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Thursday, 9 June 2011
Cow urine for urinary disease

मूत्र रोग में गोमूत्र का उपयोग

वृद्धावस्था में मूत्रत्याग के पश्चात् भी मूत्र की एक-आध बूंद बाद में टपकती है। इसके कईं कारण हो सकते हैं जैसे प्रोस्ट्रेट ग्रन्थि का बढना आदि। निम्नलिखित योग इस स्थिति में उपयोगी पाया गया-

शुण्ठी चूर्ण 20 ग्राम

नागरमोथा चूर्ण 20 ग्राम

पित्तपापडा चूर्ण 20 ग्राम

वासा पत्ते(ताजे) 250 ग्राम

गिलोय ताजी  150 ग्राम

वासा(साधारण भाषा में बांसा) के ताजे पत्ते (लगभग 250 ग्राम) लेकर उनको कूटकर मिक्सी में गोमूत्र लगभग 250 मि.लि. के साथ मिश्रित किया गया और फिर उस को छलनी में दबाकर रस अलग कर लिया गया। इस रस में और गोमूत्र लगभग 250 ग्राम मिलाकर गिलोय के छोटे-छोटे टुकडों के साथ, जिन्हें पहले कूट लिया गया था, मिश्रित किया गया और फिर मिश्रण से रस को अलग कर लिया गया। ठोस भाग में पुनः जल मिलाकर उसको मिश्रित किया गया और रस को अलग कर लिया गया। सारे रस को शुण्ठी, नागरमोथा व पित्तपापडा के चूर्ण में मिश्रित कर दिया गया और तेज धूप में सुखा लिया गया। इस चूर्ण को खाने पर जीभ पर थोडा कटान सा होता है। इस चूर्ण के सेवन से मूत्र का टपकना बन्द हुआ है। गोमूत्र जिस गौ से प्राप्त किया गया था, वह सडक में घूमने वाली गौ ही थी, कोई विशेष गौ नहीं।


Posted by puraana at 12:34 AM EDT
Sunday, 10 October 2010
Alternative treatment of AML in Indian conditions

निम्नलिखित वैबसाईट एक्यूट माइलांयड ल्यूकीमिया के वैकल्पिक उपचार के सम्बन्ध में है -

