PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(Suvaha - Hlaadini)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Suvaha - Soorpaakshi  (Susheela, Sushumnaa, Sushena, Suukta / hymn, Suuchi / needle, Suutra / sutra / thread etc.)

Soorpaaraka - Srishti   (Soorya / sun, Srishti / manifestation etc. )

Setu - Somasharmaa ( Setu / bridge, Soma, Somadutta, Somasharmaa etc.)

Somashoora - Stutaswaami   ( Saudaasa, Saubhari, Saubhaagya, Sauveera, Stana, Stambha / pillar etc.)

Stuti - Stuti  ( Stuti / prayer )

Steya - Stotra ( Stotra / prayer )

Stoma - Snaana (  Stree / lady, Sthaanu, Snaana / bath etc. )

Snaayu - Swapna ( Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc.)

Swabhaava - Swah (  Swara, Swarga, Swaahaa, Sweda / sweat etc.)

Hamsa - Hayagreeva ( Hamsa / Hansa / swan, Hanumaana, Haya / horse, Hayagreeva etc.)

Hayanti - Harisimha ( Hara, Hari, Harishchandra etc.)

Harisoma - Haasa ( Haryashva, Harsha,  Hala / plough, Havirdhaana, Hasta / hand, Hastinaapura / Hastinapur, Hasti / elephant, Haataka, Haareeta, Haasa etc. )

Haahaa - Hubaka (Himsaa / Hinsaa / violence, Himaalaya / Himalaya, Hiranya, Hiranyakashipu, Hiranyagarbha, Hiranyaaksha, Hunkaara etc. )

Humba - Hotaa (Hoohoo, Hridaya / heart, Hrisheekesha, Heti, Hema, Heramba, Haihai, Hotaa etc.)

Hotra - Hlaadini (Homa, Holi, Hrida, Hree etc.)

 

 

 

सौत्रामणीयाग

'सुत्राम्ण इयं सौत्रामणी' इस व्युत्पत्ति से इन्द्र देवता के निमित्त विधीयमान याग को सौत्रामणीयाग कहते हैं । उपर्युक्त सात हविःसंस्था में से यह एक हविःसंस्था है। इस याग

८. सुत्रामा गोत्रभिद्वज्रीत्यमरः । स्व० व० ४२ ।

 

के उद्दिष्ट देवताओं में प्रधान देवता इन्द्र हैं। अतः इसे इन्द्रयाग भी कहते हैं । स्वतन्त्र और किसी अन्य याग के अङ्गभूत होने के कारण इसके दो भेद हैं। अङ्गरूप में इसे अग्निचयन याग का अङ्ग कहा है।

पुनः नित्य, नैमित्तिक और काम्य इन भेदों से इसके और तीन प्रकार होते हैं । किसी विशेष उद्देश्य से रहित जो अनुष्ठीयमान होता है, वह नित्य है । उसी की गणना सात हवि:संस्था में की गयी है । सोम के वमन होने पर जो किया जाता है, वह नैमित्तिक सौत्रामणी याग कहा जाता है । जब ऋद्धि रूप फल प्राप्ति की आकाङ्क्षा से इसका अनुष्ठान होता है तब काम्य सौत्रामणी याग कहा गया है । उस स्थिति में इसे ब्राह्मणयज्ञ कहते हैं1 । इसका कोकिल सौत्रामणी नामक एक और प्रकार है। चरक सौत्रामणी यह भी एक प्रकार कहा है2 ।

शतपथ ब्राह्मण में सौत्रामणी याग को यज्ञ शरीर का आत्मा कहा है3 । सौत्रामणी याग के प्रारम्भ और अन्त में होने वाले ऐन्द्र और वयोधस पशुयाग को यज्ञ शरीर के दो बाहु का स्वरूप दिया है । इस याग में तीन पशु का आलभन होता है। अश्वि देवता के निमित्त अज, सरस्वती के लिए वृषभ स्थानापन्न मेषी और इन्द्र के लिए वृषभ का विधान है।4 कलि में वर्ज्य होने के कारण अज का आलभन योग्य है । कोकिल सौत्रामणीयाग में पाँच पशु कहे हैं । सौत्रामणी, इष्टि के रूप में तथा पशुबन्ध के रूप में विहित होने से यह उभयात्मक है।5

याग के अधिकारी एवं फल

ऋद्धि की कामना से यदि काम्य सौत्रामणी याग का अनुष्ठान करना हो तो केवल ब्राह्मणवर्ण ही कर सकता है। अग्निचयन याग के अङ्गभूत करना हो तो तीनों वर्ण के लोग कर सकते हैं6। सोम रस के वमन हो जाने पर प्रायश्चित्त रूप में भी इसे करने को कहा है।7 राज्य से च्युत राजा पुनः अपने राज्य की प्राप्ति के लिए भी इसे करता है।8 पशु सम्पत्ति की इच्छा से भी इसे करने का विधान है9।

