गुंजनमपि शीतप्रकोपस्य अपनेतुं उपयोगं कर्तुं इच्छन्ते, अयं रहस्यमेव। अयं गुंजनम् त्रियमस्य साधनमपि भवति, एष उल्लेखः उपनिषदे अस्ति। गुंजाफलस्य एकं शीर्षं कृष्णवर्णं भवति, अतः अयं संभावना अस्ति यत् गुंजाफलं स्वयमेव ब्रह्माण्डे चरन्त्याः कुण्डलिन्याः प्रतीकं भवति। स्थूलदेहे तस्याः छाया कृष्णमस्ति। कथायां वानरस्य फूत्कारस्य अर्थं भस्रिका प्राणायामं अपि संभवमस्ति। भस्रिका प्राणायाम द्वारा ऊष्मणः उत्पत्ति भवति, अयं उल्लेखमस्ति।

मित्रभेदस्य 18 कथायां चटकपक्षीः शमीवृक्षस्योपरि आस्ते एवं वानरः शमीमूले आस्ते। चटकः शीतापनेतुं वानरं कस्मिंश्चित् गुहायां गन्तुं उपदिशति, यस्योपरि वानरः चटकं सूचीमुख नामतः सम्बोधयति एवं तां हन्ति। अत्र गुहा कः अस्ति, अयं अन्वेषणीयः। किं अयं हृदय गुहास्ति। शमीवृक्षः चित – अग्नेः शरणस्थलमस्ति, अयं पुराणेषु कथ्यन्ते। चित् अर्थात् व्यवस्थित, न्यून एण्ट्रोपी अवस्था। चटक पक्षी वृक्षोपरि अस्ति, अर्थात् सः ब्रह्माण्डेषु विचरते।

संदर्भाः

,१९१.०७  ये अंस्या ये अङ्ग्याः सूचीका ये प्रकङ्कताः ।

,१९१.०७ अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत ॥

(११.१०[१२].३ ) अयोमुखाः सूचीमुखा अथो विकङ्कतीमुखाः ।

(११.१०[१२].३ ) क्रव्यादो वातरंहस आ सजन्त्वमित्रान् वज्रेण त्रिषन्धिना ॥३॥

यदसिपथान्कल्पयन्ति  सेतुमेव तं संक्रमणं यजमानः कुरुते स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै - १३.२.१०.[१]

 

सूचीभिः कल्पयन्ति  विशो वै सूच्यो राष्ट्रमश्वमेधो विशं चैवास्मिन्राष्ट्रं च समीची दधति हिरण्यमय्यो भवन्ति तस्योक्तं ब्राह्मणम् - १३.२.१०.[२]

 

त्रय्यः सूच्यो भवन्ति  लोहमय्यो रजता हरिण्यो दिशो वै लोहमय्योऽवान्तरदिशो रजता ऊर्ध्वा हरिण्यस्ताभिरेवैनं कल्पयन्ति तिरश्चीभिश्चोर्ध्वाभिश्च बहुरूपा भवन्ति तस्माद्बहुरूपा दिशो नानारूपा भवन्ति तस्मान्नानारूपा दिशः - १३.२.१०.[३]

ओम् इत्य् एतद् एवाक्षरं गेयम् इति। एतद् ध वा इदं सर्वम् अक्षरम्। यथा सूच्या पलाशानि संतृण्णानि स्युर् एवम् एतेनाक्षरेणेमे लोकास् संतृण्णाः। दशधा वा एतद् अतिविध्येमान् क्षरति शतधेमान् सहस्रधेमान्।– जै.ब्रा. 2.10

VERSE: 4 { 3.9.6.4} – तै.ब्रा

सुवर्गम् एव_एनां लोकं गमयति । आ_अहम् अजानि गर्भधम् आ त्वम् अजासि गर्भधम् इत्य् आह । प्रजा वै पशवो गर्भः । प्रजाम् एव पशून् आत्मन् धत्ते । देवा वा अश्वमेधे पवमाने । सुवर्गं लोकं न प्राजानन् ।
तम् अश्वः प्राजानात् । यत् सूचीभिर् असिपथान् कल्पयन्ति ।
सुवर्गस्य लोकस्य प्रज्ञात्यै । गायत्री त्रिष्टुब् जगती_इत्य् आह ।

VERSE:5{3.9.6.5}
यथायजुर् एव_एतत् । त्रय्यः सूच्यो भवन्ति । अयस्मय्यो रजता हरिण्यः । अस्य वै लोकस्य रूपम् अयस्मय्यः । अन्तरिक्षस्य रजताः । दिवो हरिण्यः । दिशो वा अयस्मय्यः । अवान्तरदिशा रजताः । ऊर्ध्वा हरिण्यः । दिश एवास्मै कल्पयति । कस् त्वा छ्यति कस् त्वा विशास्तीत्य् आहाहिंसायै ।

 

 

सूचीमुखी – वानरयूथ कथा (मित्रभेदः, कथा 17)

योगशास्त्र में यह सार्वत्रिक रूप से ज्ञात है कि जब कुण्डलिनी सुषुम्णा नाडी के माध्यम से देह से बाहर निकलती है तो निकलने से पूर्व वह सूची के समान पतली हो जाती है (अथवा यह कह सकते हैं कि जब कुण्डलिनी सूची के समान पतली हो जाएगी, तभी देह का निष्क्रमण कर सकेगी)। उससे पूर्व, श्वास भी सूचिका के समान हो जाता है। जहां – जहां श्वास देह में प्रवेश करता है, उस – उस स्थान को कृष्ण, धूम्र उत्पन्न करने वाला बना देता है। अन्ततः कुण्डलिनी शक्ति सूची समान सूक्ष्म रूप धारण करके देह की सीमा को पार करके समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करने में समर्थ हो जाती है। लेकिन इस स्थिति में भी, सूची के बहुत से प्रकार होते हैं – स्थूल, अयोमुखी, रजता, कानिका इत्यादि(तै.ब्रा. 3.9.6.5)। योगवासिष्ठ उत्पत्ति खण्ड ३.६९ में यह विस्तारपूर्वक वर्णितहै। उल्लेख है कि सूची कारण का कार्य के साथ योजन कर देती है, कोई भी घटना द्यूत रूप से, चांस रूप से नहीं घटती।

