PURAANIC SUBJECT INDEX पुराण विषय अनुक्रमणिका (Suvaha - Hlaadini) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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राम के ब्रह्मास्त्र से समुद्र – कुक्षि के सूखने और नूतन कूप के निर्माण के माध्यम से आत्मज्ञान द्वारा देह चेतना के विनाश और आत्म-चेतना के निर्माण का चित्रण - राधा गुप्ता युद्धकाण्ड (अध्याय 22) में वर्णित प्रस्तुत कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है – कथा का संक्षिप्त स्वरूप समुद्र के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए राम ने जब ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया, तब समुद्र एक देवता के रूप में प्रकट हुआ और समुद्र – लंघन हेतु उपाय बताने के लिए अग्रसर हुआ। परन्तु राम ने उसे रोका और कहा कि मेरा यह बाण अमोघ है, अतः पहले यह बताईये कि इसे किस स्थान पर छोडा जाए। समुद्र ने कहा कि उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नाम से विख्यात जो पवित्र देश है, वहीं आप इस बाण को सफल कीजिए। वहाँ भयानक रूप और कर्म वाले आभीर जाति के मनुष्य निवास करते हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं और उन्हीं पापाचारियों के स्पर्श से मेरा जल दूषित हो जाता है। समुद्र के कथनानुसार राम ने वहीं अपना बाण छोड दिया। राम के बाण से समुद्र का वह कुक्षिस्थान सूखकर मरुभूमि बन गया और वहीं एक अन्य व्रण (छिद्र) बनकर कुएँ के समान हो गया। कुएँ से निकलता हुआ वह जल भी समुद्र के जल की भाँति दिखाई देने लगा। कथा की प्रतीकात्मकता सर्वप्रथम प्रतीकों को समझकर कथा को समझना सहज होगा। 1- द्रुमकुल्य देश – द्रुमकुल्य शब्द वास्तव में द्रुमकुल शब्द का ही छिपा हुआ स्वरूप है। द्रुमकुल (द्रुम – कुल) का अर्थ है – द्रुम अर्थात् वृक्ष के कुल का। मनुष्य का मन रूपी गहरा समुद्र भी ठीक वैसा ही है जैसा एक वृक्ष, अर्थात् जैसे किसी भी वृक्ष की मूल (जडें) होती हैं और तना, शाखा, पत्ते, फूल तथा फल आदि के रूप में वृक्ष विस्तार को प्राप्त करता है, उसी प्रकार मनुष्य का मन भी एक वृक्ष की भाँति होता है। संचित अनुभव, मान्यताएँ, वर्तमान सूचनाओं पर आधारित ज्ञान तथा इन तीनों के समन्वय से निर्मित हुई चेतना (शरीर – चेतना अथवा आत्म – चेतना) उस मन रूपी वृक्ष की मूल (जडें) होती हैं तथा विचार, भाव, दृष्टिकोण, कर्म, आदतें, दृष्टि, व्यक्तित्व और भाग्य उस मन रूपी वृक्ष के तने, शाखा, पत्ते, फूल तथा फल आदि होते हैं। मन रूपी द्रुमकुल देश को निम्नांकित तालिका से भलीभाँति समझा जा सकता है।
यह तालिका एक वृक्ष की भाँति है, इसीलिए इसे द्रुमकुल देश कहकर संकेतित किया गया है। 2 – आभीर जाति के स्पर्श से समुद्र के जल का दूषित होना – आभीर (आ – भियं – राति) शब्द का अर्थ है – चारों ओर से (आ) भय को (भयं) देने वाला (राति)। देह – चेतना (मैं शरीर हूँ – इस अहसार में स्थित) को ही यहाँ द्रुमकुल्य देश की आभीर जाति कहकर संकेतित किया गया है क्योंकि देह चेतना ही मनुष्य को चारों ओर से भय प्रदान करती है। मृत्यु का भय, व्यक्तियों और वस्तुओं को खोने का भय, सुरक्षा का भय, मान – सम्मान को गंवाने का भय तथा आधि – व्याधि का भय आदि अनेक प्रकार के भय हैं जिनसे मनुष्य निरन्तर ग्रस्त रहता है। कथा संकेत करती है कि देह – चेतना में रहते हुए उपर्युक्त भयों से ग्रस्त रहने के कारण मन रूपी समुद्र का विचार रूप जल दूषित हो जाता है और विचार के दूषित होने पर भाव, दृष्टिकोण, कर्म आदि के रूप में सारा मनःसमुद्र ही दूषित हो जाता है। इसी तथ्य को कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि आभीर जाति के पापाचारी मनुष्यों के स्पर्श से मन रूपी समुद्र दूषित हो जाता है। 