१. तस्मादेष ब्राह्मणयज्ञ एव यत्सौत्रामणी । श० ब्रा० १२.४.३.१ ।

ब्राह्मणयज्ञः सौत्रामण्यृद्धिकामस्य । का० श्रौ० १९.१.१ ।

२. द्वे सौत्रामणी कोकिली चरकसौत्रामणी च । द्रा० श्रौ० १३.४.१४ ।

३. आत्मा वै यज्ञस्य सौत्रामणी बाहू ऐन्द्रश्च वयोधाश्च । श० ब्रा० १२.४.५.१६ ।

४. अश्विनो लोहोऽजः । सरस्वती मेषी । इन्द्राय सुत्राम्ण ऋषभः । शां० श्रौ० १५.१५.२-४ ।

५. उभयं वै सौत्रामणीष्टिश्च पशुबन्धश्च । श० ब्रा० १२.३.३.१२ ।

६. अग्निचित्सोमयाजि० । का० श्रौ० १९.१.२ ।

७. सोमवामिनाम् । का० श्रौ० १९.१.२ ।

८. राज्ञोऽपरुद्धस्य । का० श्रौ० १९.१.३ ।

९. अलम्पशोरपशोः । का० श्रै० १९.१.४ ।

 

कार्यकलाप

सङ्कल्प

ऐन्द्रपश्वनुष्ठान

आदित्यचरु

वत्स दक्षिणादान

सत्यभाषण

व्रतानुष्ठान

सुराद्रव्यक्रयण

सुरानिर्माण

वेदिद्वयनिर्माण

खरद्वयनिर्माण

अग्निप्रणयन

सुरापावन

पयःपावन

पयोग्रहण

ग्रहपात्र में चूर्णप्रक्षेप  

लोमप्रक्षेप

यजमानपावन

पयोग्रह, सुराग्रहसम्मर्शन

पशुत्रयालम्भन

ग्रहहोम

हुतशेषभक्षण

सुरा का अङ्गार पर प्रक्षेप

आज्यहोम

पयोहोम

पयोभक्षण

चात्वाल पर मार्जन

पशुपुरोडाश

आज्यभागयाग

दक्षिणादान

पशुनियोजनादि

शामित्रानुशासन

आसन्दीस्थापन

कृष्णाजिनास्तरण

यजमानोपवेशन

रुक्मस्थापन

द्वात्रिंशद्वसाग्रहहोम

यजमानाभिषेक

सुश्लोकाद्याह्वान

यजमानोत्थापन

सामगान

वसाग्रहहोम

स्विष्टकृतहोम

अवभृथयागार्थगमन

शूलोपगूहन

शूलाभिमन्त्रण

मासरकुम्भमज्जन

प्रत्यागमन

आहवनीयोपस्थान

समिदाधान

मैत्रावरुणीपयस्येष्टि

वायोधसपश्वनुष्ठान

आदित्येष्टि

दक्षिणादान

ब्राह्मणभोजन

 

सामग्री

ऐन्द्रपशुयाग सामग्री

आदित्येष्टि सामग्री

सुरानिर्माणद्रव्य

वेदिद्वयनिर्माणसामग्री

कृष्णाजिन

गोचर्म

कारोतर

वैतसपात्र

पालाशपात्र

गोऽश्ववालपवित्र

अजाविलोमपवित्र

पयोग्रहपात्र

सुराग्रहपात्र

सुराग्रहस्थाली

वृक्कलोम

व्याघ्रलोम

श्येनपत्र

शतच्छिद्रकुम्भ

सौवर्णरुक्म

राजतरुक्म

सुवर्णखण्ड

आसन्दी

पशुयागसामग्री

इध्मचतुष्टय

स्रुक्पञ्चक

पान्नेजनीसप्तक

यूपाष्टक

उखापञ्चक

मन्थनचतुष्टय

वपाश्रपणी

हृदयशूल

प्लक्षशाखा

काशमयप्रस्तर

मैत्रावरुणदण्ड

दक्षिणासामग्री

ब्राह्मणभोजन सामग्री

 

कार्यारम्भ

अग्निचयन का अङ्गभूत सौत्रामणी याग किया जा रहा हो तो मातृपूजन और आभ्युदयिक करने की आवश्यकता नहीं है। प्रधानभूत अग्निचयन में ये कृत्य हुए रहते हैं। प्रधान में होने से अङ्ग की गतार्थता हो जाती है। स्वतन्त्र सौत्रामणी याग का अनुष्ठान हो तो प्रारम्भ में मातृपूजन और आभ्युदयिक करे । अनन्तर सौत्रामणी याग प्रारम्भ करे। इस याग की प्रकृति पौर्णमास याग है। इसलिए इस याग का प्रधान कृत्य पौर्णमासी को होना चाहिए। यह याग चार दिनों में किया जाता है । इसका प्रारम्भ शुक्ल पक्ष की द्वादशी को करना चाहिए ।

 

ऋत्विज

सौत्रामणी याग का अनुष्ठान ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, मैत्रावरुण और

आग्नीध्र ये छ ऋत्विज तथा यजमान और यजमानपत्नी ये आठ व्यक्ति सम्पन्न करते हैं1। इस याग के प्रमुख दिन दो वेदि में एक साथ कार्य होते हैं। इसीलिए प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज भी इसमें अपेक्षित है। इसमें ब्रह्मा सामगान करता है। चातुर्मास्ययाग की अपेक्षा मैत्रावरुण नामक एक ऋत्विज इसमें अधिक होता है।

