PURAANIC SUBJECT INDEX पुराण विषय अनुक्रमणिका (Suvaha - Hlaadini) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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भगवद्गीतायां १०.२७ कथनमस्ति – ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्। वैदिकवाङ्मये गजशब्दस्य स्थाने हस्तीशब्दः अस्ति। किन्तु हस्तिनः गुणानां अभिव्यक्त्यै गजः उचितशब्दः अस्ति। मर्त्यलोके सूर्यस्य येषां रश्मीनां प्रचारः भवति, तत् जगतीछन्दानुसारेण भवति(द्र. जगतीछन्दोपरि टिप्पणी)। सूर्यरश्मि अथवा वर्षाजलस्य बिन्दोः संदर्भे जगतीछन्दस्य वैशिष्ट्यं अस्ति – शतवत् सहस्रवत्। सोमयागे यः तृतीयः सवनमस्ति, तस्य निर्वाहं जगतीछन्दानुसारेण भवति। कारणं – माध्यन्दिनसवनं यावत् यः अभिषुतः सोमः भवति, तृतीयसवनाय तस्य न कोपि अंशः शेषं भवति। अतएव, सोमवल्लीनां यः शिष्टः तृणभागः भवति, तस्य पयसि क्षालनेन यः द्रवः प्राप्यते, तस्य उपयोगं विश्वेभ्यः देवेभ्यः, मर्त्यस्तरस्य देवेभ्यः हविः प्रदानाय सोमस्य स्थाने भवति। जगतीशब्दस्य विलोमं गजती अस्ति। यथा ब्रह्माण्डे सूर्यः जलस्य रसस्य ग्रहणाय स्वरश्मीनां उपयोगं करोति, एवमेव मर्त्यलोके गजः जलग्रहणाय स्वशुण्डस्य प्रयोगं करोति।
गजस्य स्वरूपं देहे चक्रानुसारः परिवर्त्यते। मूलाधारे गजः अस्ति, स्वाधिष्ठाने मकरः, तदनन्तरं मृगः। कण्ठस्य विशुद्धिचक्रे गजः अस्ति। यः मकरः अस्ति, तत् गजस्य पूर्वरूपमस्ति। मकरः आदाने एव समर्थः अस्ति। तस्य शुण्डः क्रमिकरूपेण गजस्य शुण्डे परिवर्तयति। यः कण्ठस्य गजः अस्ति, तत् सूक्ष्माणां जीवचेतनानां कर्षणं कर्तुं शक्यते। मूलाधारस्य गजः एवं कर्तुं न शक्नोति। यः आज्ञाचक्रः अथवा भ्रूमध्यस्य चक्रः अस्ति, तत्र गजसदृशः न कोपि प्राणी अस्ति। किन्तु गणेशपुराणे एकः गणेशभक्तः अस्ति यस्य नामधेयं भ्रूशुण्डः अस्ति। स्वयं गणेशः अपि भ्रूशुण्डः प्रतीयते। यः गणेशः अस्ति, तस्य शिरः ऐरावतस्य कर्तितशिरः अस्ति। अतएव, ऐरावतस्य अयं वैशिष्ट्यं अस्ति यत् सः सूक्ष्मचेतनारूपी जलानां कर्षणं कर्तुं सक्षमः अस्ति। पुराणेषु गजानां आविर्भावं इरावतीतः भवति। विभिन्नसाम्नां प्रयोगेण विभिन्न गजानां सृष्टिः भवति। ते गजाः दिग्गजाः भवन्ति। तेषां विस्तारं दिक्षु अस्ति, न केन्द्रे। गणेशस्य वैशिष्ट्यं अस्ति यत् सः केन्द्रस्थाने स्थितः अस्ति। पुराणेषु उल्लेखः अस्ति यत् यदा बलिः स्वर्गोपरि अधिकारः करोति, तदा सः ऐरावतस्य दानं अगस्त्याय करोति। अगस्त्यः दिक्षु विस्तारस्य स्थितिः अस्ति। अन्य पक्षे, तपोरतस्य भक्तस्य समक्षे प्रथमः ऐरावतारूढस्य इन्द्रस्य प्राकट्यं भवति। यदा भक्तः अनेन दर्शनेन संतुष्टः न भवति, तदा ऐरावतस्य रूपान्तरणं वृषभ रूपे एवं इन्द्रस्य शिवरूपे भवति।
लोमशऋषेः गुहायाः प्रवेशद्वारः।
लेखनं – माघकृष्ण पञ्चमी, विक्रमसंवत् २०७८ (२३-१-२०२२ई).