1- राम के ब्रह्मास्त्र से कुक्षिप्रदेश का सूखना और मरुप्रदेश का बनना कुक्षि का अर्थ है – भीतरी भाग या गर्भाशय। समझने की सुविधा के लिए, मन रूपी समुद्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक भाग वह है जो विचार, भाव, दृष्टिकोण तथा आदतों आदि के रूप में मनुष्य को दिखाई देता है तथा दूसरा भाग वह है जो विद्यमान तो है परन्तु दिखाई नहीं देता। इसी अदृश्य भाग के आधार पर दृश्य भाग विद्यमान रहता है। कथा में इस अदृश्य भाग को ही मन रूपी समुद्र का कुक्षि प्रदेश कहा गया है। इस कुक्षि प्रदेश में जन्मों – जन्मों में संचित किए गए अनुभव, अनुभवों से निर्मित हुई मान्यताएँ, वर्तमान सूचनाओं पर आधारित हुआ ज्ञान तथा इन तीनों के समन्वय से बनी हुई चेतना (देह – चेतना अथवा आत्म – चेतना) संस्कार रूप होकर विद्यमान होती है। यदि यह चेतना देहपरक होती है, तब मन रूपी समुद्र का ऊपरी दृश्य भाग – जो विचार – भाव – दृष्टिकोण आदि के रूप में दिखाई देता है – देहपरक हो जाता है। इसके विपरीत, यदि यह चेतना आत्मपरक होती है, तब वही ऊपरी दृश्य भाग आत्मपरक हो जाता है। प्रस्तुत कथा यह संकेत करती है कि मन रूपी समुद्र के ऊपरी भाग को अर्थात् विचार, भाव, दृष्टिकोण आदि को आत्मपरक बनाने के लिए एकमात्र उपाय यही है कि इस कुक्षिप्रदेश में विद्यमान देह-चेतना को ही आत्म – चेतना में रूपान्तरित किया जाए और चेतना का यह रूपान्तरण केवल तभी घटित होता है जब मनुष्य आत्म – ज्ञान में स्थित हो। आत्मज्ञान का लक्ष्य ही है – मन रूपी समुद्र के कुक्षि प्रदेश में विद्यमान देह – चेतना को आत्म – चेतना में रूपान्तरित कर देना। इसे ही कथा में राम के बाण से कुक्षि प्रदेश का सूखना और मरुभूमि का निर्मित हो जाना कहा गया है। 4 – राम के ब्रह्मास्त्र से नए व्रण(छिद्र) का निर्माण और व्रण का कूप रूप धारण स्वस्वरूप - आत्मस्वरूप को पहचानकर आत्मगुणों में स्थित होने पर मनुष्य के जीवन का सारा समीकरण बदल जाता है। अतः मलिन विचारों का निर्माण बन्द होकर श्रेष्ठ विचारों का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। श्रेष्ठ विचारों के निर्माण को ही यहाँ नए व्रण (छिद्र) के रूप में इंगित किया गया है। यही नूतन व्रण(छिद्र) शनैः – शनैः कूप का स्वरूप धारण कर लेता है, अर्थात् जैसे कूप कभी सूखता नहीं, उसमें जल की आवक (आगमन) सदा बनी रहती है, उसी प्रकार आत्मज्ञान में स्थित होकर आत्मगुणों में रहने पर श्रेष्ठ विचार भी कभी समाप्त नहीं होते अपितु सतत् वृद्धि को प्राप्त होते रहते हैं। 5 – ब्रह्मास्त्र – ब्रह्मास्त्र (ब्रह्मा – अस्त्र) का अर्थ है – रचयिता शक्ति द्वारा बनाया गया स्वभाव रूपी अस्त्र। प्रत्येक तत्त्व का अपना जो विशिष्ट स्वरूप है – वही उसका ब्रह्मास्त्र है तथा आत्मज्ञानी के पास सुख – शान्ति – शुद्धता – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द रूप स्वभाव ही उसका ब्रह्मास्त्र है।
कथा का तात्पर्य अपने आपको शरीर समझकर तदनुसार जीवन जीने वाला प्रत्येक मनुष्य प्रतिपल जिन विचारों की रचना करता है, उन विचारों को यदि ध्यानपूर्वक देखा जाता है, तब पता चलता है कि उनमें शुद्धता का अंश कम, कलुषता का अंश अधिक होता है। इन्हीं विचारों से भाव का निर्माण होता है और भावों से दृष्टिकोण आदि का। अतः केवल विचार के कलुषित होने से भाव, दृष्टिकोण, कर्म, आदतें, दृष्टि, व्यक्तित्व तथा भाग्य आदि के रूप में सारा मनःसमुद्र ही कलुषित हो जाता है। कथा संकेत करती है कि इस मनःसमुद्र को पवित्र करने के लिए सारे मनःसमुद्र के पृथक् – पृथक् तल को पवित्र करने की आवश्यकता नहीं है। केवल मूल को रूपान्तरित करके सारे मनःसमुद्र को रूपान्तरित किया जा सकता है। इस मनःसमुद्र के मूल में विद्यमान होते हैं वे अनुभव जिनका संग्रह मनुष्य ने ही अनेक – अनेक जन्मों में किया