१. ब्रह्महोत्रध्वर्युमैत्रावरुणप्रतिप्रस्थात्रग्नीध्रः षड्ऋत्विजो वृत्वा ।

दे० प० पृ० ६१२ ।

ऋतवो वा ऋत्विजः । षड् वा ऋतवः ऋत्विग्भिरेवर्तूनवरुन्धे । श० ब्रा० १२.४.१.२९ ।

सौत्रामणीयाग विहार विवरण

१. पूर्वादित्येष्टि विहार प्रकृतिवत्

२. ऐन्द्र पशुयाग विहार निरूढपशुबन्धयाग विहारवत्

३. प्रकृतिविहार

४. त्रिपशुयागविहार

पश्चिम में दक्षिण-उत्तर ३० अरत्नि

पूर्व में               २४ अरत्नि

मध्य में पश्चिम-पूर्व    ३६ अरत्नि

उत्तरवेदि अग्निष्टोमयागवत्

५. प्रतिप्रस्थातृवेदि वरुणप्रघासवत्

६. पयोग्रहासादनार्थ खर १ अरत्नि

७. सुराग्रहासादनार्थ खर १ अरत्नि

८. कुम्भीगर्त अर्धपरिमाण

९. यूपस्थान

१०. उत्कर

११. चात्वाल ३२x३२x४ अङ्गुल

१२. शामित्र अर्ध परिमाण

१३. ऊबध्य अर्ध परिमाण

१४. पश्चादादित्येष्टि विहार प्रकृतिवत्

१५. मैत्रावरुणीपयस्येष्टिविहार प्रकृतिवत्

१६. वायोधसपशुयाग विहार ( निरूढपशुबन्धयाग विहारवत् )

यह विहार देवयाज्ञिक के मत से है। कर्काचार्य के मत में १, १४ और १५ सङ्ख्याङ्कित वेदियों की अपेक्षा नहीं है। उनके मत से इन सङ्ख्याङ्कित विहारों में किये जाने वाले कृत्य प्रकृतिविहार में कर लिए जाते हैं ।

ऐन्द्रपशुयाग

सपत्नीक यजमान शुचिर्भूत होकर अग्निशाला में उपस्थित हो। जिस अग्निशाला में त्रिपशुयाग किया जायेगा उससे दक्षिण वाली अग्निशाला में ऐन्द्रपशु याग का अनुष्ठान करे। सङ्कल्पपूर्वक ऋत्विजों का वरण करे1 । आठकपाल का इन्द्र देवता का पशु पुरोडाश करे । इस इन्द्रपशु याग की समस्तविधि निरूढपशु याग के समान करे2 ।

आदित्येष्टि

ऐन्द्र पशुयाग हो चुकने पर जिस अग्निशाला में ऐन्द्रपशुयाग किया है, उससे पश्चिम की अग्निशाला3 में आदित्येष्टि का अनुष्ठान करे4 ।

कार्यकलाप

सङ्कल्प

अग्नि का उद्धरण

ऋत्विजों का वरण

यागविधि

सामग्री

चरुस्थाली

इध्मा २०

मेक्षण

दक्षिणार्थ वत्स

सङ्कल्प और अग्न्युद्धरण के अनन्तर ऋत्विजों का वरण करे। पात्रासादन में कपाल की जगह चरुस्थाली रखे । अदिति देवता के लिए चरु तैयार करे5। प्रधानयाग के समय अदिति देवता के लिए चरु से याग करे। दक्षिणा के समय गौ का वत्स दक्षिणा में दे6 । शेष विधि पौर्णमासयाग के समान सम्पन्न करे । त्रिपशुयाग

इस त्रिपशुयाग का अनुष्ठान प्रधान अग्निशाला में करे। अग्नि का उद्धरण और अन्वाधान करे । ब्रह्मा का वरण करके नियत आसन पर बैठावे ।

१. त्रिपशुदेशस्य दक्षिणत ऐन्द्रःपशुः कर्तव्यः । दे० प० पृ० ६१२ ।

२. निरूढवत् । दे० प० पृ० ६१२ ।

३. पशुदेशस्य पश्चाद्देशे आदित्येष्टिः । दे० प० पृ० ६१२ ।

४. ऐन्द्रपशुयाग और आदित्येष्टि के क्रम में विपर्यास भी वैधानिक है । चरुपश्वोर्विपर्यासमेके । का० श्रौ० १९.१.१७ ।

५. आदित्यचरुं यक्ष्यमाणो निर्वपति । श० ब्रा० १२.४.४.११ ।

६. वत्सं पूर्वस्यां ददाति मातरमुत्तरस्याम् । श० ब्रा० १२.४.४.११ ।

 

सुराद्रव्यक्रयण

सुराविक्रयी1 से सीसा2 (धातुविशेष) के बदले में शष्प (हरी व्रीहि) खरीदे। ऊन देकर तोक्म3 (हरे जव), सूत देकर4 लावा और गुड देकर किण्व नग्नहु-त्रिफला, सोंठ, पुनर्नवा प्रभृति प्रक्षेपद्रव्य खरीदे । बैल का चमं बिछाकर उसपर खरीदा हुआ सब सामान रखे ।