यथा
भौतिक सूर्यः स्वरश्मिभ्यां जलस्य कर्षणं करोति,
एवमेव आध्यात्मिक सूर्यः पापेभ्यः पुण्यानां कर्षणं करोति। पुराण कथनानुसारेण,
ब्रह्माण्डे यः ऊर्जा आसीत्,
तस्मात् सूर्यस्य प्रादुर्भावमभवत्। ऊर्जायाः यः भागं उच्छिष्टमासीत्,
तस्मात्
हस्तिनः प्रादुर्भावमभवत्(ब्रह्माण्डपुराणम्)।
ये दिव्याः गुणाः आध्यात्मिके सूर्ये सन्ति,
ते
न्यूनाधिकरूपेण आध्यात्मिके
हस्तिने
अपि भवितुं शक्यन्ते। हस्ती स्वशुण्डेन जलस्य आकर्षणं करोति। किं आध्यात्मिकः हस्ती
पापेभ्यः पुण्यानां कर्षणं कर्तुं शक्यते,
अयं विचारणीयः।
मनुष्यस्य हस्ती सह
किं साम्यत्वमस्ति, अस्य निदर्शनं गणेश पुराणस्य
१.५६ आख्यानेन भवति। अस्मिन्
आख्याने भ्रूशुण्ड संज्ञकः भक्तः गणेश सह सायुज्यं प्राप्नोति। भ्रूशुण्ड संज्ञा
संकेतमस्ति यत् भ्रूमध्ये यः ज्योतिरस्ति, तत् लघु सूर्यस्य रूपमस्ति एवं अस्मात्
विनिर्गताः रश्मयः हस्तिनः शुण्डा रूपा भवन्ति।
यदा आध्यात्मिक
हस्ती स्वदेहस्य जलस्य आकर्षणं करोति, तदा शीतस्य जननं भवति। अनेन कारणेन
तैत्तिरीय संहिता ५.५.११.१ व
तैत्तिरीय आरण्यके
३.१०.३
हिमवते
हस्ती दानस्य निर्देशमस्ति
।
पुराणेषु पूर्वादि दिशानुसारेण दिग्गजानां नामनिर्धारणमस्ति एवं तेषां विशिष्ट
कार्याणि भवन्ति। ते विभिन्न देवानां वाहनाः सन्ति। कथासरित्सागरे चक्रवर्ती
राज्ञस्य एकं रत्नं हस्ती अस्ति। द्वितीयं रत्नं अश्वमस्ति। हस्तिरत्नस्य गतिः
अश्वरत्न्यापेक्षापि अधिकं भवितुं शक्यते।
लेखन – ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् २०७४(२२ मई, २०१७ई.)
हस्ती
टिप्पणी
: पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों ( शतपथ ब्राह्मण
३.१.३.४) दोनों में समान रूप से यह
आख्यान मिलता है कि अदिति व कश्यप से पहले ७ आदित्य उत्पन्न हुए । फिर एक अण्ड
उत्पन्न हुआ जिसके भेदन से बहुत सारा तेज निकला,
लेकिन
तेज की अधिकता के कारण जीव कहीं दिखाई नहीं दिया । अतः उसे मार्ताण्ड कहा गया ।
मार्ताण्ड के तेज का कर्तन किया गया जिससे विवस्वान् सूर्य का प्रादुर्भाव हुआ । जो
कर्तन के कारण शेष तेज बचा था,
उससे हस्ती का प्रादुर्भाव हुआ । हस्ती का सारा रहस्य शेष तेज में ही निहित है
। हमारा यह सारा व्यक्तित्व शेष तेज है,
अतः हस्ती का रूप है । पौराणिक साहित्य में जिसे हाथी का मद कहा गया है,
वैदिक
साहित्य में लगता है कि उसे त्वेष कहा गया है । त्वेष को एक गर्मी के रूप में,
ताव,
तवा के
रूप में समझ सकते हैं । सामान्य जीवन में इस त्वेष को काम - क्रोध आदि आवेगों के
रूप में लिया जा सकता है । हाथी के इस त्वेष को सूर्य के प्रकाश में,
अरुण वर्ण में बदलने की संभावना है । ऋग्वेद
१.६४.७ का कथन है कि हाथियों ने
मृगों की भांति वनों को खाया जब तविष को आरुणियों से जोड दिया गया । इसी प्रकार
ऋग्वेद ४.१६.१४ के अनुसार जब तविष का
उषा में रूपान्तर कर दिया जाता है तो हस्ती मृग के तुल्य हो जाता है ।
पद्म पुराण ६.१९०
में एक मदग्रस्त हाथी अरिमर्दन की कथा आती है जो गीता के १६वें अध्याय के श्लोकों
को सुनने पर शान्त चित्त हो गया था । गीता के १६वें अध्याय में काम - क्रोध आदि के
रूपान्तरण का ही वर्णन है । तैत्तिरीय संहिता