है, वे बहुत सारी मान्यताएँ, जो अनुभवों के फलस्वरूप निर्मित ही हैं, वह सूचना – आधारित ज्ञान जिसे मनुष्य वर्तमान से ग्रहण करता है तथा इन तीनों के समन्वय से बनी हुई देह – चेतना। इसे ही कथा में मन रूपी समुद्र का कुक्षिप्रदेश भी कहा गया है। कथा संकेत करती है कि स्वस्वरूप – आत्मस्वरूप को पहचानकर तथा आत्मगुणों में स्थित होकर मनःसमुद्र के इस मूल को रूपान्तरित किया जा सकता है और आत्म – ज्ञान का लक्ष्य भी यही है। आत्मस्वरूप को पहचानकर और आत्मगुणों में स्थित होकर जीवन में प्राप्त होने वाले सारे अनुभव बदल जाते हैं। अनुभवों के बदलने से मान्यताएँ बदल जाती हैं तथा मान्यताओं के बदलने से शनैः – शनैः सूचना ग्रहण का स्वरूप भी बदल जाता है। फलस्वरूप इन तीनों के बदलने से देह – चेतना भी आत्म – चेतना में रूपान्तरित होकर सारे मनःसमुद्र को परिवर्तित कर देती है अर्थात् मन रूपी समुद्र सारी कलुषता का परित्याग करके पूर्णतः पवित्र हो जाता है। प्रथम लेखन – 27-10-2014ई.(कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् 2071) Achievement of pure mind by changing consciousness from body to soul - Radha Gupta In Yuddha kanda (chapter22), there is a short story of impure mind symbolized as sea. It is said that Rama wanted sea to give way to his brigade of vanaras but the sea did not appear. Rama got angry and picked up his bow. But in the meanwhile, sea appeard as a deity and wished to tell him the method to cross the sea. Rama interrupted and asked him to tell first the place where to drop the arrow. Sea told Rama that he should drop his arrow in Drumakulya, where Aabheera cast people live. These people with bad karmas drink his water, but their touching makes the water dirty. Accordingly, Rama dropped his arrow at this place. As a result, that place of dirty water got dried up and new small hole developed which soon got converted into a well. This new water flowing from the well appeared like sea water. The story is symbolic and depicts the glory of Self Knowledge. It says that having lived in body – consciousness , the mind becomes impure and this impure mind always remains as a big obstacle in one’s own success. Therefore, it becomes very essential to change it. The story says that the best method to change it is to change the consciousness itself. As soon as the consciousness changes, the impure mind changes or it can be said that all the impurities of mind get destroyed. Now, the question arises how to change the consciousness from body to soul. The story describes that the Knowledge of Self changes this consciousness. A person, knowing his real self and living with his innate qualities always focusses on the roots. Past experience, belief and present information are the root cause of body consciousness. Self knowledge changes this root cause and as soon as it changes, the consciousness gets transformed from body – consciousness to soul consciousness. Now this soul – consciousness first changes the thoughts to purity and then the whole series of feeling, attitude, action, habit, perception, personality and destiny etc. all become pure. Here the body – consciousness is symbolized as Aabheera caste, cause of body – consciousness as Kukshi – Pradesh of sea, soul consciousness as well of pure water and the flowing water of well as pure mind.