A.P.John Institute for Cancer Research

http://www.apjohncancerinstitute.org/cancer/acutemy.htm

भारतीय परिस्थितियों में इस वैबसाईट से निष्कर्ष निकालना कठिन हो सकता है । अतः आवश्यक जानकारी इस ब्लाग में प्रस्तुत है -
1.
उपरोक्त वैबसाईट का कहना है कि हमारे भोजन में जो फास्फोरस तत्त्व होता है, वह ल्यूकीमिया सैलों के विकास के लिए भोजन बनता है । अतः यह आवश्यक है कि भोजन से फास्फोरस तत्त्व निकाल दिया जाए । फास्फोरस की मात्रा सबसे अधिक दुग्ध में होती है । गेहूं आदि अन्नों में भी फास्फोरस होता है । लेकिन दुग्ध के फास्फोरस और अन्न के फास्फोरस में अन्तर यह है कि  दुग्ध का फास्फोरस बायोएक्टिव होता है, अर्थात् दुग्ध का सेवन करने पर फास्फोरस का शरीर में तुरन्त अवशोषण होता है, जबकि गेहूं आदि अन्नों का फास्फोरस बायोएक्टिव नहीं होता । अतः भोजन से दुग्ध को निकालना आवश्यक है । दुग्ध के बदले बादाम का दुग्ध लिया जा सकता है । इसके लिए बादाम को भिगोकर उसका ऊपर का लाल छिलका उतार कर सफेद भाग को बीज निकले मुनक्का और कुछ एक सफेद व काली मिर्च के साथ ग्राइन्डर में पीस लिया जाता है । फिर उसमें पानी मिलाकर उबाल लिया जाता है । यह दूध का अच्छा विकल्प है ।
2.
उपरोक्त वैबसाईट का कहना है कि गेहूं के प्रोटीन जैसे लाइसीन आदि कैंसर सैलों के पनपने के लिए भोजन बनते हैं । अतः यह आवश्यक है कि गेहूं के बदले मोटे अनाजों जैसे ज्वार, कंगनी, मक्का, कुट्टू आदि का प्रयोग किया जाए । इसके अतिरिक्त पालिश किए हुए सफेद चावलों का उपयोग भी किया जा सकता है ( चावल के लाल भाग में फास्फोरस होता है ) लेकिन इन अन्नों के आटे से रोटी नहीं बनती । अतः उसमें कुछ मात्रा में गेहूं का आटा मिलाया जा सकता है । (टिप्पणी - व्यवहार में यह देखा जा रहा है कि गेहूं के प्रयोग से कोई विशेष अन्तर नहीं पडता)।
3.
उपरोक्त वैबसाईट का कहना है कि गेहूं को फरमेंट कर उसकी रोटी बनाने पर उसके तत्त्व बायोएक्टिव बन जाते हैं । अतः किण्वित या फरमेंट किए हुए गेहूं के उत्पाद त्याज्य हैं 
4.
केवल बादाम का दुग्ध पर्याप्त नहीं है । अन्य पदार्थों से भी दुग्ध की उपलब्धि होनी चाहिए । लेकिन बादाम के दुग्ध का कोई विकल्प नहीं है । हमारे समाज में खरबूजा, तरबूज, खीरा व कद्दू के बीजों को मिलाकर ठंडाई बनाने की परम्परा है । इन बीजों को पीस कर व उबाल कर इनका दुग्ध बनाया जा सकता है। इन बीजों के चूरे को आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाई जा सकती है । अथवा दाल इत्यादि के साथ मिलाया जा सकता है। इस प्रकार दुग्ध की आवश्यकता बहुत हद तक पूरी की जा सकती है ।
5.
ए.एम.एल. या ल्यूकीमिया धीरे - धीरे सारे शरीर में फैलने लगता है । हमारी स्थिति में ल्यूकीमिया के लक्षण फुन्सी के रूप में प्रकट हुए, जैसा कि सामान्यतः कैंसरों में गर्दन पर छोटी फुंसियां विकसित हो जाती हैं । यह कैंसर विकसित होने की पहचान है । फिर यह फुन्सियां मुंह पर बनती हैं, मुख से कैंसर मस्तिष्क में जाता है और मस्तिष्क से स्पाईनल कोर्ड में । यहां पहुंचने पर भयंकर दर्द आरम्भ हो जाता है और डाक्टर लोग उसका उपचार मात्र मांर्फीन आदि दर्द निवारक दवाओं द्वारा ही कर पाने में समर्थ होते हैं । अन्ततः रोगी की मृत्यु हो जाती है । हमारी स्थिति में यह पाया गया कि केवल प्रातःकाल का दुग्ध बंद करने से ही, अर्थात् दुग्ध की मात्रा आधी करने से ही मुख पर फुन्सियों का निकलना बंद हो गया । यह सारी फुन्सियां हिप्स पर निकलने लगी । जब मुख पर फुन्सी निकलनी बंद हो गई तो धीरे - धीरे स्पाईनल कोर्ड में गया कैंसर भी कम हो गया और दर्द बंद हो गया ।
6.
ऊपर जिस वैबसाईट का उल्लेख है, उसमें दुग्ध व गेहूं के अतिरिक्त और बहुत से प्रतिबन्ध दे रखे हैं जिनका रोगी को पालन करना है । उदाहरण के लिए, गन्ने की शर्करा कम से कम लेनी है, फलों की शर्करा ली जा सकती है । वैबसाईट में नींबू का उल्लेख है जो कैंसर के सैलों को समाप्त करता है । लेकिन साथ ही साथ यह भी उल्लेख है कि जब कैमोथीरेपी चल रही हो, उन दिनों नींबू नहीं लेना है । कैंसर सैल कैमोथीरेपी द्वारा नष्ट होने चाहिएं, न कि नींबू द्वारा ।