५.५.११.१ व तैत्तिरीय आरण्यक
३.१०.३ में हिमवान् के लिए हस्ती
दान का निर्देश है । हिमवान् का अर्थ सभी प्रकार के तापों से परे की स्थिति हो सकती
है । जब पुराणों में हेमहस्ती रथ दान के निर्देश आते हैं तो उन्हें भी इसी संदर्भ
में समझने की आवश्यकता है । वाल्मीकि रामायण ४.२४.१७ में विभीषण द्वारा भ्रातृ
द्रोह के संदर्भ में पाप हस्ती के रूपक का चित्रण है ।
पुराणों
में ऐसा भी कहा गया है कि जो अण्डकपाल - द्वय थे,
उनको लेकर रथन्तर सामगान करने पर एक हस्ती का प्राकट्य हुआ जिसे इरा को दे दिया
गया । उस इरा से ८ या ४ हस्तियों सुप्रतीक,
वामन,
अंजन आदि का जन्म हुआ । यहां अण्डकपाल द्यौ और पृथिवी रूप हो सकते हैं । रथन्तर
साम द्वारा पृथिवी के तेज की द्युलोक में स्थापना की जाती है,
जैसे
भौतिक रूप में चन्द्रमा में दिखाई देने वाला कृष्ण भाग पृथिवी का रूप है । रथन्तर
साम द्वारा तो ऊर्ध्व - अधो दिशा का रूपान्तरण होता है । लेकिन इस प्रकार उत्पन्न
हस्ती से जिन ८ हस्तियों का जन्म होता है,
उनका विस्तार ८ दिशाओं में,
तिर्यक रूप में होता है ।
पुराणों
में इरा से हस्तियों के जन्म के संदर्भ में इस कथन का कोई वैदिक मूल प्राप्त नहीं
हो पाया है । ऋग्वेद ४.४.१ की ऋचा
'कृणुष्व
पाज: प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवां इभेन'
के संदर्भ में यास्क निरुक्त ६.१२
का कथन है कि यहां इभेन का अर्थ इराभृता गणेन या हस्ती से है । डा. मधुसूदन मिश्र
के अनुसार बहुत से शब्दों का अर्थ एकाक्षर कोश के आधार पर ही समझा जा सकता है । इस
प्रकार अग्नि पुराण ३४८ में एकाक्षर कोश में इ एकाक्षर का अर्थ काम,
रति व
लक्ष्मी दिया गया है । भौतिक पृथिवी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के रूप में रति
विद्यमान है । हमारे व्यक्तित्व में मन की रति बहुत से सांसारिक पदार्थों में है ।
वनस्पति जगत की उत्पत्ति इरा प्राण से कही जाती है । वनस्पतियों का वर्धन
गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में होता है । अतः यह विचारणीय है कि क्या
हस्ती में भी कहीं इरा के गुण विद्यमान हैं
?
योगवासिष्ठ में विवेक व वैराग्य को हस्ती के दन्त - द्वय कहा गया है । वैराग्य राग
का अन्त होना है । इस राग को ही रति कहा जा सकता है ।
यह
विचारणीय है कि महाभारत में हस्तिनापुर में कौरवों और पाण्डवों के युद्ध की
व्याख्या हस्ती के गुणों के आधार पर किस प्रकार की जा सकती है । डा. शेषाद्रि के
अनुसार धतृराष्ट्र मन का प्रतीक है जबकि पाण्डव बुद्धि के । एक आधार हस्ती के दन्त
- द्वय हो सकते हैं जिन्हें विवेक और वैराग्य कहा गया है । महाभारत अनुशासन पर्व
में इन्द्र द्वारा धृतराष्ट्र का रूप धारण करके गौतम के हस्ती को चुराने का आख्यान
है । डा. फतहसिंह के अनुसार राष्ट्र शब्द राष्ट्री,
मेरुदण्ड का संकेतक है । धृत का अर्थ होगा जिसका मेरुदण्ड पाशों से युक्त है ।
हस्ती के
रहस्य को गणेश पुराण १.५६
के आधार पर भी समझ सकते हैं जहां कहा गया है कि एक गणेश - भक्त भ्रूशुण्ड को गणेश
का रूप प्राप्त हो गया । इस कथन में भ्रूशुण्ड शब्द महत्त्वपूर्ण है । यह संकेत
करता है कि हाथी की शुण्ड रहस्यात्मक रूप में भ्रूमध्य की ज्योति का पृथिवी पर,