 खरीदे हुए सामान को दक्षिणद्वार से यज्ञशाला में ले जाय5 । यजमान और ब्रह्मा यथास्थान बैठें6। नग्नहु (औषधवर्ग) को कूटकर चूर्ण तैयार करे। शुष्म तोक्म लावा को अलग कूटकर सुरक्षित रखे। ब्रह्मा को मन्त्रोच्चारणपूर्वक आसन पर बैठावे। तत्पश्चात पात्रासादन करे । अश्वि, सरस्वती और इन्द्रसुत्रामा इन तीन देवता के निमित्त व्रीहि और श्यामाक, हविर्ग्रहण करे7 । हविर्द्रव्य का कण्डनादि संस्कार करे । उपसर्जनी संज्ञक जल को गरम करे । व्रीहि और श्यामाक का अलग-अलग दो पात्रों में चरु तैयार करे। इन चरुओं को अधिक पानी में विशेषरूप से पकाना चाहिए। पक जाने पर कपड़े से छान ले। उसी में कूटे हुए तोक्म और शष्प के चूर्ण को मिलावे । पके हुए चावल (चरु) को भी उसी में मिलावे8 । गड़हा खोदकर सुराद्रव्य की कुम्भी को तीन दिन तक गाड़ रखे9।

उपर्युक्त कृत्य प्रथम दिन कर लेना चाहिए । सायं अग्निहोत्र हवन स्वयं यजमान करे । हवन के अनन्तर अश्विदेवता के निमित्त एक गौ का दोहन करे । जमीन में गाड़कर रखी हुई दोनों कुम्भों (सुराकुम्भी) में दूध छोड़े10 । अनन्तर कूटकर सुरक्षित रखा हुआ नग्नहू संज्ञक चूर्ण छोड़े। कुम्भी का मुंह ढंक दे। चतुर्दशी के दिन सरस्वती देवता के निमित्त दो गौ को दुहकर कुम्भी में दूध और चूर्ण छोड़े11। प्रधानयाग के निमित्त वेदि निर्माण प्रभृति कार्य करे। जिस

१. सुरासोमविक्रयिणः । का० श्रौ० १९.१.१८ ।

२. सीसेन शष्पक्रयः।

३. तोक्मानामूर्णाभिः । का० श्रौ० १९.१.१८ ।

४. लाजानां सूत्रैः । का० श्रौ० १९.१.८।

५. दक्षिणेन हृत्वा । का० श्रौ० १९.१.२० ।

६. सौत्रामण्यां सुराकर्मस्वाव्राजमासीत । द्रा० श्रौ० १३.४.५ ।

७. अश्विभ्यां, सरस्वत्यै, इन्द्राय सुत्राम्णे । दे० प० पृ० ६१४ ।

८. ओदनौ चूर्णमासरैः संसृज्य । का० श्रौ० १९.१.२१ ।

९. तिस्रो हि रात्री । श० ब्रा० १२.३.४.६ ।

दक्षिणेन हृत्वा नग्नहुचूर्णानि कृत्वा ताश्च व्रीहिश्यामाकौदनयोः पृथगाचामौ निषिच्य चूर्णैः संसृज्य निदधाति तन्मासरम्, त्रिरात्रं निदधाति । का० श्रौ० १९.१.२०.२२ ।

१०. एकस्याः पयसापाकृतेनाश्विनेन परिषिञ्चति । का० श्रौ० १९.१.२२ ।

एकस्यै दुग्धेन प्रथमां रात्रिं परिषिञ्चति । श० ब्रा० १२.४.१.११ ।।

११. द्वयोर्दुग्धेन द्वितीयाम् । श० ब्रा० १२.४.१.११ । सारस्वतेना । का० श्रौ० १९.१.२४ ।

 

वेदि में पहले ऐन्द्रपशुयाग हो चुका है, उससे उत्तर की ओर की दो वेदियों में प्रधान कार्य किया जाता है। यह कार्य चातुर्मास्ययाग के वरुणप्रघासपर्व की तरह दो वेदियों में एक साथ होता है। यहाँ भी दक्षिण की वेदि प्रतिप्रस्थाता की और उत्तर की वेदि अध्वर्यु की होती है। अध्वर्य और प्रतिप्रस्थाता दोनों अपनी-अपनी वेदि का निर्माणकार्य करें1। प्रतिप्रस्थाता की वेदि में आहवनीय खर और अध्वर्यु को वेदि में उत्तरवेदि होती है। सुराग्रह का हवन आहवनीय में और पशु, पुरोडाश और पयोग्रह का याग उत्तरवेदि पर होता है2 । यजमान सायं अग्निहोत्र हवन करे । इन्द्रदेवता के निमित्त तीन गौ को दुहकर कुम्भी में दूध और चूर्ण पूर्ववत् छोड़े । पलाश की शाखा लेकर शाखापवित्र और शाखोपवेष बनावे। दूसरे दिन गोदोहन के निमित्त छः गौ के बछड़ों को माँ से अलग बाँधे ।