-
विपिन कुमार
19-10-2010
रोग का इतिहास
रोगी की आयु 70 वर्ष है। रोगी को कम से कम चार - पांच वर्षों से खुजली की शिकायत थी । जब जुकाम होकर कफ निकल जाता था तो खुजली कम हो जाती थी । जुकाम ठीक होने के पश्चात् फिर बढ जाती थी । आरम्भ में होम्योपैथिक ओषधि लेने से आराम होता था, लेकिन बाद के वर्षों में नहीं । आयुर्वेद की सारक ओषधियां भी दी गई, लेकिन आराम नहीं हुआ । नाडी परीक्षा में कफ और पित्त की नाडियों की सक्रियता नहीं के बराबर थी । कैमोथीरेपी के रूप में पहले जब तक ए.एम.एल. नहीं बना था, केवल एम.डी.एस. ही थातब तक मुख द्वारा ली जाने वाली ओषधि लीनोमी का उपयोग करने का प्रयत्न किया गया । लेकिन साईड इफेक्टों के कारण इस ओषधि को त्यागना पडा । फिर एक गोमूत्र से बनी ओषधि का प्रयोग किया गया । इस बीच एम.डी.एस. तीन महीने के अन्दर ही ए.एम.एल. में बदल गया और तब कैमोथीरेपी से उत्पन्न होने वाले साईड इफेक्टों से बचने के लिए डैसीटाबीन (डेकोजन) द्वारा कीमोथीरेपी के तीन चक्र पूरे किए गए । एक चक्र का व्यय लगभग 4 लाख रुपये आता है । रोगी की अस्थि मज्जा का 50 प्रतिशत भाग apoptosis से ग्रस्त है। 
दुग्ध का सेवन बन्द करने से उत्पन्न परिणाम
दुग्ध लगभग पूरी तरह बन्द करने के 15 दिन पश्चात् रोगी में हीमोग्लोबीन की मात्रा 5.5 तथा प्लेटलैट की मात्रा 22000 पाई गई । 15 दिन पूर्व, जब दुग्ध केवल आधा बन्द किया गया था, यह मात्राएं क्रमशः 6.5 तथा 26000 थी । इन मात्राओं में कमी होने के कारणों का पता लगाना आवश्यक है । हो सकता है कि दर्दनिवारक दवा अल्ट्रासेट के साथ पेंटोसिड लेने से यह प्रभाव पडता हो । रोगी को एक यूनिट ब्लड दिया गया। इसके लगभग एक महीने पश्चात् हीमोग्लोबीन की मात्रा 5.2 तथा प्लेटलैट की मात्रा 34000 पाई गई। लेकिन व्हाईट सैलों की मात्रा 24000 पाई गई है जो संकेत करता है कि ल्यूकीमिया  के कारण  कैंसर सैल अधिक मात्रा में बन रहे हैं। ए.एम.एल. की स्थिति में हीमोग्लोबीन तथा प्लेटलैट की मात्राओं में तेजी से ह्रास होता है। इसका क्या कारण हो सकता है कि ह्रास इतनी तेजी से नहीं है। डाक्टरों का अनुमान यह है कि डेसीटाबीन कैमोथीरेपी का प्रभाव देर से भी हो सकता है जिसके कारण ह्रास नहीं हुआ है।
रोगी को कहा गया है कि वह बादाम के दुग्ध का सेवन करने के साथ - साथ दुग्ध बनाने हेतु तैयार की गई बादाम पिष्टी को भी चूसे । जो भी भोजन चूसने के द्वारा ग्रहण किया जाएगा, उससे कैंसर सैल नहीं बनेंगे ।
यदि गेहूं आदि का चूर्ण लेने से भूख घटती है तो यह अच्छा लक्षण होगा ।
प्लीहा पहले या कैंसर
रोगी की प्लीहा(spleen) या तिल्ली इतनी बढी हुई है कि वह पेट में रिब केज से निकली हुई स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और उसका बाहर निकला आकार लगभग 4-5 इंच होगा । लेकिन यकृत अपनी सामान्य स्थिति में प्रतीत होता है । डाक्टरों से कहा गया कि प्लीहा की चिकित्सा पहले की जानी चाहिए तो उनका कहना है कि यदि कैंसर ठीक हो गया तो प्लीहा अपने आप ठीक हो जाएगी । अब कौण्डली, दिल्ली एक होम्योपैथी के  ए.एम.एल. विशेषज्ञ(डा. अशोक अग्रवाल, 11, पाकेट 5, एम.आई.जी. फ्लैट्स, उन्नति अपार्टमेण्ट, मयूर विहार फेज 3, दिल्ली - 110096, फोन 22625535) ने प्लीहा को सुधारने की ओषधि पहले दी है । इस विशेषज्ञ का कहना है कि ए.एम.एल. तो वह ठीक नहीं कर सकता, लेकिन प्लीहा ठीक कर सकता है और प्लीहा का शोथ कम हो जाने पर वह हीमोग्लोबीन बनाने लगेगी।  इस विशेषज्ञ ने उडद की दाल, राजमा आदि के भोजन का निषेध किया है । यह ध्यान रखने योग्य है कि जिस भोज्य वस्तु को पकाने के लिए जितने अधिक ताप की आवश्यकता पडेगी, वह उतना ही अधिक कैंसर सैलों का निर्माण करेगा । मूंग की दाल को गलने के लिए बहुत कम तापमान की आवश्यकता पडती है । अतः दालों में वह मनुष्य के सबसे निकट है ।