पार्थिव स्तर पर विस्तार है । और यह भी ध्यान देने योग्य है कि भ्रूमध्य की
ज्योति का मूल यह पार्थिव स्तर का शरीर ही है । जब पार्थिव स्तर शुद्ध होता है,
तभी
भ्रूमध्य की ज्योति तीव्र होती है । अतः इसे एक प्रकार से रथन्तर साम का रूप कह
सकते हैं ।
जैमिनीय
ब्राह्मण १.११ में प्रातःकाल उदित
होने वाले और सायंकाल अस्त होने वाले सूर्य को हस्ती का रूप दिया गया है । कहा गया
है कि जब सायंकाल अग्नि में अस्त होते हुए सूर्य को आहुति दी जाती है तो पुरुष उस
हस्ती रूपी सूर्य पर आरूढ हो जाता है । जब प्रातःकाल उदित होते हुए सूर्य को आहुति
दी जाती है तो पुरुष उस हस्ती रूपी सूर्य पर आरूढ होकर उदित होता है । इसका
तात्पर्य यह लिया जा सकता है कि एक तो विवस्वान् सूर्य है जो उदय - अस्त में भाग
नहीं लेता । जिस सूर्य का उदय - अस्त होता है,
उसे हस्ती का स्वरूप दिया गया है । यह हस्ती रूपी सूर्य अपने शुण्ड रूपी कर से
पृथिवी से जल आदि का आदान करता है और फिर उसका वर्षण पृथिवी पर करता है । भौतिक
सूर्य के संदर्भ में हस्ती की इस शुण्ड को सूर्य की रश्मियां कह सकते हैं । वही
सूर्य के कर हैं । जैमिनीय ब्राह्मण
३.३५९ का कथन है कि हस्ती पुरुष को हस्त से उठाकर अपने पृष्ठ पर आरूढ कर लेता
है,
उसी
प्रकार यह देवता विद्वान् को अपनी उरु रश्मियों द्वारा उठाकर - - - पर आरूढ कर लेता
है । इन उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि हस्ती पर आरूढ पुरुष की स्थिति
महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह हस्ती का नियन्त्रण करने वाला होता है ।
व्यावहारिक रूप में हस्ती रूपी सूर्य को इस प्रकार समझा जा सकता है कि क्षुधा की
अधिकता होने पर सारे शरीर के प्राण ऊर्ध्वमुखी हो जाते हैं और शीर्ष भाग की ओर गमन
करने लगते हैं । यही कारण है कि व्रत - उपवास में शिर में दर्द आदि व्यथा होने लगती
है । यह आरम्भिक अवस्था है । उन्नत स्थिति में यह व्यथा आनन्द में भी बदल सकती है ।
उन्नत स्थिति में हस्ती रूपी सूर्य द्वारा पादतलों से भी कर्षण की अनुभूति होनी
चाहिए ।
ऐतरेय
ब्राह्मण ६.२७ में हस्ती को शिल्पों में से एक कहा गया है । उपरोक्त कथन से यह
स्पष्ट है ।
भागवत
पुराण के आठवें स्कन्ध
८.२
में गज - ग्राह की कथा आती है जो सर्वविदित है । कहा गया है
कि राजा इन्द्रद्युम्न जब अपना राजापाट छोडकर एकान्त में तपस्या करने लगा तो
अगस्त्य के शाप से हस्ती बन गया । दूसरी ओर हू हू गन्धर्व देवल मुनि के शाप से
ग्राह बन गया था । ग्राह द्वारा पीडित होने पर गज द्वारा आर्त अवस्था में विष्णु को
पुकारने पर विष्णु ने सुदर्शन चक्र से ग्राह का गला काट दिया और गज की रक्षा की (यह
ध्यान देने योग्य है कि पद्म पुराण में ग्राह को अम्बु हस्ती कहा गया है ) । इस कथा
में इन्द्रद्युम्न किसी ज्योति का प्रतीक है जिसे अगस्त्य ने शाप देकर हस्ती बनाया
है,
उस
ज्योति का विस्तार चेतना के निम्न स्तरों पर किया है । अन्यत्र गज को हा हा गन्धर्व
का शापित रूप कहा गया है । हा हा को जह - त्यागे धातु के द्वारा समझा जा सकता है -
जिसका उद्देश्य त्याग करना है । कामनाओं का त्याग सरल नहीं है । केवल ईश्वर की कृपा
