PURAANIC SUBJECT INDEX पुराण विषय अनुक्रमणिका (Suvaha - Hlaadini) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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Puraanic contexts of words like Hara, Hari, Harishchandra etc. are given here. हयन्ती स्कन्द ५.३.१९८.६६,
हयपति कथासरित् ७.४.४
हयशिरा अग्नि ३४८.१४, देवीभागवत १.४, ४.२२.४३(हयशिरा के केशी रूप में अवतरण का उल्लेख), ब्रह्माण्ड २.३.१३.४६(हयशिर : श्राद्ध हेतु तीर्थ), भागवत ६.६, ६.८.१७(हयशीर्ष से देवहेडना से रक्षा की प्रार्थना), वामन ९०.२(कृष्णा में विष्णु का हयशीर्ष नाम से वास), वा.रामायण १.२७.११(राम द्वारा हयशिरा अस्त्र की प्राप्ति ), द्र. वंश दनु, hayashiraa हयशिरा ( हयग्रीव )-भगवान् का एक अवतार । इनका विशेष वर्णन ( शान्ति० ३४७ अध्याय) ।
हयारि वामन १७
हर ब्रह्मवैवर्त्त १.१९.४९(हर से अधरोष्ठ की रक्षा की प्रार्थना), भविष्य ३.३.१३.११३(हरानन्द : नेत्रसिंह - अनुज, शाबरी माया द्वारा भ्राता को बन्धन से मुक्त करना), स्कन्द ५.१.१९, वा.रामायण ६.२७.३(सारण द्वारा रावण को राम - सेनानी हर वानर का परिचय), ७.५.४५(माली व वसुदा - पुत्र, विभीषण - मन्त्री ), लक्ष्मीनारायण ३.२३४, ३.२३४.२६हरसती, कथासरित् ५.१.७०हरपुर, १०.९.६५हरघोष, hara हर-, १) एक विख्यात दानव, जो दनु के गर्भ से कश्यप- द्वारा उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६५ । २५) । यह राजा सुबाहु के रूप में पृथ्वी पर पैदा हुआ था ( आदि० ६७ । २३-२४) । ( २) महादेवजी, ये स्कन्द के अभिषेक में पधारे थे ( शल्य० ४५ । १०) । हर ग्यारह रुद्रों में से एक हैं ( शान्ति० २०८ । १९) । हरणाहरणपर्व-आदिपर्व का एक अवान्तर पर्व ( अध्याय २२०) ।
हरण ब्रह्मवैवर्त्त २.९(भूमि हरण), मार्कण्डेय ५१(स्वयंहारी द्वारा सर्वसिद्धियों का हरण ), द्र. जातहारिणी harana
हरदत्त भविष्य ३.२.१८(मोहिनी - पुत्र, पितरों हेतु पिण्डदान से तीन हस्तों की उत्पत्ति), कथासरित् ५.३.१९५,
हरसिद्धि स्कन्द १.२.४७.६०(हरसिद्धि दुर्गा का माहात्म्य), ४.२.७०.४५ (हरसिद्धि देवी का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.१.१९(चण्ड - प्रचण्ड दैत्यों का हनन करने पर पार्वती द्वारा प्राप्त नाम ) harasiddhi
हरस्वामी स्कन्द ५.२.७८.१७
हरि अग्नि १९६(नक्षत्र अनुसार हरि के अङ्गों की पूजा), ३४८.१३(क्ष एकाक्षर से नृसिंह व हरि आदि के बोध का उल्लेख), गरुड १.९१+ (हरि के ध्यान का स्वरूप), १.९२.१६(आत्मा के हरिर्हरि रूप में ध्यान का निर्देश), १.२१५.६/१.२२३.६(कृतयुग में हरि के धर्मपाता होने का उल्लेख), १.२१५.९/१.२२३.९(त्रेतायुग में हरि के रक्तवर्ण होने का उल्लेख), ३.२.३५(अनन्त गुण पूर्णता से हरि की ब्रह्म संज्ञा), ३.६(तत्त्वाभिमानी देवों द्वारा हरि की स्तुति), नारद १.