नल द्वारा सेतु निर्माण की भूमिका - विपिन कुमार जैसा कि सेतु निर्माण की टिप्पणी के प्रथम भाग में कहा जा चुका है, वैश्वानर (विश्वानर) शब्द के दो भाग हैं – विश्व और सर्व। विश्व और नर को मिलाकर विश्वानर शब्द बन गया है जबकि सर्वनर की उपेक्षा कर दी गई है। डा. फतहसिंह के अनुसार सर्व से तात्पर्य है हमारी बहिर्मुखी वृत्तियों से और विश्व से तात्पर्य है हमारी अन्तर्मुखी वृत्तियों से। रामायण में सर्व प्रकार की वृत्तियों का प्रतिनिधित्व आभीरों आदि द्वारा किया गया है। जब राम के ब्रह्मास्त्र से इस प्रकार की वृत्तियों का नाश हो जाता है तो वहां मरु प्रदेश का बन जाना कहा गया है जिसमें पशु, वनस्पति आदि की बहुलता कही गई है(पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुतः। बहुस्नेहो बहुक्षीरः सुगन्धिर्विविधौषधिः।।42।। एवमेतैश्च संयुक्तो बहुभिः संयुतो मरुः)। सामान्य मरुस्थल में ऐसी समृद्धि देखने को नहीं मिलती। राधा द्वारा आभीर शब्द की निरुक्ति आ – भी (भय) - चारों ओर से भय के रूप में ठीक ही की गई है। जब हमारे जीवन को, हमारे अस्तित्व को भय होता है तो तनाव उत्पन्न हो जाता है। सबसे बडा भय तो मृत्यु से होता है। प्रत्येक क्षण जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है। इसका कारण हमारी बहिर्मुखी वृत्ति कहा जाता है। राम के ब्रह्मास्त्र द्वारा इन बहिर्मुखी वृत्तियों का विनाश कहा गया है। विज्ञान में तो ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे इस जगत में खिडकियां बाहर की ओर खुलने के बदले अंदर की ओर खुलने लगें। रामायण में इस प्रदेश को द्रुमकुल्य कहा गया है। महाभारत सभापर्व १०.२९.२ में किम्पुरुष वर्ष के अधिपति के रूप में द्रुम का उल्लेख आता है जो कुबेर की उपासना करते हैं। किम्पुरुष नपुंसक व्यक्ति को कहा जाता है। यह द्रुमकुल्य देश के मरु प्रदेश बनने से साम्य रखता है। द्रु का सामान्य रूप से अर्थ द्रुत गति होता है। द्रु का अर्थ वनस्पति लिया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.3.9.1 में द्रु का अर्थ वनस्पति लिया गया है । यह कहा जा सकता है कि पृथिवी की ऊर्जा द्रुत गति से वनस्पति आदि के रूप में बाहर निकल रही है जिस पर सबसे पहले विराम लगाने की आवश्यकता है। एक बार इसे रोककर, मरुभूमि बनाकर फिर नियन्त्रित रूप में द्रुमकुल्या के रूप में बाहर निकालने की आवश्यकता है। कुल्या(लोकभाषा में भूमि से स्वतः निस्सारित होने वाले जल की धारा) का अर्थ पितरों को, हमारा पालन करने वाले तन्त्रों को स्वधा ऊर्जा द्वारा सींचने वाला लिया गया है(शतपथ ब्राह्मण 11.5.6.4-7)। लेकिन यह सिंचन तभी हो सकता है जब हमें पयः, घृत, मधु, मेद की आहुतियां देनी आती हों। पयः का जनन तब होता है जब तनाव समाप्त हो गया हो। आभीर शब्द के संदर्भ में नाभि के महत्त्व को भी भुलाया नहीं जा सकता। नाभि का अर्थ होगा – जहां भय नहीं है। नाभि का उल्लेख इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि रामायण में द्रुमकुल्य देश को कुक्षि प्रदेश में स्थित कहा गया है। नाभि चक्र के विकास के पश्चात् ही आज्ञा चक्र का नर या नल सेतु बनाने में समर्थ हो सकता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि द्रुमकुल्या के प्रसंग को रामायण में सेतुबन्ध से पूर्व स्थान दिया गया