से ही कामनाओं का त्याग करना,
अन्तर्मुखी होना संभव है । दूसरी ओर,
जो सभी कामनाओं का प्रत्यक्ष उपभोग करना चाहता है,
उनका
आह्वान करता है,
उसे हू
हू गन्धर्व कह सकते हैं,
आहूत करने वाला । हू हू को निचले प्रकार के आनन्द की स्थिति भी कह सकते हैं ।
गज बने हा हा की मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक वह स्तुति से युक्त न हो जाए ।
दूसरी ओर,
जो सभी कामनाओं का उपभोग करना चाहता है,
उसको सुदर्शन चक्र रूपी सम्यक् दर्शन की आवश्यकता है ।
सुदर्शन चक्र दु:स्वप्नों का नाश करता है । दु:स्वप्न का अर्थ है मन की कामना कि
संसार में जो कुछ हो रहा है,
वह मेरे मन के अनुकूल होना चाहिए,
प्रतिकूल नहीं । सम्यक् दर्शन वाला व्यक्ति इस कामना से मुक्त हो जाता है ।
वैदिक
मन्त्रों में हस्ती शब्द में त अक्षर उदात्त है,
जबकि हस्त शब्द में ह अक्षर उदात्त है । ह अक्षर विशुद्धि चक्र का बीज मन्त्र
है । विशुद्धि चक्र में व्यञ्जन रूपी जडत्व का लोप होकर केवल शुद्ध स्वर रह जाते
हैं ।
शतपथ
ब्राह्मण सप्तम काण्ड का नाम
हस्तिषट्/हस्तिघट है । इस नामकरण का क्या कारण है,
यह अज्ञात ही है । इस काण्ड के पूर्व काण्ड का नाम उखा संभरण है और इसके
पश्चात् के २ काण्डों का नाम चिति और संचिति है । हस्तिषट् नाम वाले इस काण्ड में
पहले सोमयाग की भांति प्रवर्ग्य आदि कर्मों का वर्णन है और फिर अग्नि चिति का,
जिसके
अन्तर्गत उखा में पांच पशुओं के शीर्षों की स्थापना की जाती है । उखा का संदर्भ यह
संकेत करता है कि हस्ती में जो त्वेष,
ऊष्मा विद्यमान है,
उसका रूपान्तरण उषा के स्तर तक करना है ।
योगवासिष्ठ ६.१.१२६.७८ का कथन है कि इच्छा करिणी है,
शरीर
कानन है जिसमें यह करिणी विचरती है । मत्तेन्द्रियां इस करिणी का शावक है,
कर्म(शुभाशुभ?)
इसके दो
दांत हैं,
मद वासना
व्यूह है,
संसार
दृष्टियां समरभूमियां हैं । योगवासिष्ठ में ही अन्यत्र कहा गया है कि विवेक व
वैराग्य इसके दन्त - द्वय हैं । हस्ती के प्रत्येक
अंग को उच्चतर स्तर पर स्थापित करने की संभावना बनती है । वाल्मीकि रामायण
३.३१.४६ में राम के लिए कहा गया है कि हस्ती रूपी राम के लिए तेज मद रूप है,
विशुद्ध वंशाभिजन उसका अग्रहस्त है ।
हस्ती के
गज नाम का कोई मूल प्रत्यक्ष रूप से वैदिक साहित्य में प्राप्त नहीं होता ।
Elephant as seat
of bij mantra of Vishuddhi chakra Both puraanic and vedic texts mention that Aditi, the mother of 8 suns, gave
birth first to seven suns and then to an egg. When the egg was broken, no life
was found in it, only luster was there. Puraanic text mentions that life was not
visible due to excess luster. This was called a dead egg. The luster was
reconfigured, from which a personality free from bondage was born. The remainder
of the luster gave birth to an elephant. This remaining luster clears the
mystery of elephant. Our whole personality is this remaining luster. Hence this
is a form of elephant. Yoga Vaasishtha states that desire is the female
elephant, body is the forest where this elephant roams, senses are the child of