२१(मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी से हरि पञ्चक व्रत), १.६६.९४(हरि की शक्ति शुद्धि का उल्लेख), पद्म ६.१२८.२०१(देवद्युति विप्र द्वारा हरि की स्तुति), ६.२२६.८७(हरि की निरुक्ति : मकडी की भांति सृजन करके हरण करने वाले), ब्रह्मवैवर्त्त ४.१२.१८(श्रीहरि से वक्त्र की रक्षा की प्रार्थना), ब्रह्माण्ड १.२.१९.५६(हरि पर्वत के प्रभाकर वर्ष का उल्लेख २.३.३.६६(जय देवों का तामस मन्वन्तर में हरि देव गण बनने का उल्लेख), २.३.४.३०(तुषित देवों का हरिणी से जन्म लेकर हरि देवगण बनना, हरियों का वैकुण्ठ देवगण बनना), २.३.७.३२३(हरियों/वानरों के वंश का वर्णन), भविष्य २.१.१७.३(अयुत याग में अग्नि का नाम), भागवत २.७.२(रुचि व आकूति के पुत्र सुयज्ञ की हरि नाम से ख्याति का कारण - आर्तिहरण), ८.१.२८(तामस मन्वन्तर में देवों के गण में एक), १०.६.२३(चक्री से अग्र व हरि से पश्चात् की रक्षा की प्रार्थना), ११.२.२१(ऋषभ के १०० पुत्रों में से एक), ११.२.४५(ऋषभ - पुत्र, निमि को भक्त के लक्षण सम्बन्धी उपदेश), मत्स्य २३.२१(चन्द्रमा के यज्ञ में उपद्रष्टा/ब्रह्मा), योगवासिष्ठ ५.५१.३४(सत्त्वावबोध का रूप, मातंग का वध), वामन ६.१(धर्म के चार पुत्रों में से एक), ९०.३८(पाताल में विष्णु की हरिशंकर नाम से प्रतिष्ठा का उल्लेख), वायु ६९.२०२(हरि व पुलह के हरयः पुत्रों की गोलाङ्गूल आदि संज्ञाएं), विष्णुधर्मोत्तर १.७३.२०(कृतयुग में हरि के श्वेत वर्ण तथा धर्म की अवस्था का कथन), १.२३७.३(कवच में हरि से शिर की रक्षा की प्रार्थना), ३.१५१.३(चतुरात्मा हरि के नर, नारायण, हय/हरि, हंस/कृष्ण रूपों का कथन), स्कन्द ३.१.४९.५७(वायु द्वारा हर - हरि रूप में रामेश्वर की स्तुति), ४.१.२०.५(हरि की भूतों में व्याप्ति का कथन), ४.२.६१.२३२(हरि/विष्णु मूर्ति के लक्षण), ५.३.३८.१९(विप्र के मन्युप्रहरण व हरि के चक्रप्रहरण होने का कथन), ५.३.१९२.१०(धर्म व साध्या के ४ पुत्रों नर, नारायण, हरि, कृष्ण का उल्लेख), हरिवंश ३.८०.७१(हरि से महाभूतों से रक्षा की प्रार्थना), लक्ष्मीनारायण १.२६५.१४(हरि की शक्ति हिरण्या का उल्लेख), १.२८३.१(हरि पञ्चक व्रत), १.३०३(मूर्ति द्वारा अधिमास एकादशीव्रत से नर, नारायण, हरि, कृष्ण की पुत्र रूप में प्राप्ति), २.६.७(हरि की निरुक्ति - दुःखहरण), २.२५२.१०५(दिवस में कृष्ण व रात्रि में हरि के भजन का उल्लेख), २.२६१.२४(हरि की निरुक्ति - दुःखहरण), २.२७२.१७(हरि का श्रीवल्लभ रूप में अवतरण), ३.२१.४४(हरि सूक्त का कथन), ३.६०.२८(विष्णु भक्ति की अपेक्षा हरि भक्ति की श्रेष्ठता का उल्लेख ), ३.१६४.६६(दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर में बलिशत्रु वध हेतु हरि अवतार का कथन), ३.१७०.१५(षोडशम् हारेयधाम का उल्लेख), ४.