PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(Suvaha - Hlaadini)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Suvaha - Soorpaakshi  (Susheela, Sushumnaa, Sushena, Suukta / hymn, Suuchi / needle, Suutra / sutra / thread etc.)

Soorpaaraka - Srishti   (Soorya / sun, Srishti / manifestation etc. )

Setu - Somasharmaa ( Setu / bridge, Soma, Somadutta, Somasharmaa etc.)

Somashoora - Stutaswaami   ( Saudaasa, Saubhari, Saubhaagya, Sauveera, Stana, Stambha / pillar etc.)

Stuti - Stuti  ( Stuti / prayer )

Steya - Stotra ( Stotra / prayer )

Stoma - Snaana (  Stree / lady, Sthaanu, Snaana / bath etc. )

Snaayu - Swapna ( Spanda, Sparsha / touch, Smriti / memory, Syamantaka, Swadhaa, Swapna / dream etc.)

Swabhaava - Swah (  Swara, Swarga, Swaahaa, Sweda / sweat etc.)

Hamsa - Hayagreeva ( Hamsa / Hansa / swan, Hanumaana, Haya / horse, Hayagreeva etc.)

Hayanti - Harisimha ( Hara, Hari, Harishchandra etc.)

Harisoma - Haasa ( Haryashva, Harsha,  Hala / plough, Havirdhaana, Hasta / hand, Hastinaapura / Hastinapur, Hasti / elephant, Haataka, Haareeta, Haasa etc. )

Haahaa - Hubaka (Himsaa / Hinsaa / violence, Himaalaya / Himalaya, Hiranya, Hiranyakashipu, Hiranyagarbha, Hiranyaaksha, Hunkaara etc. )

Humba - Hotaa (Hoohoo, Hridaya / heart, Hrisheekesha, Heti, Hema, Heramba, Haihai, Hotaa etc.)

Hotra - Hlaadini (Homa, Holi, Hrida, Hree etc.)

 

 

स्तोम

          वैदिक साहित्य ऋषि व छन्द तक ही सीमित नहीं रहा है । इससे ऊपर उठकर उसने सप्तर्षियों व स्तोमों का कल्पन किया है । स्तोम शब्द ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से प्रकट हुआ है । सामवेद में स्तोमों के माध्यम से गाए जाने वाले सामों का रहस्य क्या है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है । ब्राह्मणों का कथन है कि साम देव हैं, प्रजा छन्द हैं ( जैमिनीय ब्राह्मण १.२७७) । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२९३ का कथन है कि सामों द्वारा ( अह या दिन ) व्यूढ/व्यूह होते हैं, छन्दों द्वारा समूढ/समूह । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१३ का कथन है कि छन्द देवों के अश्व हैं, स्तोम देवरथ हैं । जैमिनीय ब्राह्मण में ही सोमयाग में एक दिन में जिन सामों का प्रयोग होता है, उन सबको एक रथ के विभिन्न अवयवों का रूप दे दिया गया है । इसके अतिरिक्त छन्दों के भी समूह और व्यूह २ प्रकार कहे गए हैं और यह उल्लेख है कि यदि कोई समूह प्रकार के द्वादशाह का यजन करता है तो उसे व्यूह प्रकार का भी यजन करना चाहिए । इसी प्रकार कोई व्यूह प्रकार का यजन करता है तो उसे समूह प्रकार का भी करना चाहिए ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१२) । आज लोक में हम देखते हैं कि भीड एकत्र हो जाती है । लेकिन कुछ विशिष्ट व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो भीड में जाना पसंद नहीं करते । वह अपना एक विशिष्ट वर्ग बनाएंगे । यही समूह और व्यूह में अंतर है । आधुनिक भौतिक विज्ञान में इसी आधार पर बोस - आइन्स्टीन सांख्यिकी और फर्मी - डिराक सांख्यिकी का जन्म हुआ है । प्रकृति के बहुत से कण ऐसे हैं जो समूह बना सकते हैं, भीड बन सकते हैं । लेकिन कुछ ऐसे हैं जो ऐसा नहीं कर सकते । प्रायः जिन कणों पर कोई आवेश होता है, वह समूह नहीं बनाते । सामान्य भाषा में आवेश को अहंकार कह सकते हैं । अहंकार रखने वाले व्यक्ति समूह में सम्मिलित नहीं होते । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३३९ में उल्लेख आता है कि प्रजापति के शरीर में मन और प्राण ने प्रवेश किया । वह व्यूह जैसा हो गया । उसने समूह छन्द द्वारा - - - । वैदिक साहित्य में सर्वाङ्गीण विकास के लिए समूह का, छन्दों का मार्ग है और ऊर्ध्वमुखी त्वरित गति से प्रगति के लिए स्तोमों का मार्ग है, ऐसा कहा जा सकता है । लेकिन यह कथन शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.२ के कथन के विपरीत जाता लगता है । शतपथ का कथन है कि अभिप्लव षडह के ६ अहों का आयतन गायत्री आदि ६ छन्द हैं । देवगण अभिप्लव के माध्यम से प्रगति करते हैं । दूसरी ओर, पृष्ठ्य षडह के ६ अहों का आयतन त्रिवृत् आदि ६ स्तोम हैं । अङ्गिरस प्राण पृष्ठ्य षडह के माध्यम से प्रगति करते हैं । सप्तर्षि स्तोमों से सम्बन्धित हैं । 