this elephant, action are it's two tusks, rut/intoxication is the group of
impressions on unconsciousness and our outer world view is the battle ground. It
seems that what has been called the rut of elephants, vedic texts name it as
heat. This heat can be of sexual desires, anger etc. This heat has to be
converted into light, the dawn. The sun which rises and sets is the developed
form of elephant. The personality which is free from impressions can not have
rise or set. Just as the outer sun draws water through it's rays, in the same
way, the elephant draws water with it's trunk. Then after purification, this is
returned in the form of rain. There is another use of trunk also. An elephant
can catch somebody with it's trunk and place him on it's back. One is supposed
to sit on the back of sun/elephant. There is a practical aspect of elephant. When we feel hungry, our whole body
is drawn upwards. Then the light of third eye becomes strong. The traction
is supposed to come from the whole body, specially from feet. First published : 30-7-2008 AD( Shraavana krishna chaturdashee, Vikrama
samvat 2065)
संदर्भाः
हस्त्यारोहण मन्त्र : इन्द्रस्य त्वा वज्रेणाभितिष्ठामि स्वस्ति मा संपारय - - -
(पारस्कर गृह्य सूत्र ३.१५.१)
*पुरोहित द्वारा ह्स्ती अभिमन्त्रण मन्त्र :
ह॒स्ति॒व॒र्च॒सं प्र॑थतां बृ॒हद् यशो॒ अदि॑त्या॒ यत् त॒न्वः संब॒भूव॑। तत् सर्वे॒
सम॑दु॒र्मह्य॑मे॒तद् विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑॥
मि॒त्रश्च॒ वरु॑ण॒श्चेन्द्रो॑ रु॒द्रश्च॑ चेततु। दे॒वासो॑ वि॒श्वधा॑यस॒स्ते
मा॑ञ्जन्तु॒ वर्च॑सा॥
येन॑
ह॒स्ती वर्च॑सा संब॒भूव॒ येन॒ राजा॑ मनु॒ष्येष्व॒प्स्व॑१॒न्तः। येन॑ दे॒वा
दे॒वता॒मग्र आय॒न् तेन॒ माम॒द्य वर्च॒साग्ने॑ वर्च॒स्विनं॑ कृणु॥
यत् ते॒
वर्चो॑ जातवेदो बृ॒हद् भ॑व॒त्याहु॑तेः। याव॒त् सूर्य॑स्य॒ वर्च॑ आसु॒रस्य॑ च
ह॒स्तिनः॑। ताव॑न्मे अ॒श्विना॒ वर्च॒ आ ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा॥
याव॒च्चत॑स्रः प्र॒दिश॒श्चक्षु॒र्याव॑त् समश्नु॒ते। ताव॑त् स॒मैत्वि॑न्द्रि॒यं मयि॒
तद्ध॑स्तिवर्च॒सम्॥
ह॒स्ती
मृ॒गाणां॑ सु॒पदा॑मति॒ष्ठावा॑न् ब॒भूव॒ हि। तस्य॒ भगे॑न॒ वर्चसा॒भि षि॑ञ्चामि॒
माम॒हम्॥ - अथर्ववेद ३.२२
१,०६४.०७ महिषासो मायिनश्चित्रभानवो
गिरयो न स्वतवसो रघुष्यदः ।
१,०६४.०७ मृगा इव हस्तिनः खादथा वना यदारुणीषु तविषीरयुग्ध्वम् ॥
३,०३६.०७ समुद्रेण सिन्धवो यादमाना
इन्द्राय सोमं सुषुतं भरन्तः ।
३,०३६.०७ अंशुं दुहन्ति हस्तिनो भरित्रैर्मध्वः पुनन्ति धारया पवित्रैः ॥
४,०१६.१४ सूर उपाके तन्वं दधानो वि
यत्ते चेत्यमृतस्य वर्पः ।
४,०१६.१४ मृगो न हस्ती तविषीमुषाणः सिंहो न भीम आयुधानि बिभ्रत् ॥
५,०६४.०७ उच्छन्त्यां मे यजता
देवक्षत्रे रुशद्गवि ।
५,०६४.०७ सुतं सोमं न हस्तिभिरा पड्भिर्धावतं नरा बिभ्रतावर्चनानसम् ॥
८,०८१.०१ आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं
चित्रं ग्राभं सं गृभाय ।