६०, द्र. धर्महरि, नरहरि, नृहरि, भूगोल, मन्वन्तर, hari हरि-, १) रावण की सेवा में रहने वाले पिशाच तथा अधम राक्षसों का एक दल, जिसने वानरों की सेना पर धावा किया था ( वन० २८५ । १ -२) । ( २) गरुड के महाबली तथा यशस्वी वंशजों में से एक ( उद्योग० १०१ । १३) । ( ३) घोडों का एक भेद, जिसके गर्दन के बडे बडे बाल और शरीर के रोयें सुनहरे रंग के हों, जो रंग मे रेशमी पीताम्बर के समान जान पहता हो, वह घोडा हरि कहलाता हैं ( द्रोण० २३ । १३) । ( ४) राजा अकम्पन का पुत्र, जो बल में भगवान् नारायण के समान, अस्त्रविद्या में पारङ्गत, मेधावी, श्रीसम्पन्न तथा युद्ध में इन्द्र के तुल्य पराक्रमी था । यह युद्धक्षेत्र में शत्रुओं के हाथ मारा गया था ( द्रोण० ५२ । २७-२९) । इसकी मृत्यु का वर्णन ( शान्ति० २५६ । ८) । ( ५) एक असुर, जो तारकाक्ष का महाबली वीर पुत्र था । इसने तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके उनसे वरदान पाकर तीनों पुरों में मृतसंजीवनी बावली का निर्माण किया था ( कर्ण० ३३ । २७-३०) । ( ६) पाण्डवपक्ष का एक योद्धा, जो कर्ण द्वारा मारा गया था ( कर्ण० ५६ । ४९-५०) । ( ७) स्कन्द का एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६१) । ( ८) श्रीकृष्ण का एक नाम तथा इस नाम की निरुक्ति ( शान्ति० ३४२ । ६८/३५२.३) ।
हरिकर स्कन्द २.४.७.२२(दुष्ट चरित्र वाले हरिकर की कार्तिक में दीपदान से मुक्ति),
हरिकेश कूर्म १.४३.५(सूर्य की हरिकेश रश्मि द्वारा नक्षत्रों का पोषण), ब्रह्माण्ड १.२.२४.६८( सूर्य की पूर्वदिशा में हरिकेश रश्मि के ऋक्षयोनि होने का उल्लेख), मत्स्य १८०(पूर्णभद्र - पुत्र हरिकेश यक्ष द्वारा वाराणसी में तप, शिव भक्ति वर की प्राप्ति, उद्भ्रम-संभ्रम गणद्वय की प्राप्ति), स्कन्द ४.१.३२.४६ (पूर्णभद्र व कनककुण्डला - पुत्र हरिकेश यक्ष द्वारा काशी में तप से दण्डपाणि पद की प्राप्ति, संभ्रांति-उद्भ्रांति नाशक, अपरनाम पिङ्गल ), लक्ष्मीनारायण १.५५९.३८(हरिकेश द्विज द्वारा राजा से प्रतिग्रह स्वीकार करने के कारण प्रेत बनना, कुब्जा-रेवासंगम में स्नान से उद्धार), harikesha
हरिजटा वा.रामायण ५.२३.९(हरिजटा राक्षसी द्वारा सीता को रावण का वरण करने का परामर्श),
हरिण गर्ग ७.४०, भागवत ११.७.३४(दत्तात्रेय द्वारा हरिण से शिक्षा), ११.८, स्कन्द ७.१.३३.५४(पञ्चस्रोता सरस्वती में से एक, हरिण ऋषि द्वारा हरिणी नामक सरस्वती का आह्वान), योगवासिष्ठ १.१६.८(हरिण की भोग रूपी दूर्वा के अभिलाषी मन से उपमा), ५.५१.३४(सत्त्वावबोध का रूप ), ६.२.११८, कथासरित् १०.५.१२२, harina हरिण, १) ऐरावतकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हो गया था ( आदि० ५७ । ११-१२) । ( २) बिडालोपाख्यान में आये हुरु नेवले का नाम ( शान्ति० १३८ । ३१) । हरिणाश्व-एक प्राचीन नरेश, जिन्हे महाराज रघु से खड्ग की प्राप्ति हुई थी और उन्होंने वह खड्ग शुनक को प्रदान किया था ( शान्ति० १६६ । ७८-७९) ।