 पौर्णमासी के दिन अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता दोनों अपनी-अपनी वेदि में (आहवनीय और उत्तरवेदि पर) अग्निस्थापन करें। यूप गाड़ने तक का कृत्य सम्पन्न कर ले । अपनी-अपनी वेदि पर बहिरास्तरण करे। सुराग्रह और पयोग्रहपात्रों के आसादनार्थ अपनी-अपनी वेदि के पश्चिम में एक अरत्नि चतुरस्र खर बनावें । गोदोहन करके उत्तरवेदि में पय और दक्षिणवेदि में तैयार की हुई सुरा का आसादन करें।

सुरापयःपावन

दक्षिणवेदि के पश्चिम में एक गड्ढा तैयार करे। उसमें गोचर्म बिछावे । गोचर्म पर बाँस की दौरी रखकर सुरा छोड़ दे5 । चर्म पर गिरी हई सुरा को पात्र से उठावे । गौ और अश्व के बालों से बीने हए छन्ने से पलाश के पात्र में सुरा को छान ले6 । उत्तरवेदि में बेंत के बने पात्र में बकरी के रोम से बीने हुए छन्ने से दूध छाने । छानने के अनन्तर विहित काष्ठ के बने ग्रहपात्रों में एतदर्थ निश्चित देवता के लिए सुरा और पय का ग्रहण करे7 । ग्रहपात्रों को खर पर आसादित करे8 । ग्रहपात्रों में विहित द्रव्य छोड़े9 । सरलता पूर्वक जानने के लिए निम्नलिखित विवरण प्रस्तुत है ।

१. द्वे वेदी भवतः । द्वावेव लोकावित्याहुर्दैवलोकश्चैव । श० ब्रा० १२.३.४.७ । ।

वेदी मिमीते वरुणप्रघासवत् । का० श्रौ० १९.२.१ ।

२. उत्तरेऽग्नौ पशुभिः पुरोडाशैः पयोग्रहैश्चरन्ति । श० ब्रा० १२.४.५.१४ ।

३. ऐन्द्रेणोत्तमे तिसॄणाम् । का० श्रौ० १९.१.२६ ।  

४. खरमपरेण चर्मावधाय परिस्रुतमासिच्य कारोतरमवदधाति० पूतामादत्ते । का० श्रौ० १९.२.७ ।

५. ब्रह्म वै पलाशो ब्रह्मणैव स्वर्गं लोकं जयति । श० ब्रा० १२.३.३.११ ।

६. सते पुनाति गोऽश्ववालवालेन । का० श्रौ० १९.२.९ ।

७. व्यतिषक्तान् गृह्णाति । श० ब्रा० १२.३.४.१५ ।

८. खरयोः सादनम् । का० श्रौ० १९.२.१६ । ।

९. सुराग्रहान् श्रीणाति । का० श्रौ० १९.२.२५ ।

 

ग्रहपात्र के काष्ठ  पयोग्रह या सुराग्रह  देवता   प्रक्षेप्यद्रव्य       आसादन स्थान

अश्वत्थ1        पयोग्रह2         आश्विन  गेहूँ, आँवले का चूर्ण  उत्तर खर अश्वत्थ         सुराग्रह          आश्विन  वृक्कलोम           दक्षिण खर औदुम्बर        पयोग्रह          सरस्वती  इन्द्रयव, बैर का चूर्ण  उत्तर खर औदुम्बर        सुराग्रह          सरस्वती  व्याघ्रलोम           दक्षिण खर न्यग्रोध         पयोग्रह         इन्द्र      यव, कर्कन्धुचूर्ण      उत्तर खर न्यग्रोध         सुराग्रह         इन्द्र      सिंहलोम            दक्षिण खर   

 अध्वर्यु सुराग्रह और पयोग्रह का उपस्थान करे। अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता दो-दो श्येन के पक्ष लेकर यजमान को पावन करें3 । अध्वर्यु ग्रहपात्रों का स्पर्श करे4। आश्विन देवता के लिए अज, सरस्वती के निमित्त मेष और इन्द्र के लिए वृषभ ( प्रतिनिधि अज ) को यूप के पूर्व में उपस्थित करे5। पशु को यूप में बाँधने से प्रारम्भ कर उपाकरण प्रभृति वपायाग तक का कृत्य करे। अनन्तर अपनी उत्तरवेदि के अग्नि पर पयोग्रह का अध्वर्यु और दक्षिण वेदि के आहवनीय के अग्नि पर सुराग्रह का प्रतिप्रस्थाता याग करे। याग हो चुकने पर पयोग्रह शेष और सुराग्रह शेष का भक्षण करे । यहाँ सुराभक्षण की विधि को विशेष महत्त्व न देते हुए सूत्रकार ने तद्विषयक चार मत लिखे हैं।

प्रथममत- सुराग्रहपात्र लेकर सब कोई विहार से बाहर दक्षिण की ओर जायँ । अपसव्य करके पयोग्रह के भक्षण के समान सुराग्रह का भक्षण करें6 ।

द्वितीयमत - सुराग्रह का भक्षण न करके प्राणभक्ष (अवघ्राण) करें7 ।

तृतीयमत - किसी क्षत्रिय या वैश्य को थोड़ी सुरा देकर उसे सुरा पीने के लिए खरीद लें । अनन्तर शेष सुरा को उसे पीने को दे8।