     सुषुम्णा अथवा कुण्डलिनी शक्ति का आकार सूचीमुख कहते हैं। यह कथन आवश्यक तो है, पर्याप्त नहीं। इसका कारण यह है कि जैमिनीय ब्राह्मण 2.10 में उल्लेख है कि वास्तविक सूची तो ओंकार है। ओंकार से सारे लोक विद्ध होने चाहिएं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे सूची के अग्र का आकार बिन्दुसमान होता है, ऐसे ही चेतना का आकार भी बिन्दु समान हो सकता है। किन्तु यह बिन्दु केवल स्थान की दृष्टि से ही बिन्दु नहीं है। व्यवस्था की दृष्टि से भी यह बिन्दु रूप है – निम्नतर एण्ट्रांपी की स्थिति। शतपथ ब्राह्मण 13.2.10.2 में उल्लेख है कि विशः सूची हैं। विशः अर्थात् विस्तृत चेतना, हमारा मन आदि। वह विस्तृत, अव्यवस्थित चेतना जब व्यवस्थित होगी, तभी सूची बनेगी।

     यह भी सार्वत्रिक रूप से ज्ञात है कि जब कुण्डलिनी का आरोहण होता है,तब देह में शीतलता की अनुभूति होती है। रसायनशास्त्र की दृष्टि से, यह ऊष्माशोषी प्रतिक्रिया है, वैसे ही जैसे नौसादर को जल में घोलने पर जल शीतल हो जाता है। सामान्य जीवनप्रणाली की सारी प्रतिक्रियाएं ऊष्माक्षेपी(एक्सोथर्मिक) होती हैं। कहा जाता है कि कुण्डलिनी के आरोहण से देह हिमवत् शीतल हो जाती है। रजनीश महोदय द्वारा प्रदत्त सूचना के अनुसार, तिब्बती लामाओं में शीतावस्था को पार करके ऊष्ण अवस्था को प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। पंचतन्त्र की कथा में उल्लेख है कि कठोर शीतकाल में वानर गुंजाफल को अग्निकण मानते हैं और गुंजाफल का उपयोग फूत्कार द्वारा अग्नि के प्रज्वलन हेतु करने का प्रयत्न करते हैं। यह देखकर सूचीमुखी पक्षी वानर को उपदेश करती है कि यह अग्निकण नहीं है, गुंजा मात्र है। इस पर वानर क्रुद्ध होकर सूचीमुखी को मार देता है। कथासरित्सागर की कथा १०.४.२०७ में गुंजाफल के स्थान पर खद्योत का उल्लेख है। सूचीमुखी के हनन का क्या अर्थ है। क्या यह संकेत है कि जो लोग शीतलता उत्पन्न होने के रहस्य को नहींजानते, वे कुण्डलिनी के आरोहण की प्रक्रिया को ध्वस्त कर देते हैं। गुंजाफल का अर्थ भी अन्वेषणीय है। गुंजा अर्थात् गुंजन, कानों में नाद का प्रकट होना। लक्ष्मीनारायण संहिता २.११.१२ में बालकृष्ण के कर्णवेध संस्कार का वर्णन है। यह कर्णवेध संस्कार सभी बालकों के लिए विहित है और उल्लेख है कि यह कृत्य आरोग्य आदि की प्राप्ति के लिए है। लेकिन वास्तविक अर्थ में यह नाद की दीक्षा है। वानर भी गुंजन का उपयोग शीतप्रकोप के अपनयन हेतु करना चाहते हैं, यह रहस्य ही है। यह गुंजन त्रियम का साधन है, ऐसा उपनिषदे में उल्लेख है। गुंजाफल का एक शीर्ष कृष्ण वर्ण का होता है, अतः यह संभावना है कि गुंजाफल स्वयं ब्रह्माण्ड में विचरण करती हुई कुण्डलिनी का प्रतीक है। स्थूल देह में उसकी छाया कृष्ण है। कथा में वानर द्वारा फूत्कार का अर्थ भस्रिका प्राणायाम भी हो सकता है। भस्रिका प्राणायाम द्वारा ऊष्मा की उत्पत्ति होती है, ऐसा उल्लेख है।

     मित्रभेद 18 कथा में चटकपक्षी शमीवृक्ष के ऊपर है तथा वानर शमीमूल में हैं। चटक शीतापनयन के लिए वानरों को किसी गुफा में जाने का उपदेश करता है जिस पर वानर चटक को सूचीमुख नाम से पुकारता है तथा उसकी हत्या कर देता है। यहां गुहा से क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है। क्या यह हृदय गुहा है। शमीवृक्ष चित अग्नि का शरणस्थल है, ऐसा पुराणों का कथन है। चित् अर्थात् व्यवस्थित, न्यून एण्ट्रांपी अवस्था। चटक पक्षी वृक्ष के ऊपर है, अर्थात् वह ब्रह्माण्डों में विचरता है।

प्रथम प्रकाशन - फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, विक्रम संवत् २०७२ (२४ फरवरी, सन् २०१६ ई.)