हरिणी देवीभागवत १२.६.१५४(गायत्री सहस्रनामों में से एक), भविष्य ३.३.७.३(भीष्म द्वारा तप से इन्द्र से हरिणी वडवा की प्राप्ति - देहि मे वडवां दिव्यां यदि तुष्टो भवान्प्रभुः ।। इति श्रुत्वा तदा तस्मै वडवां हरिणीं शुभाम् ।।), भागवत ८.१.३०(हरिमेधा - पत्नी, हरि अवतार की माता - तत्रापि जज्ञे भगवान्हरिण्यां हरिमेधसः। हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात्॥ ), स्कन्द ५.३.१४१.१(यत्र सा हरिणी सिद्धा व्याधभीता नरेश्वर ॥ जले प्रक्षिप्य गात्राणि ह्यन्तरिक्षं गता तु सा ।) , ७.१.३५.६५ (हरि द्वारा सरस्वती नदी की सखी रूप में हरिणी नदी को उत्पन्न करना - ब्रह्मासृजत्सखीं तस्याः कपिलां विपुलेक्षणाम् ॥ हरिणीं हरिरप्याशु वज्रिणीमपि देवराट् ॥), लक्ष्मीनारायण १.३८०.८२(कन्या प्राह तदा मां सा पुत्र्यहं परमेष्ठिनः ।देवीनां ब्रह्मसरसां मध्ये नाम्ना हरिण्यहम् ।।),, १.५७४.८४(अथ तीर्थं हारिणं च लुब्धकेन मृगः पुरा । हतो मध्यन्दिने श्रेष्ठः कुरंगो नर्मदातटे ।।), ३.१३१.९(याम्यां महिषीनिष्ठां च नैर्ऋतिं गर्दभीस्थिताम् । वारुणीं मकरस्थां च वायवीं हरिणीस्थिताम् ।।), ४.१०१.१०४(हरिण्यास्तु सुता सम्पद्वती सुतोऽर्थवेदनः ।।), harinee/ harini हरित ब्रह्माण्ड १.२.१९.४४(द्रोण पर्वत के हरित वर्ष का उल्लेख), ३.४.१.८५(हरित देवगण के अन्तर्गत १० नाम), वायु १००.८९(हरित देवगण के अन्तर्गत १० नामों का उल्लेख), शिव ५.२०.२२, हरिवंश २.३८.२९(यदु व नागकन्या - पुत्र, पिता द्वारा सागर में राज्य का निर्देश ), द्र. भूगोल, मन्वन्तर harita
हरिताल गरुड २.३०.५१/२.४०.५१(मृतक की धातु में हरिताल? देने का उल्लेख ), वामन ७२.१५हरिताली, haritaala
हरिताश्व पद्म १.८, मत्स्य १२
हरिदास पद्म ५.७३.३६(हरिदास राजा का कृष्ण की वेणु बनना), भविष्य ३.४.५, ३.४.२२(पूर्व जन्म में मधु ), लक्ष्मीनारायण ३.२१४.७ haridaasa/ haridasa
हरिदीक्षित पद्म ६.१८७
हरिद्रा पद्म ५.१०६.७८(नारद द्वारा पार्वती से हरिद्रा आदि मांगना ) हरिद्रक-कश्यपवंश में उत्पन्न एक प्रमुख नागराज ( आदि० ३५ । १२) ।
हरिद्वार नारद २.६६, पद्म ६.२०(हरिद्वार की प्रशंसा व माहात्म्य), ६.२१७(हरिद्वार का माहात्म्य, कालिङ्ग चाण्डाल का उद्धार ), लक्ष्मीनारायण १.५७१, द्र. गङ्गाद्वार, मायापुरी haridwaara/ haridwara
हरिधाम पद्म ५.७२.१३(हरिधाम मुनि का तप से कृष्ण - पत्नी रङ्गवेणी बनना),
हरिप्रथ लक्ष्मीनारायण ३.३०.११, ३.७९.३३,
हरिप्रिय ब्रह्मवैवर्त्त ३.२२.९(हरिप्रिया लक्ष्मी से कण्ठ की रक्षा की प्रार्थना), भविष्य ३.४.२२(पूर्व जन्म में शम्भु), लक्ष्मीनारायण ४.२६.६०(हरिप्रिया - पति की शरण आदि से तम से मुक्ति का उल्लेख ) haripriya