८,०८१.०१
महाहस्ती दक्षिणेन ॥
९,०८०.०५ तं त्वा हस्तिनो
मधुमन्तमद्रिभिर्दुहन्त्यप्सु वृषभं दश क्षिपः ।
९,०८०.०५ इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिः पवमानो अर्षसि ॥ (३.२२.१ ) हस्तिवर्चसं प्रथतां बृहद्यशो अदित्या यत्तन्वः
संबभूव । (३.२२.१ ) तत्सर्वे समदुर्मह्यमेतद्विश्वे देवा अदितिः सजोषाः
॥१॥ (३.२२.४ ) यत्ते वर्चो जातवेदो बृहद्भवत्याहुतेः । (३.२२.४ ) यावत्सूर्यस्य वर्च आसुरस्य च हस्तिनः । (३.२२.४ ) तावन् मे अश्विना वर्च आ धत्तां पुष्करस्रजा ॥४॥ (४.३६.९ ) ये मा क्रोधयन्ति लपिता हस्तिनं मशका इव । (४.३६.९ ) तान् अहं मन्ये दुर्हितान् जने अल्पशयून् इव ॥९॥ (६.३८.२ ) या हस्तिनि द्वीपिनि या हिरण्ये त्विषिरप्सु गोषु या
पुरुषेषु । (६.३८.२ ) इन्द्रं या देवी सुभगा जजान सा न ऐतु वर्चसा संविदाना
॥२॥ (६.७०.२ ) यथा हस्ती हस्तिन्याः पदेन पदमुद्युजे । (६.७०.२ ) यथा पुंसो वृषण्यत स्त्रियां निहन्यते मनः । (६.७०.२ ) एवा ते अघ्न्ये मनोऽधि वत्से नि हन्यताम् ॥२॥ (९.३.१७ ) तृणैरावृता पलदान् वसाना रात्रीव शाला जगतो निवेशनी । (९.३.१७ ) मिता पृथिव्यां तिष्ठसि हस्तिनीव पद्वती ॥१७॥ (१२.१.२५ ) यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसु भगो रुचिः । (१२.१.२५ ) यो अश्वेषु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु । (१२.१.२५ ) कन्यायां वर्चो यद्भूमे तेनास्मामपि सं सृज मा नो
द्विक्षत कश्चन ॥२५॥ (२०.१३१.१९ ) अत्यर्धर्च परस्वतः ॥१९॥ (२०.१३१.२० ) दौव हस्तिनो दृती ॥२०॥
त उ हैत ऊचुः । देवा आदित्या यदस्मानन्वजनिमा तदमुयेव
भूद्धन्तेमं विकरवामेति तं विचक्रुर्यथायं पुरुषो विकृतस्तस्य यानि मांसानि संकृत्य
संन्यासुस्ततो हस्ती समभवत्तस्मादाहुर्न हस्तिनं प्रतिगृह्णीयात्पुरुषाजानो हि
हस्तीति यमु ह तद्विचक्रुः स विवस्वानादित्यस्तस्येमाः प्रजाः
ता वा अस्यैता
हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्नस्तावताणिम्ना तिष्ठन्ति शुक्लस्य
नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णा अथ यत्रैनं घ्नन्तीव जिनन्तीव हस्तीव
विचाययति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद्भयं पश्यति तदत्राविद्यया भयं मन्यतेऽथ यत्र
राजेव देवैवाहमेवेदं सर्वमस्मीति मन्यते सोऽस्य परमो लोकोऽथ यत्र सुप्तो न कं चन
कामं कामयते न कं चन स्वप्नं पश्यति
एतद्ध वै तज्जनको
वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु
हो तद्गायत्रीविदब्रूथा अथ कथं हस्ती भूतो वहसीति मुखं ह्यस्याः सम्राण्न विदां
चकरेति होवाच। तस्या अग्निरेव मुखम्
यदि ह वा अपि बह्विवाग्नावभ्यादधति सर्वमेव तत्संदहत्येवं हैवैवंविद्यद्यपि
बह्विव पापं करोति सर्वमेव तत्सम्प्साय शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति
अथ यद्
एते प्रातराहुती जुहोत्य् उत्थापयत्य् एवैनं ताभ्याम्। स यथा हस्ती हस्त्यासनम्
उपर्य् आसीनम् आदायोत्तिष्ठेद् एवम् एवैषा देवतैतद् विद्वांसं जुह्वतम् आदायोदैति॥
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जै.ब्रा. 1.11
तद् वै
तद् अग्निहोत्रं द्वादशाहम् एव पूर्वे मनुष्या जुहुवांचक्रुः। तस्मात् तेषां दुहे