          जैसा कि छन्दों के संदर्भ में ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, ऐसा अनुमान है कि भौतिक पृथिवी तो सूर्य की परिक्रमा करती है, लेकिन चेतन पृथिवी चेतन सूर्य की परिक्रमा नहीं करती । वैदिक साहित्य में यह अपेक्षित है कि ऐसा हो, संवत्सर का निर्माण हो । वैदिक साहित्य में मन, प्राण और वाक् को क्रमशः चन्द्रमा, सूर्य व पृथिवी माना गया है । यदि मन, प्राण और वाक् में परस्पर कोई सम्पर्क हो जाए तो वह श्रेष्ठ स्थिति होगी । जैमिनीय ब्राह्मण २.४०९ तथा ३.३३४ में उल्लेख आता है कि सब देव प्रजापति से दूर चले गए लेकिन इन्द्र नहीं गया । तब प्रजापति ने इन्द्र से कहा कि स्तो मे, मेरी स्तुति करो । ऐसा करने से प्रजापति की प्रजा पुनः प्रजापति के पास आ गई और उनके साथ में सर्वश्रेष्ठ अन्न या अन्नाद्य भी प्रजापति के पास आ गए । यह स्तो - मे ही स्तोम कहलाया  । इसका निहितार्थ यही हो सकता है कि किसी प्रकार चेतन स्तर पर मन, प्राण और वाक् का परस्पर सम्बन्ध जुड जाए, वह एक दूसरे की परिक्रमा करने लगें तो स्तोम उत्पन्न हो सकता है । स्तुति  से तात्पर्य परिक्रमा होना चाहिए । ऐसा प्रतीत होता है कि स्तोम बनने की स्थिति देवों के स्तर पर ही आती है, मर्त्य स्तर पर तो छन्द ही बन पाते हैं । ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से स्तोम व उक्थ शब्दों का एक साथ उल्लेख आता है ( उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.८.१०, १.५.८, १.१३६.५, २.११.३, ३.४२.४, ६.५९.१०, ८.१४.११ आदि ) । तैत्तिरीय संहिता ३.१.२.४ में उल्लेख आता है कि उक्थ स्तोम में प्रतिष्ठित होते हैं, स्तोम सोम में प्रतिष्ठित होता है और सोम वायव्य ग्रह में प्रतिष्ठित होता है । पुराण विषय अनुक्रमणिका में उक्थ शब्द पर टिप्पणी में यह स्पष्ट किया गया है कि सोए हुए प्राणों के उत्थापन का नाम उक्थ है । उदाहरण के लिए नाम लेने पर सोया हुआ व्यक्ति जाग जाता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में जिसे उक्थ नाम दिया गया है, सोमयाग में उन्हें शस्त्र कहा जाता है । सोमयाग में सामवेदी ऋत्विज पहले स्तोमों में बद्ध सामगान करते हैं और उसके पश्चात् ऋग्वेद से सम्बन्ध रखने वाले ऋत्विज सामगान से सम्बद्ध शस्त्र का शंसन या वाचन करते हैं । इस शंसन में ऋग्वेद की ऋचाओं का समावेश होता है और ऋचाएं छन्दों में बद्ध होती हैं । स्तोमों का क्या लाभ होता है, इसका ऋग्वेद की ऋचाओं में उल्लेख किया गया है । लेकिन इससे आगे एक प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों ने स्तोमों का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, क्या उसका कोई प्रमाण वैदिक ऋचाओं में मिलता है ? उदाहरण के लिए, जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में त्रिवृत् स्तोम को प्राण व वसिष्ठ ऋषि से, पञ्चदश स्तोम को भरद्वाज व दण्ड से, सप्तदश स्तोम को जमदग्नि व भूमा या अन्नाद्य से, एकविंश स्तोम को गोतम व श्रद्धा से, त्रिणव स्तोम को अत्रि व भूयः या मन्त्रवादी प्रजा से तथा त्रयस्त्रिंश स्तोम को विश्वामित्र व स्वराज्य से सम्बद्ध किया गया है । वैदिक ऋचाओं में तो प्रत्यक्ष  रूप से त्रिवृत्~, पञ्चदश, सप्तदश आदि स्तोमों का उल्लेख नहीं आता, लेकिन व्यवहार में हम देखते हैं कि सारा सामवेद ही इनके ऊपर आधारित है । अतः इसके पीछे छिपे रहस्यों का उद्घाटन अपेक्षित है । सामवेद में प्रत्येक साम को विभिन्न स्तोमों में गाया जा सकता है । जिस प्रकार विभिन्न छन्दों के उद्देश्यों का वर्गीकरण हो गया है, उसी प्रकार स्तोमों का भी होना चाहिए ।