हरिबभ्रु-एक जितात्मा एवं जितेन्द्रिय मुनि, जो युधिष्ठिर की सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १६) ।
हरिभट कथासरित् ८.३.३६, ८.५.१०८,
हरिमित्र पद्म ३.३०, ६.६२, लिङ्ग २.३.२९(राजा भुवनेश द्वारा हरिमित्र ब्राह्मण का राज्य से निर्वासन ) harimitra
हरिमिश्र लक्ष्मीनारायण ३.५९.२६, ३.५९.४८,
हरिमेध भागवत ८.१, स्कन्द २.४.८(हरिमेध द्वारा सुमेधा से तुलसी माहात्म्य का श्रवण ) harimedha हरिमेधा-एक प्राचीन राजर्षि, जिनके यज्ञ के समान जनमेजय का यज्ञ बताया गया है ( आदि० ५५ । ३) । इनकी कन्या का नाम ध्वजवन्ती था, जो पश्चिम दिशा में निवास करती थी ( उद्योग० ११० १३) ।
हरिवर कथासरित् ९.२.२१५
हरिवर्मा देवीभागवत ६.२०(तुर्वसु उपनाम वाले राजा हरिवर्मा द्वारा विष्णु से हैहय पुत्र की प्राप्ति),
हरिवर्ष देवीभागवत ८.९(हरिवर्ष में प्रह्लाद द्वारा नृसिंह की आराधना), ब्रह्माण्ड १.२.१७.७(हरिवर्ष का वर्णन), भागवत ५.२.१९(आग्नीध्र के ९ पुत्रों में से एक, उग्रदंष्ट्री - पति), वायु ४६.८(हरिवर्ष की महिमा का वर्णन ) harivarsha हरिवर्ष-हेमकूट पर्वत के उत्तर में विद्यमान एक वर्ष, जहाँ उत्तरदिग्विजय के अवसर पर अर्जुन गये थे और उसे अपने अधीन करके बहुत सा रत्न प्राप्त किये थे ( सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ) ।
हरिशर्मा पद्म ७.२०+ (हरिशर्मा ब्राह्मण द्वारा अन्नदान के अभाव में वैकुण्ठ में क्षुधा प्राप्ति, ब्रह्मा से दान माहात्म्य व दान पात्र श्रवण, स्वशरीर के मांस का भक्षण, पुत्र द्वारा अन्न जल दान से मुक्ति ), भविष्य ३.२.२, कथासरित् ६.४.९२, ८.५.१०७,, द्र. सुबाहु harisharmaa
हरिशिख कथासरित् ४.२.५६?, ६.८.११४, ७.६.३३, १०.२.६७, १४.२.५८, १४.४.८८
हरिश्चन्द्र देवीभागवत ६.१२(यज्ञ में वरुण हेतु पुत्र की बलि के अभाव में वरुण का हरिश्चन्द्र को शाप, शुन:शेप के यज्ञ पशु बनने की कथा), ७१०, ७.१४+ (हरिश्चन्द्र को वरुण की कृपा से पुत्र प्राप्ति, शुन:शेप की कथा), ७.१८+ (सत्यव्रत/त्रिशङ्कु - पुत्र, विश्वामित्र के कोप की कथा), ७.१८+ (विश्वामित्र का तप से निषेध करने पर हरिश्चन्द्र का विश्वामित्र से वैर भाव, राज्य ध्वंस, स्वयं का विक्रय आदि, कष्ट प्राप्ति की कथा), ७.१९+ (माधवी - पति, विश्वामित्र को दक्षिणा दान हेतु स्वयं का विक्रय आदि), ७.२४+ (हरिश्चन्द्र द्वारा चाण्डाल बनकर श्मशान की रक्षा, मृत पुत्र रोहित व पत्नी के प्रति नृशंस व्यवहार), ७.३८(हरिश्चन्द्र क्षेत्र में चन्द्रिका देवी की स्थिति का उल्लेख), पद्म ६.३१(हरिश्चन्द्र का सनत्कुमार से संवाद, पूर्व जन्म में इन्द्रद्युम्न, जन्माष्टमी व्रत की महिमा), ६.५६(हरिश्चन्द्र द्वारा सुख प्राप्ति हेतु अजा एकादशी व्रत का अनुष्ठान), ब्रह्म १.