धेनुर् वहत्य् अनड्वान् आदधानः प्रहितो ऽश्वो ऽश्वतर उपतिष्ठत्य अधि? क्ष्यो हस्ती वहति॥1.38॥
अथ यत्
त्रिष्टुभं गायति -- क्षत्रं वै त्रिष्टुप्। एनानि वै क्षत्रे शिल्पानि हस्तिनिष्को
ऽश्वतरीरथो ऽश्वरथो रुक्मः कंसः -- तान्य् एव तद् आहृत्य ब्रह्मण्य् अनक्ति॥
अथ यज् जगतीं गायति
- - विड् वै जगती। एतानि वै विशि शिल्पानि गोऽश्वं हस्तिहिरण्यम् अजाविकं
व्रीहियवास् तिलमाषास् सर्पिः क्षीरं रयिः पुष्टिः -- तान्य् एव तद् आहृत्य
ब्रह्मण्य् अनक्ति॥ - जै.ब्रा. 1.263
यत्र वै
बहुवर्षी पर्जन्यो भवति कल्याणो वै तत्र बलीवर्दो ऽश्वतरो हस्ती निष्कः पुरुषः।
रूपंरूपं वाव तत्र कल्याणम् आजायत इत्य् एतद् ध तद् विद्वान् उवाच। यो वै देवांश् च
मनुष्यांश् च व्यावर्तयति वि पाप्मना वर्तते॥ - जै.ब्रा. 1.274
तद् यद्
एतानि सामानि संवत्सरे क्रियन्ते ऽथातो ऽग्निष्टोमसाम्नाम् एव गानम्। यथा राज्ञः
परिष्कारश् शार्दूलाजिनं मणिहिरण्यं हस्ती निष्को ऽश्वतरीरथो ऽश्वरथो
रुक्मः कंसस् त एवम् एष ऐतेषां साम्नां परिष्कारः।
- जै.ब्रा. 1.341
तद् इद्
आस भुवनेषु ज्येष्ठम् इति रथस्य हैतद् रूपम्। तस्मात् तम् अभिहायैव तिष्ठन्ति। मह
स्तवानो अद्रिव इति हस्तिनो हैतद् रूपम्। तस्मात् तं पार्श्वत इवाधिरोहन्ति। तानि
वा एतानि महद्रूपाणि संपद्यन्ते। -
जै.ब्रा. 2.12
यथा ह वै दृढा मेधी निहतैवम् एकविंश स्तोमानाम्।
तस्मिन्न् एतान् पशून् आलभन्ते - हस्तिनं परमं प्लुषिम् अवमम्। तान्
पर्यग्निकृत्वैकान् लभन्त,
उद् एकान् सृजन्ते।
ब्रह्म वा अग्निः। ब्रह्मणैवैनांस् तत् पर्यग्निकृत्वैकान् लभन्त,
उद् एकान् सृजन्ते। तस्य महानाम्न्यः पृष्ठं भवन्ति। - जै.ब्रा. 2.274
यद् इदम् गो अश्वं हस्तिहिरण्यम् अजाविकं व्रीहियवास्
तिलमाषा इति,
तद् धास्य बह्व आस। - जै.ब्रा. 2.278
अथ य
आसाम् अलंकारान् वेदालंकुर्वन्तो ऽस्यासते गृहेष्व् अंशुं रुक्मं निष्कं हस्तिनम्
अश्वतरीरथम् अश्वरथम्। स्तोभा ह वा आसाम् अलंकाराः। ता अलंकुर्वन्न् इव शोभयन्न् इव
गायेत्। - जै.ब्रा. 3.113
अथ
यस्माद् दशमे ऽहनि पञ्चदशत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ भवतस् तस्माद् उ यौ ज्येष्ठौ पशूनां
तौ युक्तौ वहतो हस्ती चोष्ट्रश् च॥3.181॥
तद् यथा
विजितेन यन्ति सैन्धवान् अजन्ति हस्तिनं वहन्ति धूर्गृहीतं रथं याति हुलुभ्यां याति
विच्छिद्वहाभ्याम् एवं गर्दभरथेन । -
जै.ब्रा. 3.328
स यथा
हस्ती हस्तेनादाय पृष्ठ्ये ऽध्यस्येतैवम् एवैषा देवतैतद् विद्वांसम् उरुभी
रश्मिभिर् आदायावरीयस्व् अध्यस्यते। तमस्य् एष लोको य एतस्मात् पराचीनः॥3.359॥
स
योऽनुदिते जुहोति, यथा पुरुषाय वा हस्तिने वाऽप्रयते हस्त आदध्यात् तादृक्तदथ य
उदिते जुहोति, यथा पुरुषाय वा हस्तिने वा प्रयते हस्त आदध्यात् तादृक्तत्, तमेष
एतेनैव हस्तेनोर्ध्वं हृत्वा स्वर्गे लोक आदधाति, य एवं विद्वानुदिते जुहोति,
तस्मादुदिते होतव्यम्॥ - ऐ.ब्रा. 5.31
या
हस्तिनि द्विपिनि या हिरण्ये । 0 त्विषिर् अश्वेषु
पुरुषेषु गोषु । VERSE: 2
{ 2.7.7.2}
इन्द्रं या देवी सुभगा
जजान ।
सा न आगन् वर्चसा
संविदाना ।
अनुवाक
9
VERSE: 1
{ 3.4.9.1}
अर्मेभ्यो हस्तिपम् ।
जवायाश्वपम् ।
सिन्धु
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