24-11-2010
गाय - भैंस के दुग्ध को पीने योग्य बनाने का प्रयत्न
आयुर्वेद में यह ज्ञात है कि गाय व भैंस का दुग्ध गुरु होता है जबकि बकरी का दुग्ध लघु । बकरी का दुग्ध ए.एम.एल. रोगी के लिए उपयुक्त है या नहीं, इसका परीक्षण नहीं किया जा सका है, अंशतः बकरी के दुग्ध की अनुपलब्धता के कारण । एक बार दुग्ध का त्याग कर देने के पश्चात् किसी भी रोगी के लिए यह तो संभव नहीं है कि वह कभी दुग्ध का सेवन करे ही नहीं । और जब वह सेवन करता है तो उससे हानि होती है, फुन्सी निकलती हैं । ऐसी स्थिति में गाय - भैंस के दुग्ध को निरापद बनाने की किसी विधि को ढूंढने का प्रयत्न किया गया । भावप्रकाश में अजीर्णरोगाध्याय में दिया है कि दुग्ध के अजीर्ण पर अजवायन का सेवन किया जाए । खोए के अजीर्ण पर बायबिडंग व त्रिकटु को अन्न या चावल के माण्ड के साथ सेवन का निर्देश है । यह उपयुक्त होगा कि दोनों ही निर्देशों का पालन करके देखा जाए । इसके अतिरिक्त, चरक संहिता चिकित्सा खण्ड में कईं स्थानों पर दुग्ध में ओषधियां मिलाकर रोग विशेष हेतु पेय बनाए गए हैं लेकिन इनमें प्रयुक्त ओषधियां तीखी प्रतीत होती हैं, जैसे निशोथ, छोटी कटेरी, बडी कटेरी आदि का योग । धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक में बायबिडंग के संदर्भ में कहा गया है कि बायबिडंग के 10-20 दानों को दूध में उबाल कर उस दूध का उपयोग किया जा सकता है ।
Pros and cons of drinking milk
रोग में अम्लीयता का योगदान
बहुत सी वैबसाईटों में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि अम्लीयता या एसीडिटी से कैंसर रोग में वृद्धि होती है । अतः जहां तक हो सके, अम्लीयता को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए । एलोपैथी में अम्लीयता कम करने  हेतु डाईजीन का प्रयोग किया जाता है तथा इससे भी तेज ओषधि के रूप में पैंटोसिड नामक ओषधि का प्रयोग किया जाता है ।लेकिन यह पता नहीं है कि इन ओषधियों के सेवन से जीवन शक्ति पर कितना प्रभाव पडता है । दूसरे शब्दों में, यह हमारे जीवन को वढाती हैं या घटाती हैं । आयुर्वेद में आजकल कईं अम्ल निरोधी ओषधियां बाजार में उपलब्ध हैं । इनमें से डाबर की एण्टासिड ओषधि का प्रयोग किया गया । इस एण्टासिड के घटक त्रिवृत् या निशोथ, भृङ्गराज या भांगरा, गुडूची या गिलोय और मधुयष्टि या मुलेठी हैं । बाजार में मिलने वाले अन्य योगों में से एक प्लान्टासिड है । एक अन्य ओषधि निर्माता ने सूचना दे रखी थी कि गेरु, चन्दन, नागरमोथा, सोंठ तथा  मधुयष्टि आयुर्वेद के पांच एण्टासिड हैं ।
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विपिन कुमार
1-12-2010
रोगी के मुख पर जो फुन्सियां निकलती हैं, अब वह इस प्रकार गुच्छों में निकलने लगी हैं जैसे चींटियों के काटने से धापड पड जाते हैं । ऐसा अनुमान है कि इस प्रकार के धापड पित्त प्रकृति के सूचक हैं और इनका कारण रोगी द्वारा उपयोग किया जाने वाला त्रिकटु हो सकता है । अतः त्रिकटु की मात्रा सीमित कर देना उपयोगी होगा।