चतुर्थमत - प्रतिप्रस्थाता की दक्षिण वेदि के आहवनीय में से तीन अङ्गारे लें। उन्हें आहवनीय के दक्षिण में भूमि पर दक्षिण संस्थ रखे । उत्तरीय अङ्गार पर आश्विन ग्रह की

१. आश्वत्थं पात्रं भवति । श० ब्रा० १२.३.३.१४ ।

२. प्राणा वै पयोग्रहाः । शरीरमेव प्राणैः सन्दधाति । श० ब्रा० १२.३.४.१६ ।

३. पावयतोऽन्तःपात्ये श्येनपत्राभ्याम् । का० श्रौ० १९.२.२९ ।

४. पयोग्रहसम्मर्शनम् । का० श्रौ० १९.२.३१ ।

५. त्रयः पशवो भवन्ति । त्रयो वा इमे लोका इमानेव तैर्ल्लोकानवरुन्धे ।

श० ब्रा० १२.४.१.३२।

आश्विनोऽजो धूम्रः, सारस्वतो मेषः ऐन्द्र ऋषभः । का० श्रौ० १९.३.२-४ ।

६. यदत्रेति सौरान् भक्षयन्ति यथाभक्षितं प्राचीनावीतिनो दक्षिणतः । का० श्रौ० १९.३.१७ ।

७. प्राणभक्षमेके । का० श्रौ० १९.३.२८ ।

८. परिक्रीतो वा वैश्यराजन्ययोरन्यतरः । का० श्रौ० १९.३.१९ ।

 

सुरा का यजमान के पिता के निमित्त हवन करे । मध्यम अङ्गार पर सारस्वतग्रह की सुरा का यजमान के पितामह के निमित्त हवन करे। दक्षिण अङ्गार पर ऐन्द्रग्रह की सुरा का यजमान के प्रपितामह के निमित्त हवन करे । इन आहुतियों के समय अपसव्य से रहे1।

प्रतिप्रस्थाता की दक्षिणवेदि के आहवनीय के दोनों ओर दक्षिण और उत्तर में दो खम्भे गाड़े। दोनों खम्भों के ऊपर दक्षिणोत्तर लम्बी एक लकड़ी रखे। मध्य की लकड़ी के मध्य में एक सिकहर लटकावे । सिकहर में शतच्छिद्र कुम्भ रखे । घड़े पर छन्ना रखे । छन्ने में सुवर्णखण्ड रखे। ऊपर से घड़े में इस प्रकार सुरा छोड़े कि आवहनीय पर घड़े के छिद्रों में से सुरा गिरे। उस समय यजमान मन्त्र वाचन करे2। यदि यजमान सोमयाग कर चुका हो तो वाचन न करके उपस्थान करे3 । यजमान दक्षिण आहवनीय में अपसव्य करके आज्याहुति करे4 । सब कोई सव्य करके उत्तरवेदि के निकट जायँ। उत्तरवेदि पर यजमान आज्य की आहुति दे । जुह्वा में दूध लेकर यजमान ही आहुति दे। यजमान को सब ऋत्विज लोग स्पर्श किये रहें5।

१. अङ्गारेषु वा बहिष्परिधि दक्षिणतो जुहोत्याश्विनमुत्तरे मध्यमे सारस्वतमैन्द्रं दक्षिणे पितृभ्य इति प्रतिमन्त्रम् । का० श्रौ० १९.३.२०।

पयःसुराग्रहाणां सौराणां न भक्षणम् । वै० सू० ३०.११ ।

ब्राह्मणः सुरां न पिबति पाप्मना नेत्सृज्या इति । तदेतत् क्षत्रियाय ब्राह्मणं ब्रूयान्नैनं सुरां पीता हिनस्ति । काठ० सं० १२.१२ ।

ब्राह्मणं परिक्रीणीयादुच्छेषणस्य पातारम्, ब्राह्मणो ह्याहुत्या उच्छेषणस्य पाता । यदि ब्राह्मणं निन्देद् वल्मीकवपायामवनयेत् । तै० ब्रा० १.८.६ ।

सर्वं मद्यमपेयम् । आप० ध० सू० १.५.२१ ।

२. शतवितृण्णां बालपवित्रहिरण्याण्यन्तर्धाय नवर्चं वाचयति । का० श्रौ० १९.३.२३ । ३. सोमातिपूतश्चेत् । का० श्रौ० १९.३.२.२५ ।

४. यजमानो जुहोति । का० श्रौ० १९.३.२६ ।

५. यहाँ महर्षि कात्यायन कहते हैं - जो आहुति करे उसे सब कोई स्पर्श किये रहें। अन्वारब्धेषु पयो जुहोति । का० श्रौ० १९.३.२८ ।

देवयाज्ञिक कहते हैं कि, यजमान आहुति करे और ऋत्विज् लोग यजमान को छूए रहें । ततो यजमानो ऋत्विक्ष्वन्वारब्धेष्वाहवनीये जुहोति । दे०प० पृ० ६२६ ।

इतना ही कहकर देवयाज्ञिक चुप नहीं रहते अपितु अन्य आचार्य के वचन से अपने मत की पुष्टि भी करते हैं - यजमानो जुहोतीति हरिस्वामिनः, अध्वर्युरिति याज्ञिकाः । दे० प० पृ० ६२६ ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यजमान आहुति करे । श० ब्रा० ११.३.५.२० । ऋत्विग्यजमानेषु कृतान्वारब्धेषु अध्वर्युः पयो जुहोतीत्यर्थः । शु० य० म ० भा० १९.४७ ।