है। जब द्रुमकुल्या देश का राम के ब्रह्मास्त्र से उद्धार हो गया, तभी समुद्र ने नल द्वारा सेतु बन्धन का उपाय बताया। पुराणों में कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् अर्जुन के साथ द्वारका से लौटती हुई कृष्ण की पत्नियों का आभीरों द्वारा हरण का उल्लेख आता है, जबकि वैदिक साहित्य में आभीरी कन्या को पकड कर गौ के मुख में डालकर उसे गायत्री, उर्वशी आदि बना देने का प्रसंग आता है। लेकिन वैश्वानर शब्द की जितनी विशद् व्याख्या रामायणकार ने की है, उतनी अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। प्रथम लेखन – 1-11-2014ई.( कार्तिक शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2071)
संदर्भ- *कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्या कृता ह्यन्य भवान्तरेषु । आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे ।।59।। जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी। तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा ।।60।। – मत्स्य पुराण 69.59 *एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं। स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः ।।१३१।। आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना। न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी ।।१३२।। न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना। ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।।१३३।। संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा। यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।।१३४।। – पद्म पुराण 1.16.132 *अयमेकोऽर्जुनो धन्वी स्त्रीजनं निहतेश्वरम्। नयत्यस्मानतिक्रम्य धिगेतत्क्रियतां बलम्॥ २१२.१५॥ हत्वा गर्वसमारूढो भीष्मद्रोणजयद्रथान्। कर्णादींश्च न जानाति बलं ग्रामनिवासिनाम्॥ २१२.१६॥ बलज्येष्ठान्नरानन्यान् ग्राम्यांश्चैव विशेषतः। सर्वानेवावजानाति किं वो बहुभिरुत्तरैः॥ २१२.१७॥ - ब्रह्म पुराण 1.110.17 *अथापरे जनपदा दक्षिणापथवासिनः॥१,१६.५५॥ पण्ड्याश्च केरलाश्चैव चोलाः कुल्यास्तथैव च। सेतुका मूषिकाश्चैव क्षपणा वनवासिकाः॥१,१६.५६॥ माहराष्ट्रा महिषिकाः कलिङ्गश्चैव सर्वशः। आभीराश्च सहैषीका आटव्या रवास्तथा॥१,१६.५७॥ पुलिन्दा विन्ध्यमौलीया वैदर्भा दण्डकैः सह। पौरिका मौलिकाश्चैव श्मका भोगवर्द्धिनाः॥१,१६.५८॥ कोङ्कणाः कन्तलाश्चान्ध्राः कुलिन्दाङ्गारमारिषाः। दाक्षिणाश्चैव ये देशा अपरांस्तान्निबोधत॥१,१६.५९॥ - ब्रह्मांड पुराण 1.2.16.59 *आभीरा मन्त्रयामासुःसमेत्यान्यन्तदुर्मदाः ॥ ५,३८.१४ ॥ अयमेकोर्ऽजुनो धन्वी स्त्रीजनं निहतेश्वरम् । नयत्यस्मानतिक्रम्य धिगेतद्भवतां बलम् ॥ ५,३८.१५ ॥ हत्वा गर्वसमारूढो भीष्मद्रोमजयद्रथान् । कर्णादींश्च न जानाति बलं ग्रामनिवासिनाम् ॥ ५,३८.१६ ॥ यष्टिहस्तानवेक्ष्यास्मान्धनुष्पाणिःस दुर्मतिः । सर्वानेवावजानाति किं वो बाहुभिरुन्नतैः ॥ ५,३८.१७ ॥ ततो यष्टिप्रहरणादस्यवो लोष्टधारिणः । सहस्रशोभ्यधावन्त तं जनं निहतेश्वरम् ॥ ५,३८.१८ ॥ ततो निर्भर्त्स्य कौतेयः प्राहाभीरान्हसन्निव । निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि न स्थ मुमूर्षवः ॥ ५,३८.१९ ॥ अवज्ञाय वचस्तस्य जगृहुस्ते तदा धनम् । स्त्रीधनं चैव मैत्रेय विष्वक्सेन परिग्रहम् ॥ ५,३८.२० ॥ ततोर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं युधि । आरोपयितुमारेभे न शशाक च वीर्यवान् ॥ ५,३८.२१ ॥ चकार सज्यं कृच्छ्राच्चतच्चाभूच्छिथिलं पुनः । न सस्मार ततोस्त्राणि चिन्तयन्नपि पाण्डवः ॥ ५,३८.२२ ॥ शरान्मुमोच चैतेषु पार्था वैरिष्वमर्षितः । त्वग्भेदं दे परं चक्रुरस्ता गाण्डीवधन्विना ॥ ५,३८.२३ ॥ वह्निना येऽक्षया दत्ताः शरास्तेपि क्षयं ययुः । युद्ध्यतः सह गोपालैरर्जुनस्य भवक्षये ॥ ५,३८.२४ ॥ अचिन्तयच्च कौन्तेयः कृष्णस्यैव हि तद्बलम् । - विष्णु पुराण *आभीकम् अभिनिधनम् अभीवर्तम् आभीशवम् इत्य् एतानि सामानि भवन्ति अभिभूत्यै रूपम्। - जै.ब्रा. 1.344 *अभिवतीषु स्तुवन्त्य् एषाम् एव लोकानाम् अभिजित्यै। आभीकम् अभिनिधनम् अभीवर्त आभीशवम् इत्य् एतानि सामानि भवन्त्य्, एषाम् एव लोकानाम् अभिजित्यै॥जै.ब्रा. 2.178॥ *अथाभीशवम् अभ्यारम्भो यज्ञस्य प्रत्यपसारो, ऽभ्य् एव पञ्चमम् अहर् आरभते प्रति तृतीयम् अपधावति। द्वादशाहेन वै देवा ऊर्ध्वा स्वर्गं लोकम् आयन्। स एषाम् असंगृहीतो वीवास्रंसत। त एते सामनी अपश्यन्। ताभ्याम् एनं यथाभीशुभ्यां रथं संगृह्यारोहेद् एवम् एवाभ्यां संगृह्य स्वर्गं लोकम् आरोहन्। ते ऽब्रुवन् स्वर्गं लोकं गत्वा अभीशू वाव न इमे सामनी यज्ञस्याभूताम् इति। तद् एवाभीशवयोर् आभीशवत्वम्। ते एते स्वर्ग्ये सामनी। अश्नुते स्वर्गं लोकं य एवं वेद। तस्माद् उ हैते सामनी उभे कार्ये। यथा हैकाभीशुना यायाद् उभे एव कार्ये। अत्रान्यत् स्यान् नवमे ऽहन्न् अन्यतरत्। अभीशुर् वै श्यावाश्विर् अकामयत - देवा मे सोमस्य तृप्येयुर् इति। स एते सामनी अपश्यत्। ताभ्याम् अस्तुत। ततो वै तस्य देवास् सोमस्यातृप्यन्। तयोर् वा एतयोर् अस्त्य् अपसिद्धम् इव यथैव तर्पयेद् एवम्। ए ए इति वा अपसेधन्तस् संतर्पयन्ति। ते एते तृप्तिस्सामनी। तृप्यन्त्य् अस्य देवास् सोमस्य य एवं वेद। यद् व् अभीशुश् श्यावाश्विर् अपश्यत्, तस्माद् आभिशवे इत्य् आख्यायेते॥3.68॥ *उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे। उग्रं शर्म महि श्रवः।।1।। स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः। वरिवोवित्परि स्रव।।2।। एना विश्वान्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम्। सिषासन्तो वनामहे।।3।।
*अथाभीकम्। देवा वा अकामयन्ताभीकं नश् शिवम् आप उपस्पृशेयुर् इति। त एतत् सामापश्यन्। तेनास्तुवत। ततो वै तान् अभीकं शिवम् आप उपास्पृशन्। तद् आभीकस्याभीकत्वम्। अभीकं ह वा एनं शिवम् आप उपस्पृशन्ति य एवं वेद। ऋषयो वै तपस् तेपाना अशोचन्। ते ऽकामयन्ताभीकं नश् शिवम् आप उपस्पृशेयुर् इति। त एतत् सामापश्यन्। तेनास्तुवत। ततो वै तान् अभीके ऽभ्यवर्षत्। तद् व् एवाभीकस्याभीकत्वम्। तद् आपो वै शान्तिः। शुशुचाना इवैते तेपाना इव भवन्ति य एतद् अहर् आगच्छन्ति। तद् यद् अत्राभीकं भवति शुच एवापहत्यै। तद् वा आभीकम् इति कवत् प्राजापत्यं सामाह्नो रूपेण समृद्धम्। यत्र वा अहारूपेण समर्धयन्ति सं तत्रर्ध्यते। सम् अस्मा ऋध्यते य एवं वेद॥जै.ब्रा. 3.284॥ *<१२.९.१५> आभीशवं भवत्यह्नो धृत्यै <१२.९.१६> यद्वा अधृतमभीशुना तद्दाधार <१२.९.१७> अनुतुन्नं गायति तथा ह्येतस्याह्नो रूपम् – तां.ब्रा. *<१५.९.८> आभीकं भवत्यभिक्रान्त्यै <१५.९.९> आङ्गिरसस्तपस्तेपानाः शुचमशोचंस्त एतत् सामापश्यंस्तानभीकेऽभ्यवर्षत् तेन शुचमशमयन्त यदभीकेऽभ्यवर्षत् तस्मादाभीकं यामेव पूर्वैरहर्भिः शुचं शोचन्ति तामेतेनान्न शमयित्वोत्तिष्ठन्ति – तां.ब्रा. *११.५.६.[४] पयाअहुतयो ह वा एता देवानाम् यदृचः स य एवं विद्वानृचोऽहरहः स्वाध्यायमधीते पयाअहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति
११.५.६.[५] आज्याहुतयो ह वा एता देवानाम् यद्यजूंषि स य एवं विद्वान्यजूंष्यहरहः स्वाध्यायमधीत आज्याहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति ११.५.६.[६] सोमाहुतयो ह वा एता देवानाम् यत्सामानि स य एवं विद्वान्त्सामान्यहरहः स्वाध्यायमधीते सोमाहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति ११.५.६.[७] मेदाअहुतयो ह वा एता देवानाम् यदथर्वाङ्गिरसः स य एवं विद्वानथर्वाङ्गिरसोऽहरहः स्वाध्यायमधीते मेदाअहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति ११.५.६.[८] मध्वाहुतयो ह वा एता देवानाम् यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंस्यः स य एवं विद्वाननुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंसीरित्यहरहः स्वाध्यायमधीते मध्वाहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति *तमब्रवीत् तदा रामः शृणु मे वरुणालय। अमोघोऽयं महाबाणः कस्मिन् देशे निपात्यताम्।।30।। रामस्य वचनं श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा महाशरम्। महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्।।31।। उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम। द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्।।32।। उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः। आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम।।33।। तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः। अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः।।34।। तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः। मुमुचो तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात्।।35।। तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्। निपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः।।36।। ननाद च तदा तत्र वसुधा शल्यपीडिता। तस्माद् व्रणमुखात् तोयमुत्पपात रसातलात्।।37।। स बभूव तदा कूपो व्रण इत्येव विश्रुतः। सततं चोत्थितं तोयं समुद्रस्येव दृश्यते।।38।। अवदारणशब्दश्च दारुणः समपद्यत। तस्माद् तद् बाणपातेन अपः कुक्षिष्वशोषयत्।।39।। विख्यातं त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेव च। शोषयित्वा तु तं कुक्षिं रामो दशरथात्मजः।।40।। वरं तस्मै ददौ विद्वान् मरवेऽमरविक्रमः।।41।। पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुतः। बहुस्नेहो बहुक्षीरः सुगन्धिर्विविधौषधिः।।42।। एवमेतैश्च संयुक्तो बहुभिः संयुतो मरुः। रामस्य वरदानाच्च शिवः पन्था बभूव ह।।43।। तस्मिन् दग्धे तदा कुक्षौ समुद्रः सरितां पतिः। राघवं सर्वशास्त्रज्ञमिदं वचनमब्रवीत्।।44।। अयं सौम्य नलो नाम तनयो विश्वकर्मणः। पित्रा दत्तवरः श्रीमान् प्रीतिमान् विश्वकर्मणः।।45।। एष सेतुं महोत्साहः करोतु मयि वानरः। तमहं धारयिष्यामि यथा ह्येष पिता तथा।।46।। - वाल्मीकि रामायण (गीताप्रेस, गोरखपुर) युद्धकाण्ड सर्ग 22
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