          मैत्रायणी संहिता १.५.५ का कथन है कि स्तोम केवल सोमयाग तक ही सीमित नहीं हैं, अग्निहोत्र जैसे प्रारम्भिक यज्ञ में स्तोमों की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, अन्यथा वह यज्ञ नहीं हो सकता । अग्निहोत्र में स्तोमों की प्रतिष्ठा किस प्रकार से होती है, इसे आगे समझने की आवश्यकता है । तैत्तिरीय संहिता १.५.९.७ का कथन है कि पशु प्रजापति से दूर होकर रात्रि में असुरों के पास चले गए थे । तब प्रजापति ने छन्दों द्वारा अहोरात्र से पशुओं को पुनः प्राप्त किया । अतः यह कहा जा सकता है कि प्रजा की पुनः प्राप्ति का जो कार्य स्तोमों द्वारा होता है, वह छन्दों द्वारा भी होता है । दोनों में क्या अन्तर है, यह अन्वेषणीय है । ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में जिसे प्रजापति की प्रजा कहा गया है, वह मनुष्य के मुख की आभा, उसका औरा हो सकती है । यह आभा प्रजापति के लिए सारे अन्न का, अन्नाद्य का कर्षण करने वाली होनी चाहिए, ऐसा वैदिक साहित्य से संकेत मिलता है । स्वयं आभा भी मनुष्य के उच्चतर व्यक्तित्व के विकास के लिए और मर्त्य स्तर की स्थिरता के लिए अन्न का कार्य करती है ।

          जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, स्तोम देवों से और छन्द ऋचाओं से, मनुष्यों से सम्बन्ध रखने वाले हैं । वैदिक साहित्य के सार्वत्रिक उल्लेख के अनुसार यत् कर्म क्रियमाणम् ऋगभिवदति - - अर्थात् ऋचा से किसी कर्म के सम्पादन से पूर्व ही कर्म के स्वरूप का आभास हो जाता है । तब स्तोम द्वारा क्या प्राप्ति होती है ? ऋग्वेद ८.६४.१, ८.५४.८ व १.१५६.१ से हमें उत्तर प्राप्त होता है कि स्तोमों द्वारा देवों के प्रसन्न होने पर देवों से हमें राध:, श्रुति का ज्ञान प्राप्त होता है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि देवों की प्रगति त्वरित गति से, अद्य, आज ही होती है, जबकि अङ्गिरस गण जो मर्त्य स्तर का प्रतीक हो सकते हैं, धीमी गति से प्रगति करते हैं । उनकी गति श्व:, भविष्य के कल द्वारा होती है । ऋग्वेद ४.१०.१ में स्तोमों द्वारा अग्नि को अद्य अश्व, भविष्य के कल से रहित, बनाया गया है । ऋग्वेद ९.१०८.७ में स्तोम की तुलना अश्व से की गई है । लेकिन जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१३ में स्तोमों को देवरथ व छन्दों को अश्व कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.१.६ के अनुसार स्तोम से देवों ने इस लोक में समृद्धि प्राप्त की व छन्दों से उस लोक में ।  ऋग्वेद ३.३२.१३ में पूर्व, मध्यम व नूतन स्तोमों का उल्लेख आता है । यह अन्वेषणीय है कि यह ३ प्रकार के स्तोम कौन से हैं ?

          शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.५ में छन्दों से आरम्भ करके स्तोमों तक प्रगति करने हेतु मध्य की स्थितियों का कथन है । उदाहरण के लिए, गायत्री छन्द से गायत्र साम का निर्माण किया जाता है, गायत्र साम से उपांशु ग्रह, उपांशु ग्रह से त्रिवृत्~ स्तोम, त्रिवृत्~ स्तोम से रथन्तर पृष्ठ का निर्माण होता है  ।

          छन्दों व स्तोमों के वर्गीकरण का लोक में बहुत महत्त्व पाया गया है । भारतीय साहित्य में मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की चेतना पहले तो एक इकाई रहती है और फिर वह धीरे - धीरे एक समूह में विलीन होने लगती है जिन्हें पितर कहते हैं । प्राचीन अमेरिकी सभ्यता के अनुसार मृत्यु के पश्चात् सभी प्राणी एक आकाशगङ्गा रूपी चेतना की धारा में विलीन हो जाते हैं और उसी से वापस आते हैं । यह माना जा सकता है कि पशुओं में जो चेतनागत अहंकार होता है, वह प्रकृति - प्रदत्त होता है और उनकी मृत्यु के पश्चात् वह उसी प्रकृति की समष्टि चेतना में विलीन हो जाता है ।  भारतीय समाज में जो मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की चेतना के इकाई बने रहने की धारणा है, वह विवादास्पद है । ऐसा भी हो सकता है कि यदि चेतना विकसित नहीं है तो चेतना का अधिकांश भाग टूट कर बिखर जाता हो और केवल एक अंश विशेष ही पितरों में विलीन होता हो । मृतक की चेतना को अधिकतम अंश तक इकाई बनाने के लिए ही हो सकता है मृतक को पिण्डदान का विधान हो ।

आभार प्रदर्शन

यह कार्य डा. लक्ष्मीनारायण धूत द्वारा अपने लेख में यह रहस्योद्घाटन करने के पश्चात् ही सम्भव हो सका है कि वैदिक साहित्य की भाषा में जिसे द्यूत कहा जाता है, आधुनिक विज्ञान की भाषा में वह चांस या संभावना का सिद्धान्त है । यदि गङ्गाखेड, महाराष्ट्र के स्वर्गीय श्री रङ्गनाथ जी सेलूकर और दिल्ली के श्री हरिराम गुप्ता द्वारा जनता के प्रदर्शन हेतु यज्ञों का आयोजन न किया जाता तो सोमयाग  की प्रकृति को समझने का अवसर मिलना कठिन होता ।

 

 

संदर्भ

*स्तोम आत्मा साम तनूः तै.सं. 4.1.10.5

*अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदि स्पृशम्। - तै.सं. 4.4.4.7