इस प्रकार अनेक लोगों के मत से सारांश यही निकलता है कि यजमान अथवा अध्वर्यु आहुति करे, बाकी के लोग आहुति कर्ता को छुए रहें।

स्थाली में शेष बचा हुआ दूध यजमान पान करे। सुवर्ण सहित पवित्र से सब कोई चात्वाल के निकट मार्जन करें1।

पशु पुरोडाश निर्माण

 इन्द्र के निमित्त ग्यारह कपाल का, सविता के निमित्त बारह कपाल का, वरुण के लिए दस कपाल का और अवभृथयाग में वरुण के लिए एक कपाल का पुरोडाश तैयार करे2 । प्रथम शामित्रानुशासन करे । पुरोडाशों को वेदि में आसादित करे । पुरोडाश के देवताओं का पुरोडाश से याग करे। यजमान बछड़े सहित एक घोड़ी और तैंतीस गौ दक्षिणारूप में दे3 । द्वितीय शामित्रानुशासन से लगाकर वनस्पतियाग तक का कृत्य करे4 ।

अभिषेक

जानु जितनी ऊँची आसन्दी आसादित करे5। उस पर कृष्णाजिन बिछाकर यजमान बैठे3 । यजमान बायें पैर के नीचे चाँदी का और दाहिने पैर के नीचे सोने का रुक्म रखे7। वसा ग्रहपात्र से आहवनीय में वसा होम करे । सुगन्धित पदार्थ से यजमान का उबटन करे ।

१. चात्वाले मार्जयन्ते सपत्नीका हिरण्यमन्तर्धाय । का० श्रौ० १९.३.३० ।

२. पशुपुरोडाशान्निर्वपत्येन्द्रं सावित्रं वारुणं दशकपालम् । का० श्रौ० १९.४.१ ।

३. त्रयस्त्रिंशतं दक्षिणा ददात्यनुशिशुं वडवधेनुम् । का० श्रौ० १९.४.५। ।

४. शमित्रानुशासनप्रभृति वनस्पत्यन्तं कृत्वा । का० श्रौ० १९.४.७ ।

५. इस सौत्रामणी याग में यजमान को अभिषेक के समय बैठने के निमित्त जानु जितनी ऊँची, एक हाथ चतुरस्र. चार पाये की, मूंज से बीनी हई आसन्दी ( खटौली ) अपेक्षित है। अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता दोनों की वेदियों में एक बित्ते की दूरी होती है । आसन्दी के दो पाये अध्वर्यु की वेदि में और दो पाये प्रतिप्रस्थाता की वेदि में रखने चाहिए । आसन्दी जानुमात्रपादीं वेद्योर्निदधाति । का० श्रौ० १९.४.७ । ६. कृष्णाजिनमस्यामास्तृणाति । का० श्रौ० १९.४.८ ।

तस्मिन्नास्ते यजमानः । का० श्रौ० १९.४.९ ।

७. पादयोरुक्मा उपास्यति राजतं सव्ये० सौवर्णं शिरस्येके।

 का० श्रौ० १९.४.१०-११ ।

८. त्रयस्त्रिंशद्ग्रहा भवन्ति त्रयस्त्रिंशद्वै सर्वा देवताः सर्वाभिरेवैनमेतद्देवताभिरभिषिञ्चति । श० ब्रा० १२.४.२.१३ ।

कात्यायन श्रौतसूत्र में बत्तीस और शतपथब्राह्मण में तैंतीस ग्रहपात्रों की संख्या से आपाततः विरोध प्रतीत होता है। किन्तु ऐसा नहीं है । तैंतीसवें का उपयोग अभिषेक के बाद में होता है । वसाग्रहयाग के निमित्त बैल के खुर को बीच से खोखला करे। उन्हीं से वसाग्रहयाग करना चाहिये । खुरैर्वसाग्रहान् द्वात्रिंशतं जुहोति ।

हवन करने से बची हुई वसा से यजमान का अभिषेक करे1 । अध्वर्यु समन्त्रक यजमान का स्पर्श करे2 । अनन्तर यजमान अपने अङ्गों का स्पर्श करे3 ।

ऊर्ध्वोत्थापन

यजमान सुश्लोक, सुमङ्गल, सत्यराजन् और सुभद्रक नामक अपने चार पुरुषों को बुलावे4 । यजमान के चारों पुरुष यजमान द्वारा बुलाने पर यजमान के निकट उपस्थित हों। आसन्दी पर बैठे हुए यजमान को आसन्दी सहित ऊपर को उठावें5 । भूमि पर कृष्णाजिन बिछाया जाय । अनन्तर यजमान आसन्दी पर से कृष्णाजिन पर पैर रखते हुए भूमि पर उतरे6 । उस समय ब्रह्मा साम मन्त्रों का गान करे7 । होता शंसन करे और अध्वर्यु प्रणव से प्रतिगर करे8 । होता द्वारा शस्त्रपाठ की समाप्ति होने पर अध्वर्यु तैंतीसवें वसाग्रह पात्र से हवन करे9 । ग्रहयाग के शेष का सब कोई प्राणभक्ष करें10 । अनन्तर सब कोई मार्जन करें। याग के शेष कृत्य की समाप्ति करे11। ऋत्विज और सपत्नीक यजमान अवभृथ याग के निमित्त जलाशय के प्रति प्रस्थान करें।