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विपिन कुमार
रोगी के पैरों में ट्यूमर या गांठें अभी तक विद्यमान थी। इसके कारण का अनुमान यह लगाया गया कि रोगी के भोजन में सब्जियों को पकाने तथा पकौडी तलने में सरसों के तेल का उपयोग किया जाता है। सरसों के तेल को अपने भोजन से निकाल देने पर पैरों के ट्यूमर समाप्तप्राय हो गए हैं।यह भी संभव है कि होम्योपैथिक ओषधि के कारण ट्यूमर समाप्त हुए हों।सरसों के तेल के बदले कैनोला रेपसीड आंयल का उपयोग किया जा सकता है अथवा कैनोला तेल में तेजी लाने के लिए उसमें थोडा सरसों का तेल मिलाया जा सकता है। सरसों के तेल में तेजी एरुसिक अम्ल(erucic acid) के कारण होती है जो बहुत हानिकारक है। कैनोला रेपसीड आंयल भी एक प्रकार का सरसों का तेल ही है जिसको निकालने में हाईब्रिड रेपसीड का उपयोग किया जाता है। इसमें एरुसिक अम्ल की मात्रा बहुत कम होती है।
14-1-2011
01-01-2011
5-12-2010
रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा 5.2 ग्रा प्रति मि.लि. होने पर रोगी को श्वास लेने में थोडी कठिनाई हो रही थी। रोगी ने डा. कल्याण बनर्जी, नई दिल्ली के परामर्श पर Hydrastis Canadensis  तथा  Lycopus Virginicus टिंक्चरों का सेवन आरम्भ किया जिससे शरीर में बेचैनी बहुत बढ गई, मुख के छालों में बहुत वृद्धि हो गई, भोजन निगलना भी कठिन हो गया, प्लीहा में और अधिक वृद्धि हो गई। अतः इनका सेवन बन्द कर दिया गया।यह ठीक पता नहीं है कि प्लीहा के आकार में वृद्धि क्यों हुई, इस कारण से फटे हुए दुग्ध का पानी भी बन्द किया जा रहा है । यह उल्लेखनीय है कि प्लीहा रिब केज से नीचे निकलकर केले के आकार में बढी हुई है। इसके अतिरिक्त, उसी स्थान पर कछुए की पीठ जैसा एक कडा स्थल बन जाता है । पहली बार यह स्थल पेट की ओर था, इस बार पीठ की ओर है। चूंकि रोगी दधि का सेवन करता है, अतः परामर्श दिया गया है कि त्रिफला इत्यादि के अतिरिक्त फिटकरी के पानी की एक बूंद दधि में डाल लिया करे। ऐसा अनुमान है कि फिटकरी में विद्यमान एल्युमिनम सल्फेट दुग्ध में विद्यमान फास्फोरस से मिलकर एल्युमिनम फास्फेट बना लेगा और दधि निरापद हो जाएगी। भोजन से फास्फोरस तत्त्व को हटाने की ओषधि यह है कि रोगी को भोजन के बाद एल्युमिनम हाईड्राक्साईड युक्त ओषधि दी जाती है जो सारे फास्फोरस का अवशोषण कर लेती है।
14-1-2011
अब रोगी को ज्वर हो गया है। एण्टीबायोटिक ओषधि से भी ज्वर कम नहीं हो रहा है। ज्वर की आशा तो पहले से ही थी। यदि एलोपैथिक ओषधियों से ज्वर कम नहीं होता है तो रोगी को इन्दौर के स्वर्णिम नेचरसाईंस द्वारा बिना सांद्र किए गए गोमूत्र में बनाई गई कैंसर रोधक ओषधि तथा पंचभद्र(चिरायता, नागरमोथा, पित्तपापडा, गिलोय व सोंठ) का क्वाथ लेने को कहा गया है। रोगी के ठीक होने की संभावनाएं हैं भी, नहीं भी।आशा करनी चाहिए कि उपरोक्त ओषधियां ज्वर को समाप्त कर देंगी।
17-1-2011
Monocef
नामक ओषधि के इन्ट्रावीनस इंजेक्शन(कुल 10) लेने से रोगी का ज्वर समाप्त हो गया है।लेकिन प्लेटलैट केवल 5000 रह गए हैं। हीमोग्लोबीन 3.1 है तथा wbc 16000 हैं। अतः शीघ्र ही प्लेटलैट ट्रान्सफ्यूजन की आवश्यकता पडेगी।
20-1-2011
22-1-2011