*स्तोमश्च मे यजुश्च मे तै.सं. 4.7.9.1

*स्तोमेन वै देवा अस्मिँल्लोक आर्ध्नुवन् छन्दोभिरमुष्मिन् तै.सं. 5.2.1.6

*स॒वि॒ता स्तोमैः॑ (सहागच्छतु) तै.आ. 3.8.1

*स्तोमं प्रतिहारं(प्रजापतिरकरोत्) जै.उ.ब्रा. 1.3.3.3

*यस्य वा अग्निहोत्रे स्तोमो युज्यते स्वर्गमस्मै भवति, अयज्ञो वा एष यत्र स्तोमो न युज्यते मै.सं. 1.5.5

*त्रि॒ण॒वेन॒ स्तोमे॑नै॒भ्यो लो॒केभ्योऽसु॑रा॒न्प्राणु॑दत्। त्र॒य॒स्त्रिँ॒ँशेन॒ प्रत्य॑तिष्ठत्। ए॒क॒विँ॒ँँशेन॒ रुच॑मधत्त। स॒प्त॒द॒शेन॒ प्राजा॑यत। य ए॒वं वि॒द्वान्त्सोमे॑न॒ यज॑ते। स॒प्तहो॑त्रै॒व सु॑व॒र्गं लो॒कमे॑ति। - तै.ब्रा. 2.2.4.6

*अन्नं वै स्तोमश्च यजुश्च – मै.३.४.२ (तु. माश ९.३.३.६

*अयुज स्तोमा वीर्यावत्तराः - जै ३,३०० ।

*ऋचा स्तोमं समर्धय – तैसं ३.१.१०.१

*एकविंशो वै स्तोमानां प्रतिष्ठा – काठ २०.१, क ३१.३, माश १३.५.१.७, ऐआ १.४.२, १.५.१ (तु. तैसं २.५.१०.२)

*एते ह वै शिवाश्शान्ताः पथ्या स्तोमा ये ज्योतिर्गौरायुरिति । जै २,३४० ।

एष खलु वै स्तोमो यदश्वः – मै. १.६.४

*किं नवमेनेति त्रिवृतं स्तोममिति । तैसं ७, ,,२ ।

*छन्दांसि वै सर्वे स्तोमाः । जै १, ३३२ ।

तव स्तोमेनेतीन्द्रम्(अब्रुवन् देवाः) – जै. १.२११

*त्रिवृता स्तोमान् (अन्वाभवत्) । काठ ४३.४ ।

*त्रिवृत्पञ्चदशः सप्तदश एकत्रिंश एते वै स्तोमानां वीर्य्यवत्तमाः । तां ६,, १५ ।

*देवा वा आदित्यस्य स्वर्गाल्लोकादवपादादबिभयुस्तमेतैः स्तोमैः सप्तदशैरदृंहन्यदेते स्तोमा भवन्त्यादित्यस्य धृत्यै । तां ४..९ ।

*प्राणा वै स्तोमाः (सुरभयः – तै) – जै २.१३३, तै ३.९.७.५, माश ८.४.१.३

*यदु ह किं च देवाः कुर्वते स्तोमेनैव तत्कुर्वते यज्ञो वै स्तोमः – माश ८.४.३.२

*यस्य वा अग्निहोत्रे स्तोमो युज्यते स्वर्गमस्मै भवति, अयज्ञो वा एष यत्र स्तोमो न युज्यते । मै १..५ ।

*वीरजननं वै स्तोमः । तां २१..३ ।

*वीर्यं वै स्तोमाः । तां २.., ११.२ ।

*श्रद्धा वै ब्रह्मवर्चसमेकविंश स्तोमानाम्। असौ हि स आदित्यः। - जै. २.२१८

* (प्रजापतिः) इन्द्रम् अब्रवीत् कथं न्व् अहम् इतः पुनरन्वाभवेयम् इति । किं खलु वै तेऽस्तीत्य् अब्रवीत्, स्तो न्वै म इमौ प्राणापानाव् इति । यत् स्तोम इत्य् अब्रवीत् तत् स्तोमस्य स्तोमत्वम् । स्तुवत एनं स्वा अयं न श्रेष्ठ इति' य एवं वेद । जै २,४०९ (तु. जै ३.३३४)

*सप्तदशेन स्तोमाः । काठ ३५,१५ ।

*सप्त स्तोमाः । माश ९...८ ।

*सर्व हीदं स्तोमा एव । जै २.३१४, ३२५ ।

*सोऽयं त्रिवृत् स्तोमश् चतुष्टोमं चतुर्दशं षोडशम् अष्टादशं नवदशं पञ्चविशं षटत्रिंशम् इत्य् एतान् मृगस्तोमान् प्राजनयत् । जै ३.३२४.

