PURAANIC SUBJECT INDEX पुराण विषय अनुक्रमणिका (Suvaha - Hlaadini) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
|
|
Puraanic contexts of words like Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc. are given here. स्नायु कथासरित् ५.३.१७१ स्नेह विष्णु २.४.३८, विष्णुधर्मोत्तर २.८.३१(सप्त स्निग्ध पुरुष के लक्षण), महाभारत शान्ति ३०१.६५(स्नेह पङ्क का रूप ), लक्ष्मीनारायण १.४२५.१२, २.२४५.८१(, ३.१९२.२८(, sneha स्पन्द अग्नि १२३.४(वर्णमाला के स्वरों का नाडी स्पन्दन के साथ उदय विचार, स्वरोदय चक्र का विचार), योगवासिष्ठ ३.३.१५(प्रतिस्पन्द से स्पन्द सृष्टि की उत्पत्ति का उल्लेख), ४.४२(सर्वशक्ति में स्पन्दन का कथन), ५.१३.८८(मन द्वारा स्पन्द/प्राणशक्ति व चित्शक्ति के बीच सम्बन्ध स्थापित करनेv का कथन), ६.१.३१.४०(देह के रथ रूप में स्पन्दन का उल्लेख), ६.१.१०१.४९(स्पन्दरहित चित्त होने का निर्देश), ६.२.८४.२(चिदाकाश रूप भैरव की मनोमयी स्पन्दशक्ति काली का वर्णन ) spanda स्पर्श अग्नि ८७.६(शान्ति कला/तुरीयावस्था में स्पर्श विषय तथा त्वक् इन्द्रिय होने का उल्लेख, स्पर्श के कृकर व कूर्म वायुओं के आधीन होने का कथन), ८८.४४(ब्रह्मरन्ध्र में दिव्य पिपीलिका स्पर्श का कथन), नारद १.४२.९३(स्पर्श वायु के ११ भेद), भविष्य १.३(शरीर पर्व स्पर्श), ३.४.१०.३(स्पर्श मणि), भागवत ३.१०.१९(वनस्पति आदि के अन्त:स्पर्श गुण का उल्लेख), ९.२२.१३(शन्तनु के स्पर्श से शान्ति प्राप्त होने का उल्लेख), वामन १२.४७(पुत्र के स्पर्शवतों में वरिष्ठ होने का उल्लेख), स्कन्द ५.३.६७.१०५, ५.३.२१८.४८(, ७.१.१९८(स्पर्श लिङ्ग : महाप्रभासेश्वर लिङ्ग का युगान्तर में नाम), महाभारत शान्ति १८४.३६(स्पर्श के १२ भेदों का कथन), २३३.११(प्रलय काल में आकाश द्वारा वायु के स्पर्श गुण को ग्रसने का उल्लेख), आश्वमेधिक ५०.४९(वायु के स्पर्श गुण के १२ गुणों का कथन), ९२.१९(अवर्षा के संदर्भ में अगस्त्य के स्पर्श यज्ञ का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.४४७.३२, १.४५०.२४(स्पशो‰ में पुत्र संस्पर्श की श्रेष्ठता का उल्लेख), ३.८२.५३(वात्स्यायन ऋषि को स्पर्श करनेv से गणिकाओं के पाप नाश का वृत्तान्त), ३.१४३.४६(त्रेतान्त में स्पर्श से सृष्टि होने का उल्लेख), ४.१०१.६(तापसों व योगियों द्वारा स्पर्श द्वारा सृष्टि का उल्लेख, देवों द्वारा दर्शन आदि से सृष्टि ) sparsha स्फटिक गरुड १.७९(स्फटिक रत्न की वल असुर के मेद से उत्पत्ति, परीक्षा), पद्म ६.६.२९(वल असुर के मेद से स्फटिक की उत्पत्ति का उल्लेख), शिव २.१.१२.३३(लक्ष्मी द्वारा स्फटिक लिङ्ग की पूजा), ७.२.२९.२७(शिव के पञ्चम मुख के स्फटिक सदृश होने का उल्लेख), स्कन्द ४.१.२१.