प्लेटलैट तथा हीमोग्लोबीन ट्रान्सफ्यूजन के पश्चात् प्लेटलैट संख्या 5000 से 15000 गई लेकिन यह शीघ्र ही पुनः 5000 आ जाती है। डाक्टरों का कहना है कि वह कुछ नहीं कर सकते।
26-1-2011
रोगी में कैल्शियम की मात्रा बहुत कम पाई गई है और अब कैल्शियम की पूर्ति के लिए 6 गोली शैल्कैल की प्रतिदिन दी जा रही हैं।
27-1-2011
रोगी के मुख में शुष्कता है। इसका एक कारण डाक्टर लोग डीहाईड्रेशन बताते हैं। लेकिन यह शुष्कता इंट्रावीनस ग्लूकोज देने से भी समाप्त नहीं हुई है। इसका अर्थ है कि शुष्कता का कारण कुछ और ही है। रोगी को बता दिया गया है कि यदि मुख की शुष्कता दूर हो जाए तो सारा रोग ही दूर हो जाएगा। रोगी को अम्लता या एसिडिटी की शिकायत है जिसके लिए पेंटोसिड की गोली का उपयोग सबसे सरल उपाय है। लेकिन यह लाभदायक नहीं है। प्रातःकाल पेंटोसिड की गोली के सेवन से बचने के लिए ज्वरहारक आयुर्वेदिक ओषधियों जैसे पंचभद्र आदि का सेवन करने के लिए कहा गया है। पंचभद्र तो एक ब्रह्मास्त्र की भांति है जिसका प्रयोग प्रतिदिन नहीं किया जा सकता। अतः अन्य ओषधियों के योग जैसे सारिवा या अनन्तमूल, कुटकी, नेत्रबाला का योग तथा खस, निम्बछाल, नेत्रबाला, खस, धनिया आदि का प्रयोग किया जाना अपेक्षित है। सारिवा के योग में रोगी को बहुत प्यास लगी है।इस योग के संदर्भ में भावप्रकाश में लिखा है कि इस योग को उष्ण जल के साथ ले। यह इस योग के विषय में अन्तर्दृष्टि देता है।
28-1-2011
पंचभद्र क्वाथ का सेवन आरम्भ करने पर रोगी को मृदु विरेचन हुआ है। लेकिन 5-6 बार के सेवन के पश्चात् अब नहीं होता है। लगता है कि मृदु विरेचन से दूषित पित्त बाहर निकल गया है और अब स्वास्थ्य में सुधार होना चाहिए। अस्थि मज्जा में जो apoptosis प्रक्रिया चल रही थी, उसमें भी ह्रास होना चाहिए। पंचभद्र क्वाथ के अतिरिक्त दूसरा योग नागरमोथा, पित्तपापडा, नेत्रबाला, धनिया, खस व लालचन्दन का है जिससे तृषा शान्त होती है।
30-1-2011
रोगी के मुख पर बहुत से छोटे - बडे ट्यूमर या पिडिकाएं निकल आए हैं । इसका कारण आयुर्वेद के दूसरे योग में धनिया हो सकता है। धनिये में फास्फोरस होता है।
5
यूनिट हीमोग्लोबीन ट्रान्सफ्यूजन के पश्चात् दिनांक 25-1-2011 को रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा 8.1 थी। अब रक्त की जांच कराने पर हीमोग्लोबीन की मात्रा 8.7, कुल श्वेत कण(TLC) 9200 तथा प्लेटलैट संख्या 47000 पाई गई है।
31-1-2011
रोगी के पैरों में सूजन है जिसका कारण गुर्दों (kidney) में कोई समस्या हो सकती है। सूजन का एक कारण यह भी है कि पंचभद्र क्वाथ कडुआ होता है और कडवी वस्तु गुर्दों को हानि पहुंचाती है। अब पंचभद्र क्वाथ के बदले पंचभद्र चूर्ण बना लिया गया है जिसमें नागरमोथाचिरायता, सोंठ व पित्तपापडा को पीस कर महीन कर लिया गया है जबकि ताजी गिलोय को काटकर उसके छोटे टुकडे करके उसे मिक्सी में पानी के साथ मिक्स कर लिया गया। इसके पश्चात् उसे उबाल लिया गया। इसके पश्चात् मोटी छलनी में दबाकर उसका गूदा अलग कर लिया गया, रेशा अलग। गूदे को अन्य चार ओषधियों के चूर्ण में मिलाकर  सुखा लिया गया।
1-2-2011
फुन्सियों के लिए  सुश्रुत संहिता में विसर्प चिकित्सा हेतु दिए गए योग का उपयोग आरम्भ किया जा रहा है। पिप्पल्यादि गण (पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, शृङ्बेर(सोंठ), मरिच, हस्तिपिप्पली, हरेणुका, एला, अजमोदा, इन्द्रयव, पाठा, जीरा, सर्षप, महानिम्ब फल, हिंगु, भार्ङ्गी,मधुरसा, अतिविषा, वचा, विडंग, कटुरोहिणी) के चूर्ण में आरग्वधादि गण(आरग्वध, मदन, गोपघण्टा, कण्टकी, कुटज, पाठा, पाटला, मूर्वा, इन्द्रयव, सप्तपर्ण, निम्ब, कुरुण्टक, दासी, गुडूची, चित्रक, शार्ङ्ग, करञ्जद्वय, पटोल, किराततिक्त, सुषवि) की ओषधियों का क्वाथ मिला दिया गया और उसे सुखा लिया गया (दोनों गणों में से केवल वही ओषधियां ली गई जो उपलब्ध थी)। दूसरे, पिप्पल्यादि गण के चूर्ण में मुष्कादि गण( शीशम, पलाश आदि) के क्षार को मिलाकर उसे सुखा लिया गया। चूर्ण का सेवन करने के पश्चात् घृत का सेवन किया गया।
आरग्वधादौ विपचेद् दीपनीययुतं घृतम्।
क्षारवर्गे पचेच्चान्यत् पचेन्मूत्रगणे अपरम्।
घ्नन्ति गुल्मं कफोद्भूतं घृतान्येतान्यसंशयम्।।(सुश्रुत संहिता, उत्तरतन्त्रं 42.3)
एक दो बार लेने पर ही रोगी का पेट बहुत अस्त - व्यस्त हो गया है। वैद्य श्री बृहस्पति देव त्रिगुणा का अनुमान है कि ग्रन्थियां (गांठें, फुन्सियां) शीत पित्त से सम्बन्धित हैं।
4-2-2011

