PURAANIC SUBJECT INDEX पुराण विषय अनुक्रमणिका (Suvaha - Hlaadini) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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There is a universal statement in vedic literature that the progeny of lord Brahmaa/Prajaapati went out of his control just after birth. The only progeny which remained in his control was which was born according to principles of Yajna. This paper tries to explain on the basis of vedic literature and modern sciences what this statement may actually mean. The simplest meaning of the statement of going out of control may be applied on our outward consciousness. Turing this consciousness inward is the biggest challenge before vedic seers. Here control on progeny may mean control to prevent this progeny from losing its potential, to control it from being get disordered. Lord Brahmaa may mean the higher consciousness and progeny may mean lower consciousness. Yajna has been explained as means to prevent disorder taking place. ब्रह्माण्ड पुराण १.१.३ में इस प्रजापति या ब्रह्मा की एक समस्या है । वह यह कि ब्रह्मा जिन प्राणियों की सृष्टि करता है, वह ब्रह्मा से दूर चले जाते हैं, ब्रह्मा को उस सृष्टि का कोई लाभ नहीं मिल पाता । पहले ब्रह्मा ने दो पैर वाले पक्षियों की सृष्टि की । वह दूर चले गए । फिर बिना पैर वाले ( सर्पों के अतिरिक्त ) प्राणियों की सृष्टि की । वह भी दूर चले गए । फिर ब्रह्मा ने सोचकर ऐसी प्रजा की सृष्टि की जो स्तनपायी थी । वह प्रजा ब्रह्मा से दूर नहीं गई । क्षीरपान के लोभ में ब्रह्मा से जुडी रही । इन साधारण से लगने वाले आख्यानों का एक गम्भीर पहलू भी है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२२८ में क्षीर को अन्नाद्य अथवा यज्ञीय कहा गया है । अतः स्तनपायी प्रजा से उत्पन्न होने का तात्पर्य हुआ - यज्ञीय प्रजा की सृष्टि । वैदिक साहित्य जिस प्रजा की बात करता है, उसके बारे में अनुमान है कि वह साधारण प्रजा नहीं है, अपितु प्रज्ञा है । प्रज्ञा का अर्थ होगा हमारी वह बुद्धि जो सर्वोच्च चेतना से हरदम जुडी रहती है । दूसरे शब्दों में, वह स्मृति जो श्रुति से सर्वदा निर्देश लेती रहती है । अन्य शब्दों में, हमारी आत्मा की आवाज। बहुत बार कह दिया जाताहै कि हम यह कार्य इसलिए कर रहे हैं कि यह हमारी आत्मा की आवाज है । लेकिन वैदिक दर्शन के अनुसार यदि हमारी स्मृति श्रुति से नहीं जुडी है तो यह आत्मा की आवाज भी झूठी ही होगी । लक्ष्मीनारायण संहिता में प्रज्ञा को श्रद्धा की पुत्री कहा गया है । जब वैदिक साहित्य प्रजा के उत्पन्न होते ही दूर चले जाने का उल्लेख करता है, तो उसका तात्पर्य यही हो सकता है स्मृति श्रुति से दूर चली गई है । वैदिक साहित्य की प्रजा को दूसरे ढंग से भी समझा जा सकता है । हमारे मन से उत्पन्न होने वाले सभी विचार हमारी प्रजाएं हैं . और मन ब्रह्मा है । पौराणिक साहित्य में एक कथा आती है कि एक सिद्ध तपस्या कर रहा था । उस काल में उसकी जटाओं में एक पक्षी ने घोंसला बना लिया और उसमें अण्डे दे दिए । उन अण्डों से बच्चे उत्पन्न हुए . उन बच्चों के पंख उत्पन्न हुए । धीरे - धीरे वह उडने लायक हो गए। वह उडकर जाते और फिर घोंसले में लौट आते । फिर ऐसा समय आया कि वह लौटकर घोंसले में नहीं आए । तब सिद्ध ने समझ लिया कि उसकी सिद्धि पूर्ण हो गई है । इस आख्यान में घोंसले में लौटकर न आने से क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है, क्योंकि यह कथन वैदिक दर्शन के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है । जब अग्निहोत्र आदि यागों हेतु तीन अग्नियों की स्थापना हेतु अग्नि का आधान किया जाता है तो गार्हपत्य अग्नि के आधान हेतु यजु है - नर्य प्रजां में पाहि, अर्थात् हे नर्य अग्नि, मेरी प्रजा का उद्धार करो । आहवनीय अग्नि के आधान हेतु यजु है - शंस्य पशून् मे रक्ष, अर्थात् हे शंस्य अग्नि, मेरे पशुओं की रक्षा करो । प्रश्न यह है कि गार्हपत्य अग्नि के गुणों को समझ कर, उसे नर्य बनाकर, उस अग्नि में नर के गुणों का समावेश करके प्रजा का, प्रज्ञा का उद्धार कैसे किया जा सकता है । सबसे पहले हमें गार्हपत्य अग्नि के गुणों को समझना होगा । गार्हपत्य अग्नि का तादात्म्य ब्रह्मा से और आहवनीय अग्नि का तादात्म्य रुद्र से है । इसके अतिरिक्त, गार्हपत्य अग्नि का तादात्म्य ऋग्वेद से और आहवनीय अग्नि का तादात्म्य सामवेद से कहा गया है । इससे भी अतिरिक्त, गार्हपत्य अग्नि का तादात्म्य जाग्रत अवस्था से और आहवनीय अग्नि का सुषुप्ति अवस्था से कहा गया है । इन दो अग्नियों के बीच में एक तीसरी अग्नि भी होती है जिसे अन्वाहार्यपचन अग्नि कहते हैं । इस अग्नि का तादात्म्य विष्णु, स्वप्नावस्था, यजुर्वेद आदि से है । जाग्रत अवस्था में हमारी चेतना बहिर्मुखी होती है । ऐसा कहा जा सकता है कि बहिर्मुखी चेतना को अन्तर्मुखी बनाना ही गार्हपत्य अग्नि का लक्ष्य है । इस उद्देश्य के लिए कहा गया है - नर्य, प्रजां मे पाहि । अब नर्य कैसे बनाया जा सकता है, इसके लिए नर शब्द को समझना पडेगा जिसके लिए नल - दमयन्ती की कथा सबसे उपयुक्त है । राजा नल अश्व विद्या जानता था लेकिन अक्ष विद्या नहीं । इस कारण से वह द्यूत में हार गया । यहां द्यूत को निम्न स्तर की प्रकृति में चल रही आकस्मिकता के आधार पर, चांस के आधार पर समझना चाहिए। इस प्रकृति में घट रही सभी घटनाएं आकस्मिक हैं, एक चांस हैं । यह द्यूत कहलाता है, अक्ष कहलाता है । यह अक्ष या द्यूत विद्या तब बनेगा जब इसमें अश्व विद्या का समावेश हो जाएगा । जैसा कि ओंकार शब्द के संदर्भ में कहा गया है, ऋग्वेद की प्रतिमा में ऋग्वेद के हाथ में अक्षमाला दिखाई गई है । अक्षमाला का अर्थ होगा - अक्षों को परस्पर जोडने वाला कोई सूत्र है, कोई चेतना है जो सभी अक्षों को परस्पर जोडती है । अक्षों के गुणों को चुम्बक के आधार पर समझा जा सकता है । चुम्बक में आकर्षण की शक्ति होती है । वह बाहर की चुम्बकीय शक्ति को अपने अन्दर आकर्षित कर लेता है । चुम्बक के कण बाहर की चुम्बकीय शक्ति से, चुम्बकीय चेतना से जुडे रहते हैं । ऐसी ही स्थिति हमें अपने अन्दर भी उत्पन्न करनी है । तभी अक्षमाला बन सकती है । भौतिक विज्ञान में भी अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी चेतना का विवेचन हुआ है । वहां इसे मैक्सवैल डैमन, मैक्सवैल का भूत नाम दिया गया है । वहां प्रश्न यह है कि इस संसार की एण्ट्रांपी में, अव्यवस्था की माप में निरन्तर वृद्धि हो