३१(उपलों में स्फटिक की श्रेष्ठता का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण ३.१६३.१०४, कथासरित् १०.३.१०स्फटिक यश, १२.१९.११९, sphatika स्फुरण लक्ष्मीनारायण ३.१४८.१(देह के अङ्गों में स्फुरणों के फल ) स्फुलिङ्ग स्कन्द १.२.६२.३०(स्फुलिङ्गास्य : क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से एक ) sphulinga स्फूर्ज वायु ६९.१३०(यातुधान, सूर्य अनुचर, निकुम्भ - पिता ), लक्ष्मीनारायण २.५.३३, द्र. रथ सूर्य, विस्फूर्ज sphuurja/sphoorja/ sphurja स्फूर्तिनारी लक्ष्मीनारायण २.२०३, स्फोट स्कन्द ७.१.१४८.४५, द्र. कपालस्फोट स्मर भागवत १०.८५(देवकी के षड्गर्भ संज्ञक पुत्रों में से एक ), शिव २.१.२ smara स्मरण पद्म ६.१३२.१६(भ्रमरी व गोपियों के स्मरण की विशिष्टता का कथन), स्कन्द २.७.२२.२७(केशव के स्मरण से ही तुष्ट हो जाने का उल्लेख ) smarana स्मित द्र. देवस्मिता, शुचिस्मिता स्मृति गरुड १.५.२५(दक्ष - कन्या, अङ्गिरा - पत्नी), गर्ग ५.१५.२४(स्मृति के कौमार - सर्गियों/सनकादि की शक्ति होने का उल्लेख), नारद १.६६.९३(निन्दी विष्णु की शक्ति स्मृति का उल्लेख), पद्म ६.२३६.२२(स्मृति शास्त्र का सात्त्विक, तामस आदि भागों में विभाजन), ब्रह्माण्ड १.२.९.५५(दक्ष व प्रसूति - कन्या, अङ्गिरस - पत्नी),१.२.११.१७(अङ्गिरस - पत्नी, सिनीवाली, कुहू, राका आदि की माता), लिङ्ग १.७०.२३(स्मृति शब्द की निरुक्ति : वर्तमान, अतीत और अनागत कार्यों का स्मरण), वायु ४.३८/१.४.३६(स्मृति शब्द की निरुक्ति), शिव ७.१.१७.२४, स्कन्द २.१.८.४(श्रीनिवास व लक्ष्मी के विवाह में श्रुति द्वारा श्रीहरि को क्षौम तथा स्मृति द्वारा आभूषण प्रस्तुति का उल्लेख), ५.३.१.१५(श्रुति, स्मृति व पुराणों के लोचन - त्रय होने का उल्लेख), महाभारत वन ३६(व्यास द्वारा युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति विद्या प्रदान करना ), योगवासिष्ठ ४.३, द्र. दक्ष कन्याएं, वंश अङ्गिरा smriti स्यन्दिका वा.रामायण २.४९.१२ स्यमन्तक अग्नि २७५, देवीभागवत ०.२, नारद १.११३.३९, पद्म १.१३, ब्रह्म १.१४(स्यमन्तक मणि के संदर्भ में सत्राजित्, प्रसेन, जाम्बवान व कृष्ण की कथा), ब्रह्माण्ड २.३.७१(स्यमन्तक मणि की कथा), भागवत १०.५६(सत्राजित् द्वारा स्यमन्तक मणि प्राप्ति की कथा), १०.५७(स्यमन्तपञ्चक मणि की प्राप्ति हेतु शतधन्वा द्वारा सत्राजित् की हत्या), मत्स्य ४५(स्यमन्तक मणि के संदर्भ में ऋक्ष द्वारा प्रसेन का वध, कृष्ण द्वारा ऋक्ष का निग्रह), वायु ९६.२०(स्यमन्तक मणि की कथा), विष्णु ४.१३, स्कन्द ७.१.२३९, हरिवंश १.३८.१४(सत्राजित् द्वारा तप से सूर्य से स्यमन्तक मणि की प्राप्ति, स्यमन्तक मणि का हरण ) syamantaka स्यमन्तपञ्चक ब्रह्माण्ड २.३.४७.९(परशुराम द्वारा स्यमन्तपञ्चक क्षेत्र के निर्माण की कथा, समन्तपञ्चक उपनाम), लक्ष्मीनारायण २.