प्रायः ऐसा होता है कि सायंकाल रोगी को अम्लपित्त का प्रकोप होता है। ऐलोपैथी में इसका एकमात्र विकल्प डाइजीन या पेंटोसिड है। इसके लिए भाव प्रकाश के अम्लपित्ताधिकार में दिए गए योगों -का आरम्भ किया जा रहा है। सफेद कोंहडे(कूश्माण्ड, Benincosa Cerifera, पेठा) के रस को बादाम आदि के दुग्ध के साथ उबाला गया और उसमें घृत, आमला आदि का प्रक्षेप किया गया। इस योग का दोष यह है कि इसे संरक्षित नहीं किया जा सकता। दूसरा योग है जूसर यन्त्र  में पेठे का रस निकाल कर अलग कर लिया गया तथा ठोस भाग को नारियल का चूर्ण बनाकर उसमें मिला दिया गया , फिर घी में हल्का भूना, फिर बादाम , चार मगज, काली मिर्च, मुनक्का के दुग्ध के साथ उबाला, फिर आमलक, छोटी इलायची , दालचीनी आदि ओषधियों का प्रक्षेप किया गया।
तीसरा योग शतावरी है। बाजार में जो शतावरी मिलती है, उसे खाकर देख लेना चाहिए कि वह पकी हुई, मीठी है या नहीं । दिल्ली में खारी बावली से शतावरी 1000 रु प्रति किलो मिली है। इस शतावरी का चूर्ण बनाकर बादाम के दुग्ध में डालकर उसे उबाल लिया गया।अम्लपित्तहर शतावरी घृत के योग में जो ओषधियां बताई गई हैं, वह साधारण रूप से अनुपलब्ध होने के कारण यह उचित होगा कि शतावरी युक्त बादाम के दुग्ध का सेवन च्यवनप्राश के साथ किया जाए क्योंकि च्यवनप्राश में वह ओषधियां होती हैं ।
बाजार में डाइजीन के स्थान पर अविपत्तिकर चूर्ण, एण्टासिड आदि मिलते हैं । इन योगों का मुख्य घटक सफेद निशोथ है जो किंचित् रेचक है और दोष का निस्सरण कर देती है।अविपत्तिकर आदि चूर्ण को दोपहर भोजन के पूर्व दिया जा सकता है।
रोगी को ज्वरहारक पंचभद्र चूर्ण देने पर भी उसका ज्वर 98 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे नहीं गया(रोगी का सामान्य तापमान कमजोरी के कारण 97 डिग्री है)। इसका अर्थ है कि खराबी कहीं और है। यह अम्लपित्त के कारण हो सकती है।
अम्लपित्त हारक एक योग वासा, निम्ब, पित्तपापडा, चिरायता, गुडूची, भृङ्गराज, त्रिफला आदि से बनाया गया है। उपरोक्त बहुत से योग भैषज्य रत्नावली से, कुछ सुश्रुत संहिता से और कुछ भावप्रकाश से हैं)।इस योग के सेवन से पैरों की सूजन बहुत कम हो गई है।
7-2-2011
प्लेटलैट 33000, हीमोग्लोबीन 7.3, TLC(कुल श्वेत कण) 16000, ब्लास्ट सेल 16000। ऐलोपैथिक डाक्टर द्वारा पैरों की सूजन दूर करने के लिए ग्लूकोज का इंट्रावीनस ट्रान्सफ्यूजन किया जा रहा है । यह एक व्यर्थ की प्रक्रिया है क्योंकि इस प्रकार से रक्त की धुलाई वहां लाभदायक हो सकती है जहां रोगी दुग्ध आदि का सेवन कर रहा हो और उसके कारण यूरिया बन रहा हो।
8-2-2011
रोगी का तापमान 98 से लेकर 98.5 तक चल रहा है जो रोगी की कमजोर अवस्था को देखते हुए ज्वर को सूचित करता है। पंचभद्र देने पर भी तापमान कम नहीं हो रहा है और रोगी बहुत कमजोरी का अनुभव कर रहा है। इसका अर्थ होगा कि यह जीर्ण ज्वर की अवस्था है और उपचार जीर्ण ज्वर हेतु होना चाहिए। जीर्ण ज्वर का उपचार तभी हो सकता है जब आम या कच्चे दोष समाप्त हो गए हों।
14-2-2011