६(त्रिशङ्कु व सत्यरथा - पुत्र, रोहित - पिता), २.३४(स्वपुत्र रोहित की वरुणार्थ बलि देने में संकोच पर हरिश्चन्द्र द्वारा जलोदर रोग प्राप्ति, शुन:शेप की यज्ञ - पशु के रूप में कल्पना), भविष्य ३.२.५, भागवत ९.७(हरिश्चन्द्र द्वारा वरुण की कृपा से पुत्र प्राप्ति, इन्द्र द्वारा पुत्र रोहित को पिता से मिलन से रोकना, शुन:शेप यज्ञ पशु द्वारा यज्ञ), मत्स्य १२, १३, मार्कण्डेय ७(हरिश्चन्द्र का विश्वामित्र से संवाद), ८(शैब्या - चाण्डाल उपाख्यान), वायु ८८.११७(त्रिशङ्कु व सत्यरता - पुत्र), शिव ५.३८.१९(, स्कन्द ४.२.६१.७३ (हरिश्चन्द्र तीर्थ का माहात्म्य), ४.२.८४.७९(हरिश्चन्द्र तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.३.१९८.७७(, ६.३(पिता त्रिशङ्कु के चाण्डाल बनने पर हरिश्चन्द्र का राज्याभिषेक), ६.४८(पुत्र प्राप्ति हेतु हरिश्चन्द्र द्वारा उमा - महेश्वर आराधना, शिव से वर प्राप्ति, उमा से शाप व उत्शाप प्राप्ति), ६.१०९(हरिश्चन्द्र तीर्थ में हर लिङ्ग की स्थिति), ७.१.१०.६(हरिश्चन्द्र तीर्थ का वर्गीकरण – जल), हरिवंश १.१३, लक्ष्मीनारायण १.२५६, १.५६९, १.५७३.७०(सूर्य ग्रहण पर हरिश्चन्द्र से प्रतिग्रह ग्रहण करने पर महर्षियों के प्रेत बनने का वृत्तान्त ) harishchandra हरिश्चन्द्र-इक्ष्वाकुवंशी राजा त्रिशङ्कु के पुत्र । इनकी माता का नाम सत्यवती था ( सभा० १२ । १० के बाद दा० पाठ) । ये इन्द्रसभा में सम्मानपूर्वक विराजते हैं ( सभा० ७ । १३) । ये बडे बलवान् और समस्त भूपालों के सम्राट् थे । भूमण्डल के सभी नरेश इनकी आज्ञा का पालन करने के लिये सिर झुकाये खडे रहते थे । इन्होने अपने एकमात्र जैत्र नामक रथ पर चढकर अपने शस्त्रों के प्रताप से सातों द्वीपोंपर विजय प्राप्त कर ली श्री । इन्होंने राजसूय नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया था । इन्होंने याचकों के माँगने पर उनकी माँग से पाँचगुना अधिक धन दान किया था । ब्राह्मणों को धनरत्न देकर संतुष्ट किया था । इसीलिये ये अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक तेजस्वी और यशस्वी हुए हैं तथा अधिक सम्मानपूर्वक इन्द्रसभा में विराजमान होते हैं ( सभा० १२ । ११-१८) । इनकी सम्पत्ति को देखकर चकित हो स्वर्गीय राजा पाण्डु ने नारदजी द्वारा युधिष्ठिर के पास राजसूययज्ञ करनेका संदेश भेजा था ( सभा० १२ । २३-२६) । इनके द्वारा मांसभक्षण का निषेध ( अनु० ११५ । ६१) । ये सायं प्रातःस्मरणीय नरेश हैं ( अनु० १६५ । ५२) ।
हरिश्मश्रु गर्ग ७.३२, ७.३७(हिरण्याक्ष - पुत्र, तिमिङ्गिल वाहन, श्मश्रु/दाढी में मृत्यु का निहित होना, कृष्ण - पुत्र भानु द्वारा वध), ७.४२.१८(पूर्व जन्म में परावसु गन्धर्व - पुत्र ), महाभारत शान्ति ३४२.२३ harishmashru
हरिसिंह कथासरित् ६.८.२११ |