३०.८२(उत्तरवेदी के रूप में स्यमन्तपञ्चक का उल्लेख, कुरु द्वारा कर्षण - स्यमन्तपञ्चकं धर्मस्थानं चोत्तरवेदिका ।। आसमन्ताद् योजनानि पञ्च पञ्च च सर्वतः ।.... ) syamantapanchaka समन्तपञ्चक वामन २२.१६(समन्तपञ्चक क्षेत्र का विस्तार, कुरु द्वारा कर्षण की कथा - समन्तपञ्चकं नाम धर्मस्थानमनुत्तमम्। आसमन्ताद् योजनानि पञ्च पञ्च च सर्वतः।।), स्कन्द ५.३.२१८.३८(समन्तपञ्चके पञ्च चकार रुधिरह्रदान् ॥ ), महाभारत शल्य ५३.२४ (तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामह्रदानां च मचक्रुकस्य च। एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं प्रजापतेरुत्तरवेदिरुच्यते।।, samantapanchaka स्रज द्र. माला स्रवस वायु ३१.६, द्र. प्रस्रवण, प्लक्षस्रवण, विद्युत्स्राव स्रुक-स्रुवा अग्नि २४.१४(स्रुक व स्रुवा आदि के आकार का वर्णन), ४०.५(वास्तुपुरुष के संदर्भ में अर्धपद में वह्नि को स्रुक् द्वारा तृप्त करने का उल्लेख - स्रुचा चार्द्धपदे वह्नि पूषणं लाजयैकतः), ७५.२५(अग्नि में प्रतापन करते समय स्रुक्-स्रुवा को ऊर्ध्ववदन-अधोमुख करने का निर्देश - गृहीत्वा स्रुक्स्रुवावूर्ध्ववदनाधोमुखैः क्रमात् ॥ प्रताप्याग्नौ त्रिधा दर्भमूलमध्याग्रकैः स्पृशेत् । कुशस्पृष्टप्रदेशे तु आत्मविद्याशिवात्मकं ॥), ७५.२७(स्रुवा व स्रुक् : शिव व शक्ति के प्रतीक - स्रुचि शक्तिं स्रुवे शम्भुं विन्यस्य हृदयाणुना ॥), नारद १.५१.३६(स्रुवा में ६ देवों का वास व व्यवहार का फल - अग्निः सूर्यश्च सोमश्च विरञ्चिरनिलो यमः । स्रुवे षडेते दैवास्तु प्रत्यङ्गुलमुपाश्रिताः।। .....), ब्रह्म २.९.२०( वराह द्वारा मुख द्वारा यज्ञ को देवों को प्रदान करने के कारण स्रुवा के यज्ञाङ्ग होने का उल्लेख - मुखे न्यस्तं महायज्ञं देवानां पुरतो हरिः। दत्तवांस्त्रिदशश्रेष्ठो मुखाद्यज्ञोऽभ्यजायत।। ततः प्रभृति यज्ञाङ्गं प्रधानं स्रुव उच्यते।), ब्रह्माण्ड १.१.५.२०(यज्ञवराह के स्रुवतुण्ड होने का उल्लेख), भविष्य २.१.१९.१(स्रुवा निर्माण के लिए प्रशस्त काष्ठ वृक्ष तथा स्रुवा का परिमाण आदि - श्रीपर्णी शिंशपा क्षीरी बिल्वः खदिर एव च ।। स्रुवे प्रशस्तास्तरवः सिद्धिदा यागकर्मणि ।। .....), भागवत ११.५.२४(त्रेता युग में भगवान् के रक्तवर्ण व स्रुक्-स्रुवादि उपलक्षणों से युक्त होने का उल्लेख - त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः । हिरण्यकेशः त्रय्यात्मा स्रुक् स्रुवाद्युपलक्षणः ॥), वायु ६.१७ (वराह के आज्यनासा व स्रुवतुण्ड होने का उल्लेख - अहोरात्रेक्षणधरो वेदाङ्गश्रुतिभूषणः। आज्यनासः स्रुवतुण्डः सामघोषस्वनो महान् ।।), विष्णु १.४.३४(यज्ञवराह के स्रुक्-तुण्ड होने का उल्लेख - स्रुक्तुण्डसामस्वरधीरनादप्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे), शिव ७.