पंचभद्र के अतिरिक्त जो कोई भी ओषधि का योग रोगी को दिया जाता है, उसका परिणाम उडेल या उल्टी या कै या छर्दि जैसी स्थिति में होता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब रोगी प्रातःकाल शौच साफ रखने के लिए जलपान करता है।यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जिन दोषों का ओषधि शमन करती है, उनके अवशेष उल्टी के रूप में प्रकट हो रहे हैं। रोगी इस स्थिति से परेशान हो गया है और उपचार ही छोडना चाहता है। इसका उपाय यह किया गया है कि जब तक उल्टी या उडेल जैसी स्थिति का शमन न हो जाए, तब तब नई ओषधि न दी जाए, चाहे इसमें चार - पांच दिन का समय ही क्यों न लग जाए। उल्टी रोकने की आयुर्वैदिक ओषधियों के रूप में भैषज्यरत्नावली के योग षडङ्गपानीय(नागरमोथा, पित्तपापडा, सोंठ, नेत्रबाला, चन्दन और खस) का परीक्षण किया जाएगा। इसके अतिरिक्त दशमूल क्वाथ का परीक्षण किया जाएगा। अधिक पित्त की स्थिति में शिंशपा क्षार और अश्वत्थ क्षार का परीक्षण किया जाएगा। गोमूत्र तथा गोबर के रस का भी परीक्षण किया जाएगा। पित्त विकार को अधोगामी बनाने के लिए हरीतकी, त्रिकटु, धनिया, चन्दन के योग का परीक्षण किया जाएगा।भ्रष्ट मूंग तथा लाजा चूर्ण के मधु में मिश्रण का उपयोग भोजन के रूप में किए जाने का विचार है।
16-2-2011
रक्त परीक्षण-
हीमोग्लोबीन 5.5 ग्राम प्रति डे.लि.
प्लेटलैट 10000 - 58000(अनिश्चित मापन)
श्वेत रक्त कण 20000
pH 7.39
pCO2 29 mmHg
pO2 38  
Na+ 121 mmol/L
K+  3.0 mmol/L
Ca++ 0.26 mmol/L
Glu. 98 mg/dL
lac. 1.2 mmol/L
Hct 28 %
Derived Parameters
Ca++(7.4)  0.26mmol./L
HCO3- 17.6 mmol/L
HCO3std. 19.4
TCO2 18.5
BEect -7.4
BE(B) -6.5
SO2c  71%
THbc 8.7g/dL
कम कैल्शियम स्तर का कारण रक्त की अम्लीयता हो सकता है। लेकिन परीक्षण में रक्त में अम्लीयता नहीं आई है।
रोगी की अम्लीयता दूर करने के लिए गोमूत्र और शिंशपा क्षार का मिश्रण उपयुक्त समझा गया है।
डाक्टरों द्वारा संदेह किया जा रहा है कि आयुर्वेदिक ओषधियां किडनी फेल्योर तो नहीं करती, क्योंकि रोगी का क्रिएटिनीन 3.9 से 4.6 हो गया है जबकि यूरिया स्तर 90 के आसपास है। इसका उत्तर यही है कि जो भी कडवे स्वाद वाली आयुर्वेदिक ओषधि रोगी को दी जा रही है, वह ठोस रूप में दी जा रही है जिसे रोगी मुख में रखकर चूसता है। इससे ओषधि का हानिकारक गुण बहुत सीमा तक समाप्त हो जाता है।रोगी तथा उसके परिचारकों ने आयुर्वेदिक ओषधियों का त्याग करके अब पेण्टोसिड, मोनोसैट(उल्टी को रोकने के लिए) आदि ओषधियों का सेवन आरम्भ कर दिया है।
जब भी नए सिरे से आयुर्वेदिक उपचार आरम्भ होता है तो यह ध्यान रखना होगा कि सबसे पहले रोगी के उल्टी व जलन लक्षणों का उपचार किया जाए जिससे हीमोग्लोबीन को कम से कम हानि पहुंचे।
18-2-2011
अब रोगी कैल्शियम की कमी को पूरा करने के लिए Calcitriol नामक ओषधि का सेवन कर रहा है जिससे विटामिन डी का अवशोषण अधिक से अधिक हो सके और उसके कारण कैल्शियम का अवशोषण हो सके।  दूसरी ओषधि जो रोगी ले रहा है, वह Febuget 80 है।
24-2-2011
फेफडों में संक्रमण(pneumonia) के कारण रोगी की मृत्यु हो गई है। पूरे प्रकरण में उसे कोई आयुर्वेदिक ओषधि नहीं दी जा सकी।
28-2-2011

 


Posted by puraana at 12:01 AM EDT
Updated: Thursday, 19 April 2012 12:40 AM EDT

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