रही है जिसके कारण अविनाशी ऊर्जा अविनाशी होते हुए भी उसका उपयोग करने की क्षमता निरन्तर घट रही है, वह ब्रह्माण्ड में फैलती ही जा रही है जिसके कारण उसका उपयोग कठिन और कठिन होता जा रहा है । क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे इस ऊर्जा को पुनः संघनित किया जा सके । इसके लिए कल्पना की गई कि मान लिया जाए कि कोई ऐसा भूत है जो एक यन्त्र लिए एक घर के दरवाजे पर खडा है । वह भूत बाहर से अन्दर केवल उन्हीं कणों को प्रवेश करने देता है जिनकी एण्ट्रांपी या अव्यवस्था कम है । इस प्रकार वह घर के अन्दर की अव्यवस्था को कम करने में सफल हो जाएगा । लेकिन इस कल्पना को इसलिए अस्वीकार कर दिया गया कि भूत इस कार्य में जितनी अव्यवस्था में वृद्धि करेगा, उसे जोडने पर कुल बचत ऋणात्मक ही होगी । अतः भौतिक दृष्टिकोण से यह कल्पना अव्यावहारिक है । लेकिन जैविक दृष्टिकोण से यह कितनी व्यावहारिक है, यह एक विचारणीय प्रश्न है । भौतिक विज्ञान में जिसे एण्ट्रांपी या अव्यवस्था में ह्रास कहा गया है, वैदिकि साहित्य में उसे यज्ञीय कहा गया है । और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, यज्ञीय वही प्रतीत होता है जहां स्मृति श्रुति से जुडी हो । नेल्लौर, आन्ध्रप्रदेश निवासी अध्वर्यु श्री श्रीनिवासन् द्वारा दी गई सूचना के अनुसार सोमयाग की सृष्टि विद्या ५ यजुओं का निर्माण करने वाले १७ अक्षरों पर आधारित है । यह पांच यजु हैं - आ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौषट् । इन पांच यजुओं के आधार पर अन्नाद्य का निर्माण किया जा सकता है । इन पांच यजुओं को समझाने का प्रयत्न इस प्रकार किया गया है कि वृष्टि से पहले पुरोवात चलती है, फिर मेघ एकत्र हो जाते हैं, फिर मेघों का गर्जन होता है(स्तनयित्नु), फिर विद्युत चमकती है और सबसे अन्त में वृष्टि हो जाती है । अथवा गौ से क्षीर दोहने के लिए पहले वत्स को उसके पास में लाते हैं, फिर - - - - -। जब ब्राह्मण ग्रन्थों अथवा पुराणों में स्तनपायी प्रजा की उत्कृष्टता का उल्लेख आता है, इस कथन को उपरोक्त पांच यजुओं में स्तनयित्नु के आधार पर समझने की आवश्यकता है । पांचवें यजु वौषट् को इस प्रकार समझाया गया है - असौ वाव वौ, ऋतवो वै षट् । इसका अर्थ हुआ कि सूर्य वौ है और पृथिवी की ६ ऋतुएं षट् हैं । सूर्य ६ ऋतुओं के माध्यम से अपनी शक्ति का वर्षण पृथिवी पर करता है । यह भौतिक सूर्य का अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम है । प्रजा के ब्रह्मा से जुडे रहने के तथ्य को ब्रह्माण्ड की परिस्थितियों के आधार पर भी समझा जा सकता है । ब्रह्माण्ड में पिण्ड तो बहुत सारे हैं, लेकिन उनमें से सबसे अधिक महत्त्व केवल सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा का है । इसका कारण यह है कि यह पिण्ड एक दूसरे से परस्पर सम्बद्ध हैं । गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण यह परस्पर जुडे हैं । वैदिक साहित्य में इस स्थिति को संवत्सर का निर्माण कहा गया है और इसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कहा गया है । अध्यात्म में सूर्य को प्राण, मन को चन्द्रमा और पृथिवी को देह या वाक् कहा गया है । इन तीनों का परस्पर सम्बद्ध होना आवश्यक है।
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