२.३२.४३(मारणादि कर्म में आयस तथा शान्ति कर्म में सौवर्ण स्रुक-स्रुवा निर्माण का निर्देश - आयसौ स्रुक्स्रुवौ कार्यौ मारणादिषु कर्मसु ॥ तदन्यत्र तु सौवर्णौ शांतिकाद्येषु कृत्स्नशः ॥ ), स्कन्द ५.३.१९४.४६(नारायण व श्री के विवाह यज्ञ में ब्रह्मा व सप्तर्षियों के स्रुक-स्रुवा ग्रहण करने में रत होने का उल्लेख - ब्रह्मा सप्तर्षयस्तत्र स्रुक्स्रुवग्रहणे रताः । अग्नीञ्जुहुविरे राजन्वेदिर्धात्री ससागरा ॥), महाभारत सभा ३८दाक्षिणात्य पृष्ठ७८४(यज्ञवराह के स्रुवतुण्ड होने का उल्लेख), शल्य ४८.२ (श्रुतावती[स्रुचावती पाठभेद] द्वारा इन्द्र की प्राप्ति के लिए बदरों के पाचन की कथा), शान्ति २४.२७(राजा हयग्रीव के चातुर्होत्र रूपी युद्धयज्ञ में शर के स्रुक्, खड्ग के स्रुव और रुधिर के आज्य होने का उल्लेख - धनुर्यूपो रशना ज्या शरः स्रुक्स्रुवः खड्गो रुधिरं यत्र चाज्यम्।), ९८.१७(युद्ध में प्रास, तोमरसमूह, खड्ग, शक्ति, परशु आदि के स्रुक तथा ऋजु सायक के स्रुव होने का कथन - प्रासतोमरसंघाताः खङ्गशक्तिपरश्वथाः। ज्वलन्तो निशिताः पीताः स्रुचस्तस्याथ सत्रिणः।।चापवेगायतस्तीक्ष्णः परकायावभेदनः। ऋजुः सुनिशितः पीतः सायकश्च स्रुवो महान्।।), अनुशासन १७.४४(स्रुवहस्त : शिव सहस्रनामों में एक[दसवें हाथ में स्रुव धारण करने वाले – टीका - स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः।]), ८५.१०१(ब्रह्मा द्वारा स्वशुक्र का स्रुवा द्वारा अग्नि में होम करने से तामस, राजस व सात्त्विक गुणों वाले भूतग्राम की उत्पत्ति का कथन - स्कन्नमात्रं च तच्छुक्रं स्रुवेण परिगृह्य सः। आज्यवन्मन्त्रतश्चापि सोऽजुहोद्भृगुनन्दन।।), आश्वमेधिक २१.६(चित्त के स्रुवा होने का उल्लेख - विषया नाम समिधो हूयन्ते तु दशाग्निषु। चित्तं स्रुवश्च वित्तं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम्। ) sruk-sruvaa स्रोत पद्म ६१३७, मार्कण्डेय ४७(ऊर्ध्व, अर्वाक सर्ग ), स्कन्द २.३.७, द्र. चतु:स्रोता, त्रिस्रोता, पञ्चस्रोता, सोमस्रोत, ह्रदस्रोत srota स्रौष भविष्य १.१२४.२३ स्वकन्धर पद्म ६.१८८(गीता के १४वें अध्याय के माहात्म्य के प्रसंग में वत्स मुनि के शिष्य स्वकन्धर द्वारा शश व शुनी को वत्स मुनि के पाद प्रक्षालन जल से दिव्य रूप की प्राप्ति होने की घटना का वर्णन ) svakandhara स्वच्छन्दराज वामन ७० स्वतन्त्राश्री लक्ष्मीनारायण ३.११.९८ स्वधा गरुड १.२१.३(सद्योजात शिव की ८ कलाओं में से एक), देवीभागवत ९.४४(पितरों की क्षुधा शान्ति हेतु स्वधा का प्राकट्य, स्वधा पूजा विधान), पद्म १.८.१९(पितरों द्वारा पृथिवी रूपी गौ के दोहन से स्वधा रूपी दुग्ध की प्राप्ति का कथन), ब्रह्मवैवर्त्त २.१.१०३(पितरों की पत्नी, मुनियों, मनुओं व नरों द्वारा पूजित), २.४१.