अवभृथयाग

अवभृथ याग के निमित्त प्रस्थान के समय ब्रह्मा सामगान करे । वरुण का पुरोडाश, आज्यस्थाली, स्रुवा, स्रुची, सुरालिप्त और पयोलिप्तपात्र, शूल और पहनने के वस्त्र प्रभृति सामग्री साथ में ले जायँ12 । आधे रास्ते पर पहुँचकर ब्रह्मा सामगान करे। पुनः जलाशय पर पहुँच कर ब्रह्मा सामगान करे । साथ में लाया हुई सामग्री व्यवस्थित करके अवभृथ याग करे१३ ।

१. सर्वसुरभ्युन्मृदितम्, शेषैरभिषिञ्चति । का० श्रौ० १९.४.१४ ।

२. यजमानमालभते कोऽसीति । का० श्रौ० १२.४.१९ ।

३. अङ्गानि चालभते । का० श्रौ० १९.४.२१ ।

४. सुश्लोकेत्यालब्धः । का० श्रौ० १९.४.२० ।

५. उद्यच्छन्त्येनम् । का० श्रौ० १९.४.२२।

६. कृष्णाजिनेऽवरोहति । का० श्रौ० १९.४.२३ ।  

७. ततो ब्रह्मा० साम गायति । दे० प० पृ० ६३२ ।

८. आस्ते प्रतिगरिष्यन् । का० श्रौ० १९.५.७ ।

९. त्रया देवा इति शस्त्रान्ते जुहोति । का० श्रौ० १९.५.८ ।

१०. शेषमृत्विजः प्राणभक्षं भक्षयन्ति । का० श्रौ० १९.५.९ ।

११. बर्हिहोमात् कृत्वा । का० श्रौ० १९.५.११ ।

१२. परिस्रुक्क्षीरलिप्तान्यादाय । का० श्रौ० १९.५.११ ।

१३. आशूलाभिमन्त्रणात्कृत्वोदकाधिष्ठानप्रभृत्यावभृथेष्टेः । का० श्रौ० १९.५.१२ ।

मासरकुम्भ का जल में उत्सर्ग करे1 । स्नान के अनन्तर वस्त्र धारण करें2। यज्ञशाला में लौटकर यजमान आहवनीय में और पत्नी गार्हपत्य में समिदाधान करें3। अध्वर्यु प्रणीता विमोक प्रभति शेषकृत्य की समाप्ति करे । यजमान अपनी शेषविधि की समाप्ति करे ।

आदित्येष्टि

. इस पशुत्रययाग से पूर्व जैसे आदित्येष्टि की थी, वैसे ही पुनः आदित्येष्टि करे4 । अदिति देवता के निमित्त चरु करके प्रधान याग करे। पहले की आदित्येष्टि में जिस गोवत्स को दक्षिणा में दिया था उसी की मां को इस आदित्येष्टि में दक्षिणा दे। पूर्ववत् शेष यागविधि की समाप्ति करे।

मैत्रावरुणी पयस्येष्टि

आदित्येष्टि के अनन्तर मैत्रावरुणी पयस्येष्टि करे5। दोहन, पयःप्रतपन, दधिप्रक्षेप प्रभति करके पयस्या तैयार करे। मित्रावरुण देवता के निमित्त प्रधानयाग करे। दक्षिणा के समय अन्वाहार्य दक्षिणा दे । वाजिन याग करके शेष कृत्य की समाप्ति करे ।

वायोधस् पशुयाग

उपर्युक्त मैत्रावरुणी पयस्येष्टि के अनन्तर वायोधस् पशुयाग करना चाहिए। इस पशुयाग के प्रधान देवता इन्द्र वयोधा हैं6 । पशुपुरोडाश के समय आठ कपाल का पशुपुरोडाश करे। इस पशुयाग की समस्तविधि पूर्वोक्त निरूढपशुबन्धयाग की तरह करनी चाहिए। अन्त में सौत्रामणीयाग की साङ्गता के निमित्त छ सौ ब्राह्मणभोजन का संकल्प करे।

१. मासरकुम्भं प्लावयति ।

पूर्ववन्मज्जनम् । का० श्रौ० १९.५.१३-१४ ।

२. अवभृथवत्स्नात्वा वस्त्रोपासनम् । का० श्रौ० १९.५.१६ ।

३. समिधमाहवनीयेऽभ्यादधाति । का० श्रौ० १९.५.१९ ।

४. आदित्येष्टिः पूर्ववत् । दे० प० पृ० ६३५ ।

५. पयस्या मैत्रावरुणी । का० श्रौ० १९.५.२१ ।

६. पशुरिन्द्राय वयोधसे । का० श्रौ० १९.५.२२ ।

(कात्यायन यज्ञपद्धति विमर्श – डा. मनोहरलाल द्विवेदी (राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्)