*स्तोमपुरोगवा वै देवा असुरानभ्यजयन् – मै १.६.४

*स्तोमपुरोगा वै देवा एभ्यो लोकेभ्योसुरान् प्राणुदन्त – काठ ८.५

*स्तोमादश्वस्सम्भूतः – काठ. ८.५

*स्तोमश्च मे यजुश्च मे (यज्ञेन कल्पेताम्) – तै.सं. ४.७.९.१

*स्तोमा देवाः । जै १.९० ।

*स्तोमा वै त्रयः स्वर्गा लोकाः । ऐ ४.१८ ।

*स्तोमा वै परमाः स्वर्गा लोकाः । ऐ ४,१८ ।

*स्तोमेन वै देवा अस्मिँल्लोक आर्ध्नुवन् छन्दोभिरमुष्मिन् । तैसं ५., , ६ ।।

*स्तोमो हि पशुः – तां ५.१०.८

*तव छन्दसेत्य् अग्निम् अब्रुवन्। तव स्तोमेनेतीन्द्रम्। तव संपदेति प्रजापतिम्। युष्माकम् आयतननेति विश्वान् देवान्। यद् अग्निम् अब्रुवंस् तव छन्दसेति तस्माद् गायत्रीषु स्तुवन्ति। यद् इन्द्रम् अब्रुवंस् तव स्तोमेनेति तस्मात् पञ्चदशस्तोमो रात्रेः। - जै.ब्रा. १.२११

*तद् आहुर् - मिथुनानि पञ्चाहान्य्, अमिथुनं षष्ठम् अहः। तद् यद् इमं स्तोमम् अर्हते जातवेदस इत्य् आग्नेयम् आज्यं भवति, तेनैव मिथुनं षष्ठम् अहः क्रियते। रथम् इव सं महेमा मनीषयेत्य् एतेन मिथुनं क्रियते। होता वै पूर्वेष्व अहस्सु यजमानायाशिषम् आशास्त उद्गातैतस्मिन्। यो वै साम्नाशिषम् आशास्ते मीयत इव वै तस्य। तद् यद् अग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव, अग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तवेति भवति, भेषजम् एवैतेन प्रायश्चित्तिं कुर्वते। तथा हास्य न मीयते। - जै.ब्रा. ३.१४०

*सुपर्णोऽसि गरुत्मान्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुः स्तोम आत्मा
साम ते तनूर्वमदेव्यं बृहद्रथन्तरे पक्षौ यज्ञायज्ञियं
पुच्छं छन्दांस्यङ्गानि धिष्णिया शफा यजूंषि नाम ॥ - गारुडोपनिषद

 [ -आत्मन्- ५२;  गायत्री- मात्र-; चतुष्टोम- . ढ्यदसू- ७९; ११६; तरस्- ; ; त्रयस्त्रिंश- , त्रिवृत्- ; ३ १ विदद्वसु-; सवितृ- ३४ द्रः ।

स्तोमभाग-

१ आदित्य स्तोमभागाः । माश ८...२ ।

. प्रजापतिः प्रजा असृजत ताः स्तोमभागैर् एवासृजत, यदेत उपधीयन्ते, प्रजननाय । काठ २१.२ ।

. बृहस्पतिर्वा एतां यज्ञस्य प्रतिष्ठामपश्यद्यत् स्तोमभागाः । तैसं ५...५ ।

. यज्ञेन वै प्रजापतिः प्रजा असृजत, ताः स्तोमभागैरेवासृजत । तैसं ५...४ ।

. स्तोमो वा एतेषां भागस्तत् स्तोमभागानां स्तोमभागत्वम् । काठ ३७.१७, गो २..१३ ६. हृदयम ( वै [माश ८,..१५) स्तोमभागाः । माश ८,,,३ ।। ग- तेजस्- २७ द्र.