९(स्वधा की ब्रह्मा से उत्पत्ति, पूजा, स्तोत्र), ब्रह्माण्ड १.२.१३.१०(इष व ऊर्ज मासों की स्वधावन्त संज्ञा), २.३.११.९३(कव्यवाहन अग्नि व पितृमान् सोम के लिए स्वधा अङ्गिरसे नम: व वैवस्वत यम के लिए स्वधा नम: कहने का विधान), भागवत ४.१.६४(दक्ष - कन्या, पितरों की पत्नी, धारिणी व वयुना कन्याओं की माता), शिव २.३.२.५(दक्ष की ६० कन्याओं में से एक, पितरों की पत्नी, मेना, धन्या व कलावती पुत्रियों को शाप प्राप्ति का वृत्तान्त), हरिवंश १.१८.६४(पुलह से उत्पन्न सुस्वधा पितरों का कथन : वैश्यों द्वारा भावित, विरजा कन्या के पिता आदि), १.१८.६७(कवि व स्वधा से उत्पन्न सोमपा पितरगण का कथन), २.१२२.३२(स्वधाकार के आश्रित पांच अग्नियों पिठर, पतग, स्वर्ण, श्वागाध व भ्राज का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण २.१२४.६१(दक्ष-पत्नियों असिक्नी, पलिक्नी, वीरिणी आदि के लिए स्वधा का निर्देश), २.१२४.६४(ऋतुओं, वत्सरों, युगों आदि के लिए स्वधा का निर्देश), २.१२४.७४(अग्निमण्डल, याम्य, श्रावण, प्रेत, भूत, पिशाच, कूष्माण्ड आदि के लिए स्वधा का निर्देश), २.१२४.७५(विनायकों व वेतालों के लिए स्वाहा व स्वधा का निर्देश), २.१२४.७६(डाकिनी, शाकिनी, पितृ-पत्नियों के लिए स्वधा का निर्देश), ३.१५.१४(वषट्कार विप्र की पत्नी), ३.१५.२७(वषट्कार द्वारा पुत्र रूप में हरि को प्राप्त करने तथा स्वधा द्वारा पुत्री रूप में लक्ष्मी को प्राप्त करने की इच्छा का कथन), ३.११५.८२(ललिता देवी के स्तन स्वाहा स्वधाकार रूप होने का उल्लेख ), वास्तुसूत्रोपनिषद ६.२१टीका(यज्ञ की पचनात्मिका शक्ति स्वधा, दाहिका शक्ति स्वाहा), द्र दक्ष कन्याएं, वंश पितर, सुस्वधा svadhaa/swadhaa
स्वधामा भागवत ८.१३.२९(अवतार, सत्यसहा व सूनृता - पुत्र), स्वन द्र. भङ्गस्वन, विपुलस्वन स्वनय ब्रह्माण्ड ३.४.३४.२६(श्वनय : षोडशावरण चक्र के १०वें आवरण के रुद्रों में से एक), स्कन्द ३.१.१६(राजा स्वनय द्वारा स्वपुत्री मनोरमा का कक्षीवान् से विवाह), स्वप्न अग्नि ४३.२३(स्वप्न मन्त्र व अधिपति), ८४.१(दीक्षा अवधि में शुभाशुभ स्वप्न), २२९(शुभाशुभ स्वप्न विचार), २६६.१(विनायक ग्रस्त पुरुष के स्वप्नों के लक्षण), २८०(स्वप्न से वात, पित्त, कफ प्रकृति का निर्णय), गरुड १.१५२.११(यक्ष्मा रोग में स्वप्न), १.१६८.३२(स्वप्न से वात पित्तादिक पुरुष की प्रकृति का निश्चय), २.११(स्व वंशीय प्रेतों/पिशाचों द्वारा गृहीत होने पर स्वप्न), गर्ग ५.७.१(कंस द्वारा कृष्ण के मल्ल युद्ध के पूर्व द्रष्ट स्वप्न), देवीभागवत ५.११(महिषासुर - सेनानी ताम्र द्वारा द्रष्ट स्वप्न), नारद १.५१.५८(गणपति - गृहीत पुरुष के स्वप्नों के लक्षण), १.११४.१३ (आषाढ शुक्ल पञ्चमी को स्वप्न से शुभाशुभ ज्ञान), पद्म २.१०४, २.१२०.१०(स्वप्न के वातिक, पित्तज आदि प्रकारों का वर्णन), ५.२२, ५.२८, ६.१४(वृन्दा द्वारा द्रष्ट स्वप्न), ६.१०३, ७.१९, ७.२१, ब्रह्म १.४७(इन्द्रद्युम्न द्वारा विष्णु मूर्ति निर्माण सम्बन्धी स्वप्न), ब्रह्मवैवर्त्त ३.३३(परशुराम द्वारा पुष्कर में द्रष्ट स्वप्न), ४.६३(कंस द्वारा वर्णित स्वप्न), ४.६६(राधा द्वारा कृष्ण से वियोग का स्वप्न), ४.७०(अक्रूर द्वारा स्वप्न में कृष्ण के दर्शन), ४.७२(कंस द्वारा मृत्यु सूचक स्वप्न देखना), ४.७७(नन्द - कृष्ण संवाद),४.८२(कृष्ण - नन्द संवाद), ब्रह्माण्ड ३.४.२८.४१(स्वप्नेशी : ललिता - सहचरी, मङ्गल दैत्य से युद्ध), भविष्य १.२३(कार्यारम्भ में गणेश पूजा के अभाव में स्वप्न), १.६९(सप्तमी व्रत में स्वप्न व शुभाशुभ फल), १.१४९.३५(सूर्य दीक्षा में स्वप्न), १.१९४(सूर्य सप्तमी में द्रष्ट स्वप्न), ४.३२, ४.१४४, भागवत ७.१५.६२(मुनि द्वारा भावाद्वैत, क्रियाद्वैत व द्रव्याद्वैत द्वारा ३ स्वप्नों को नष्ट करनेv का कथन), मत्स्य १३१.२०(मय द्वारा त्रिपुर के सम्बन्ध में द्रष्ट भयानक स्वप्न का कथन), २४२(शुभाशुभ स्वप्न लक्षण), मार्कण्डेय ८.१२७(हरिश्चन्द्र द्वारा द्रष्ट स्वप्न), वायु १९(मृत्युकालीन स्वप्न), विष्णुधर्मोत्तर १.३९(सिंहिका - पुत्र साल्व की नगरी में द्रष्ट स्वप्न), २.११५, स्कन्द १.२.५५(मृत्यु सूचक स्वप्न), ४.१.४२.३१(स्वप्न दर्शन से मृत्यु के ज्ञान का कथन), ४.२.५६.७(गणेश द्वारा दिवोदास - पालित काशी में नागरिकों के स्वप्नों का निर्वचन), ४.२.७०.९२(स्वप्नेश्वरी देवी का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.२.८०(स्वप्नेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य, शक्ति भक्षण के पश्चात् कल्माषपाद राक्षस द्वारा दु:स्वप्न का दर्शन, वसिष्ठ के परामर्श से स्वप्नेश्वर लिङ्ग की पूजा से मुक्ति), ५.३.२८.२७, योगवासिष्ठ ३.४२(स्वप्न पुरुष), ३.५७, ६.१.६१(स्वप्न जगत), ६.१.६२(स्वप्न शतरुद्रिय), ६.२.१०५, ६.२.१४७, वा.रामायण २.६९(भरत द्वारा दु:स्वप्न दर्शन), ५.२७(त्रिजटा राक्षसी द्वारा द्रष्ट स्वप्न के आधार पर सीता से राक्षसों के विनाश का कथन), महाभारत उद्योग १४३, द्रोण ८०, शान्ति २१५, लक्ष्मीनारायण १.५१(मृत्यु सूचक स्वप्न), १.७१(प्रेत के कारण जनित स्वप्नों का कथन), १.८५.३२(गणेश द्वारा काशी जनों द्वारा द्रष्ट स्वप्नों के फलों का कथन), १.८६, १.३२९, १.३३५, १.४५७, १.५१७(अन्धक व उसकी पत्नी द्वारा द्रष्ट दु:स्वप्न का वर्णन), १.५२८, ३.६०.४२(चिदम्बरा भक्ता द्वारा श्रीहरि से स्वप्न में भागवत चिह्नों की प्राप्ति का कथन), ३.१४८.१२(विभिन्न दु:स्वप्नों की शान्ति हेतु ग्रह यज्ञों का विधान), ३.१४९, ४.८१, कथासरित् १.६.१३८, ४ .३.३, ६.३.१६५(राजा द्वारा स्वरोग हरण के संदर्भ में द्रष्ट स्वप्न ), ८.३.१३७, swapna/svapna
|